जड़ता छोड़ें---प्रगतिशीलता अपनाएं।

April 1966

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प्रगतिशीलता जीवन का लक्षण है और जड़ता मृत्यु का। जो राष्ट्र और समाज प्रगतिशीलता के हामी होते और उसको अपने आचार-विचार में क्रियान्वित करते हैं, वे संसार में अग्रणी बने रहते हैं। अन्य समाजों एवं राष्ट्रों पर उनका प्रभाव बना रहता है। ऐसे प्रभावशाली राष्ट्रों एवं समाजों के व्यक्ति संसार के जिस कोने में जाते हैं, आदर पाते हैं। प्रगतिशील राष्ट्रों की ही सभ्यता-संस्कृति संसार में प्रसार पाती है और इतिहास के अक्षरों से लेकर धरती के वक्ष-स्थल पर प्रगतिशील राष्ट्र व समाज अनन्त काल तक चिरंजीवी बनकर अमिट रहते हैं।

संसार में शायद ही कोई ऐसा राष्ट्र व समाज हो, जो चिरन्तन आयु और अपनी सभ्यता-संस्कृति का प्रसार इस धरा-धाम में न चाहता हो। किन्तु यह सौभाग्य कोई-कोई पाता है। यह सौभाग्य पाने वालों में होते वही समाज एवं राष्ट्र हैं, जो प्रगतिशील होते हैं। एक बार यदि संसार के सारे राष्ट्र व समाज समान रूप से प्रगतिशील बन जायें तो शीघ्र ही संसार से शोषण, उत्पीड़न और गुलामी के दोष दूर हो जायें। किन्तु मुश्किल तो यह है कि एक समय में कुछेक राष्ट्र व समाज प्रगतिशील हो पाते हैं, बाकी अपनी सड़ी-गली पुरातन परम्परा की बेड़ी में जकड़े यथास्थान घसीटते रहते हैं, जिसका फल यह होता है कि वे कतिपय प्रगतिशील समाज व राष्ट्र शेष संसार पर हावी हो बैठते हैं और उसे मनमाने ढंग से हाँकते और उसका शोषण किया करते हैं। ऐसी दशा में शोक-सन्तापों की अभिवृद्धि के कारण यह संसार जलता हुआ नरक-कुण्ड बना रहता है।

प्रगतिशील बनने के लिये इसका ठीक-ठीक अर्थ समझ लेना भी आवश्यक है। क्योंकि इसके नाम पर आज बहुत-सी कुप्रवृत्तियों को आश्रय दिया जाने लगा है। आज लोग आदर्शवाद को छोड़कर भोगवाद और सारल्य-सौम्यता को त्याग कर प्रदर्शन वाद को ही प्रगतिशीलता मानने लगे हैं। मनमाने ढंग से जीवन बिताना और किसी सामान्य सामाजिक अनुशासन को न मानना भी प्रगतिशीलता का लक्षण माना जाने लगा है। जबकि यह प्रगतिशीलता नहीं, बल्कि उच्छृंखलता है।

वास्तविक प्रगतिशीलता उस क्रियाशील विवेक बुद्धि को कहते हैं, जो मनुष्य को आगे देखने और सानुकूल उन्नति पथ पर आगे बढ़ने की प्रेरणा और शक्ति सामर्थ्य प्रदान कर सके। जिन मनुष्यों को अपने प्रत्येक व्यवहार में उसके अच्छे बुरे परिणाम का ध्यान रहता है, जिनको यह ज्ञान रहता है कि वे क्या करना चाहते हैं, क्या कर रहे हैं, किस लिये कर रहे हैं और उसका क्या लाभ है? वे वास्तव में प्रगतिशील व्यक्ति हैं। जिसको कोई व्यवहार करते समय उसके हानि-लाभ का ज्ञान न हो और केवल आदतन, देखा-देखी अथवा परम्परा-पालन रूप करता चला जाये वह प्रगतिशील नहीं, जड़ मात्र ही माना जायेगा।

आज भारतीय समाज निःसन्देह इन मानों में बहुत कुछ जड़ हो गया है। उसकी बौद्धिक प्रगतिशीलता कुण्ठित हो गई है। उसका वह स्वतन्त्र चिन्तन धूमिल हो गया, जिसके बल पर वह आज की वास्तविक आवश्यकतायें समझ सके और उनको पूरा करने के लिये प्रयत्न कर सके। आज शताब्दियों से वह जिस दुर्गति के गर्त में पड़ा सड़ रहा है, उसी में पड़े रहने में सन्तोष अनुभव कर रहा है। जीवन को अच्छी प्रकार एक सुव्यवस्थित ढंग से जीने की प्रौढ़ चेतना उसमें दृष्टिगोचर नहीं होती। वह जैसे-तैसे अस्त व्यस्तता के साथ बहुमूल्य जीवन को ठेल कर ठिकाने भर लगा देना ही जिन्दगी का लक्ष्य समझ रहा है। उसे संसार में आगे बढ़ना है। दूसरे के प्रभाव से मुक्त होना है, अपने में उन्नति एवं विकास की परिस्थितियाँ उत्पन्न करनी हैं और एक ऐसा आदर्श-जीवन जीना है, जो दूसरों के लिये अनुकरणीय बनकर उनको वास्तविक सुख-शाँति की ओर ले जा सके।

भारतीय समाज में जब तक यह जड़ता बनी रहेगी, वह किसी भी क्षेत्र में उन्नति न कर सकेगा। स्वतन्त्र हो जाने पर भी अन्य लोग उसकी अप्रगति शीलता से लाभ उठाते हुए अपने प्रभाव में रक्खे रहेंगे, उसे डराते, धमकाते और विविध प्रकार की कुटिल एवं कूटनीतियों से उसका शोषण करते रहेंगे। केवल राजनीतिक स्वतन्त्रता-भर मिल जाने से ही समाज व राष्ट्र की उन्नति नहीं हो सकती। राजनीतिक स्वतंत्रता तो उन्नति एवं विकास करने का एक अवसर मात्र है, जिसका उपयोग करके उन्नति तो भारतीय समाज को अपने सत्प्रयत्नों के बल पर ही करनी होगी।

भारतीय समाज की गणना आज संसार के पिछड़े समाजों में की जाती है और ईमानदारी की बात तो यह है कि हमारा समाज वास्तव में एक पिछड़ा समाज है। इस सत्य को स्वीकार करते हुए आज भारतीयों का प्रमुख कर्तव्य है कि वह इस कलंक को अपने सामाजिक एवं राष्ट्रीय जीवन पर से धो डालें।

संसार के प्रगतिशील राष्ट्रों के समकक्ष होने, उनसे बराबरी का व्यवहार पाने और अपने राष्ट्रीय स्वाभिमान को निरापद करने के लिये आवश्यक है कि हम अपनी वैयक्तिक एवं सामाजिक दुर्बलताओं को दूर करें और अपने में वास्तविक प्रगतिशीलता का गुण उत्पन्न करें।

जैसा कि ऊपर कहा जा चुका है कि प्रगतिशीलता की प्राप्ति अपने में स्वतन्त्र चिन्तन विकसित किये बिना नहीं हो सकती, परम्पराओं, प्रथाओं एवं चली आ रही पुरानी रीति, नीतियों एवं अन्ध-परम्पराओं से प्रेरित होकर चलना छोड़कर किसी रीति-नीति को अपनी स्वतंत्र चिंतन से औचित्य के तराजू पर तोल कर अपनाना ही प्रगतिशीलता है। कोई परम्परा अथवा प्रथा केवल इसलिये अपनाये रहना कि वह प्राचीन काल से चली आ रही है अथवा किसी रीति-नीति को केवल इसलिये अपना लेना कि वह आधुनिक है, अप्रगति शीलता है। प्रगतिशीलता तो इसमें है कि हम किसी भी रीति-नीति को प्राचीनता अथवा अर्वाचीनता के आधार पर न अपनाकर उसकी उपयोगिता के आधार पर अपनायें। अनुपयोगी प्राचीन परम्परा को छोड़ने और उपयोगी आधुनिकता को अपनाने का साहस रखने वाले ही प्रगतिशील कहे जा सकते हैं।

आज यदि भारतीय समाज को उन्नति करनी है, एक सबल एवं सशक्त राष्ट्र बनकर, दूसरों के प्रभाव एवं निर्भरता से मुक्त होकर अपना स्वतन्त्र अस्तित्व प्राप्त करना है, संसार के अन्य उन्नत राष्ट्रों के समकक्ष अपना सम्मानपूर्ण स्थान बनाना है, तो उसे प्रगतिशील बनकर अपनी सारी अन्ध-परम्पराओं को निकाल फेंकना होगा, अनुपयोगी एवं हानिकारक प्रथाओं को त्यागना होगा और तिलाँजलि देनी ही होगी उन कुरीतियों को जो प्रगति-पथ पर चट्टान की तरह अड़ी हुई मार्ग रोके हुए हैं।

आज केवल अतीत गौरव के नशे में झूमते रहने से काम नहीं चलेगा। आज संसार की परिस्थिति को खुली आँखों से देखना होगा और वस्तु-स्थिति को स्वतन्त्र बुद्धि से समझना ही होगा, तभी हममें वह चेतना जागृत हो सकेगी, जिसके प्रकाश में अपने कर्तव्य को ठीक-ठीक देख सकेंगे और यदि अतीत की समीपता हमें वाँछनीय है तो फिर हमको निकट अतीत तक ही नहीं, अपने देश के आदिम अतीत तक की यात्रा करनी होगी, और अपने समाज की नव-रचना के लिये उन वैदिक युगीन परम्पराओं एवं रीतियों-नीतियों को लाना होगा, जो आज के समय की आवश्यकता पूरी कर सके और एक उज्ज्वल सामाजिक भविष्य के लिये उपयोगी हो सकें।

चार-छः सौ साल अथवा हजार-दो-हजार वर्ष तक के अतीत काल को वर्तमान अथवा भविष्य के लिये सामाजिक आधार बनाना ठीक न होगा। क्योंकि यह अवधि भारत का अंधकार युग है और इस समय में शुद्ध, सात्विक तथा उपयोगी वैदिक रीति-नीतियाँ, आक्रान्ताओं के षड़यंत्रों एवं मतमतान्तरों के दूषित प्रभाव से विकृत हो गई हैं और आज तक उसी परम्परा में हमारे समाज को जकड़े चली आ रही हैं।

अब भारत स्वाधीन हो गया है। जिस प्रकार पराधीनता के अन्ध-युग की परम्पराओं एवं सामाजिक विकृतियों को हम विवशतापूर्वक अब तक ढोते चले आये हैं, उसी प्रकार उनको आज के स्वाधीन प्रकाश में त्याग दें। इसी में उन्नति है, प्रगति है और कल्याण है।


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