मितव्ययिता का महत्व समझिए।

April 1966

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संसार में सुख कोई भिन्न वस्तु नहीं है। दुःख का अभाव ही वास्तव में सुख है। सुख पाने के सारे निमित्त एवं प्रयास दुःख दूर करने के ही उपाय हुआ करते हैं।

विशुद्ध एवं विशिष्ट आध्यात्मिक क्षेत्र को छोड़कर यदि हम अपने सामान्य साँसारिक क्षेत्र, जिसमें कि हम रह ही रहे हैं, में आ जावें और युक्त दृष्टिकोण से विचार करें तो पता चलेगा कि पैसे की सुविधा हमारे बहुत से दुःख दूर रखने में एक बड़ी सीमा तक सहायक हुआ करती है।

पैसे की सहायता से ही हम अपने तथा अपने परिवार के लिये भोजन, वस्त्र एवं निवास की व्यवस्था करते हैं। पैसे के बल पर ही शिक्षा, स्वास्थ्य तथा सामाजिक सज्जनता के साधन जुटाते हैं। ब्याह-शादी, जन्म-मृत्यु, समागत-स्वागत, दान-पुण्य, तीर्थ-यात्रा आदि सारे आचार-व्यवहार पैसे के सहारे ही कर सकना सम्भव होता है। यदि हमारे पास पैसे का अत्यंतिक अभाव हो जाये तो हम हर प्रकार से किंकर्तव्य विमूढ़ होकर एक स्थान पर खड़े हो जायें, हमारे जग-जीवन की गाड़ी रुक जाये और तब ऐसी निरुपायता की स्थिति में हमारे दुःख-दर्दों का पारावार ही न रह जाये।

साँसारिक जीवन में पैसे का इतना महत्व होने पर भी जो व्यक्ति उसकी बेकदरी करते हैं, अथवा व्यर्थ-व्यर्थता के हवाले कर देते हैं, उन्हें बुद्धिमान तो नहीं ही कहा जा सकता और सच पूछा जाये तो ऐसे अपव्ययी लोग दया के साथ खेद के विषय भी हैं।

संसार में कोई भी पैसे से सर्वथा वंचित नहीं रहता। ऐसा शायद ही कोई अकर्मण्य अभागा हो, जिसे सदा ही पैसे का अत्यंतंभाव रहता हो, नहीं तो अपनी स्थिति, योग्यता एवं पात्रता के अनुसार सभी के पास आता रहता है। किसी के पास अधिक तो किसी के पास कम। सुख-दुःख का आधार वास्तव में प्राप्त पैसे की ज्यादा-कम मात्रा नहीं होती। सुख-दुःख वस्तुतः उसकी व्यय विधि पर निर्भर रहता है। जो बुद्धिमान पैसे का समुचित सदुपयोग जानते हैं, वे उस अधिक पैसे वाले की तुलना में अधिक सुखी एवं सन्तुष्ट रहा करते हैं, जो उसके सदुपयोग की कला नहीं जानते। खर्च करने में नादानी से काम लेते हैं।

प्रदर्शन पूर्ण जिन्दगी आर्थिक क्षेत्र में एक पाप है। यह अपव्यय जनक पाप जिसको भी लग जाता है, उसका संपूर्ण जीवन अभिशाप बना दिया करता है। दीवाली-सी जगमगाती हुई आलीशान कोठी, प्रदर्शनी की तरह सजे हुए कक्ष-प्रतिकक्ष, चाँदी, चन्द्रमा और उजले की तरह चमचमाते हुए वस्त्र, नित्य-नये प्रयोगों के साथ विविध व्यंजनों से भरे थाल, पकवान एवं स्वादों के आविष्कार, भोजन से भरपूर रसोई-घर, अस्वाभाविक समारोहों के साथ शादी-ब्याह, कोलाहल से भरे जन्मोत्सव, लश्करी लंगर की तरह मृतक-भोज, बड़े-बड़े वाहन और ऊँचे से ऊँचा रहन-सहन यह सब क्या है? प्रदर्शन का अन्धकार और शान-शेखी का विकार है। वैसे साधारणतया इन अर्थ-हत्या पूर्ण समारोहों से इस पंच-भौतिक शरीर में न तो छः तत्व हो जाते हैं और न इसके दीर्घ आयु अथवा निरामय रहने का प्रमाण-पत्र मिलता है। इस मानव शरीर को साधारण रूप से चलते रहने के लिये थोड़े-से अन्न-वस्त्र और निवास व्यवस्था के अतिरिक्त और कुछ नहीं चाहिये। वैसे इस मिट्टी की मूरत पर चढ़ाने को हीरे-मोती क्यों न चढ़ाये जायें, किन्तु इस प्रकार का कृत्रिम वैभव न तो इसके किसी काम आता है और न इसकी इसे कोई आवश्यकता ही है। यह मनुष्य का एक मात्र मोह, अहंकार है। जो वह मायावियों की तरह अपने सरल, सुचारु एवं सादे जीवन की सुन्दरता को विस्मय युक्त विभ्रम में छिपा लेता है।

समझने को कोई भी इस बेकार बड़प्पन में सुख सुविधा समझ ले, पर वास्तविक बात तो यह है कि इस प्रकार के आडम्बरित जीवन के आस-पास भी सुख का निवास नहीं रहता और यदि सूक्ष्म एवं वास्तविक दृष्टिकोण से खोज की जाये तो ढेर का ढेर दुःख जरूर पाया जा सकता है।

यदि परोपकार एवं परमार्थ का दृष्टिकोण न भी लिया जाये तब भी इस प्रकार की अपव्ययिता व्यक्तिगत जीवन में दुःख की ही सृष्टि करती है। मलमलें वस्त्र पहने हुए, झलमले कमरों में, मखमली गद्दों पर पड़े रहकर विविध व्यंजनों का स्वाद चखते रहना अपने जीवन को निकम्मा बना लेना है। इस प्रकार के आलसी और विलासी व्यक्तियों के पास पुरुषार्थ एवं स्वावलम्बन नाम की कोई वस्तु नहीं रहती। वे तन-मन से रोगी बने नौकर-चाकरों के बल पर जीवन बिताया करते हैं। जरा-सी सर्दी-गर्मी और हवा-धूप के लगते ही चारपाई पकड़ लेते हैं और अपनी आप बढ़ाई हुई सुकुमारता के कारण महीनों डॉक्टरों के बिल भुगताया करते हैं। ऐसी असहनीय जिन्दगी को कोई सुख कहे तो कहा करे, किन्तु होती वह वास्तव में दुःख मूलक ही है।

साथ ही जब इस प्रकार की व्यर्थ-व्ययिता से घर की लक्ष्मी की इतिश्री हो जाती है, तब अपनी विडम्बना को बनाये रखने के लिए कर्ज लेते, कर्ज लेकर कर्ज चुकाते और दिन-दूने, रात चौगुने कर्जदार होते जाते हैं। अन्त में एक दिन ऐसा आता है कि सारे प्रदर्शन पूर्ण साधनों के साथ सर्वस्व लेनदार का हो जाता है, तब इस प्रकार के लोग या तो समाज में उपहासात्मक संकेतों के लक्ष्य बनते हैं अथवा लाँछना के अभिशाप से बचने के लिए आत्महत्या का पाप करते हैं।

इसके विपरीत जो बुद्धिमान, धनाढ्य पैसे का मूल्य जानते हैं, उसके सदुपयोग की विधि जानते हैं और मितव्ययितापूर्ण सादी जिन्दगी पसन्द करते हैं, वे अपने कुल का भविष्य सुरक्षित रखते हैं, सो तो रखते ही हैं, समाज एवं राष्ट्र की संपत्ति बढ़ा कर, परोपकार एवं परमार्थ करके आदर और सम्मान की वास्तविक जिन्दगी जीते हैं। उन्हें उस प्रकार से किसी दुःख का मुख नहीं देखना पड़ता, जो किसी प्रदर्शनवादी अतिव्याधी को बर्बादी के साथ देखना पड़ता है। किसी प्रकार की भी अपव्ययिता में क्षणिक हर्ष अथवा प्रसन्नता के पीछे दुःखों की एक ऐसी परंपरा लगी रहती है, जिसका अन्त जीवन के अन्त के साथ ही हो पाता है अशान्त अथवा असन्तुष्ट स्थिति में लोक से यात्रा करने वाले का परलोक भी संदिग्ध ही होता है।

हथछुट खर्च करने वाले, चौबीस घण्टों में पच्चीस घण्टे पैसे की कमी का रोना रोते देखे जाते हैं। उनकी सारी जिन्दगी नकल करते और सजाते-सँभालते ही निकल जाती है। जो चीज देखी उसी के लिए लालायित हो उठे। एक चीज ले ली तो दो के लिए तरस रहे हैं। अभी चाट खाई तो फिर मिठाई खाने की इच्छा है। अभी सोडा पिया तो थोड़ी देर बाद लस्सी चाहिए। कल की पोशाक आज अच्छी नहीं लगती, आज की कल उतर जानी है। यह कपड़ा मुलायम है तो वह चमकीला है वह रंगदार है तो उसका चलन ज्यादा है। आज यह वस्त्र चाहिए तो कल वह डिजाइन। आज बुशशर्ट पहनी है तो कल फ्लाइंग शर्ट पहनना है। सिनेमा देखा तो नाटक रह गया। नाटक देखा तो संगीत कार्यक्रम होना चाहिये। मतलब यह है कि इसी प्रकार की अदला-बदली और संग्रह त्याग में न केवल समय, सरलता एवं समरसता ही खोते रहते हैं बल्कि पैसा भी बरबाद करते रहते हैं। ऐसे अपव्ययी की न अपनी आवश्यकतायें पूरी होती हैं और न लालसायें। हर चीज की आवश्यकता, हर चीज की लालसा उन्हें हर समय असंतुष्ट एवं अशान्त बनाये रहती है। विविध प्रकार की वस्तुओं से भरी हुई दुनिया उन्हें शूल के समान सालती रहती है। इससे ईर्ष्या, द्वेष, डाह जैसे न जाने कितने दोषों के वशीभूत होकर आजीवन दुःखी होते रहते हैं।

जो मितव्ययी है, उसे संसार की निरर्थक लिप्साएं लोलुप बनाकर व्यग्र नहीं करने पातीं। उसकी सहायता की लक्ष्मण रेखा में निरर्थकताओं का प्रवेश नहीं हो पाता। वह अपनी आर्थिक परिधि में पाँव पसारे निश्चिन्त सोया करता है और निर्द्वन्द्व विहार किया करता है। उसे केवल उतना ही चाहिए, जितना उसके पास होता है। संसार की बाकी चीजों से न उसे कोई लगाव होता है और न वास्ता। ऐसे निश्चिंत एवं निर्लिप्त मितव्ययी के सिवाय आज की अर्थ प्रधान दुनिया में दूसरा सुखी नहीं रह सकता।


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