सुखी जीवन के लिये मानसिक प्रसन्नता सिद्ध कीजिये।

April 1966

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समस्या बन कर सामने आने वाले संयोगों तथा परिस्थितियों का उत्तरदायित्व अधिकतर मनुष्य के अपने विचारों पर ही होता है। संसार में पर-प्रेरित परिस्थितियाँ बहुत कम होती हैं। और जो पर-प्रेरित परिस्थितियाँ भी होती हैं उनमें प्रत्यक्ष न सही परोक्ष रूप में मनुष्य के विचारों का हाथ रहता है।

विचार मनुष्य की इन्द्रियों द्वारा क्रिया बनकर उद्भूत होते हैं। विचार अच्छे होंगे तो कर्म अच्छे होंगे, विचार बुरे होंगे तो कार्य भी उन्हीं के अनुसार के ही सम्पादित होंगे। यदि किसी के विचार द्वेषपूर्ण हैं तो उसका द्वेष किसी न किसी समय अवसर पाकर किसी न किसी क्रिया द्वारा प्रकट अवश्य होगा। मनुष्य कितना ही प्रयत्न क्यों न करे उसका द्वेष अभिव्यक्ति पाये बिना नहीं रह सकता। विचारों की प्रेरणा शरीर कदापि नहीं रोक सकता। उसकी इन्द्रियाँ विचारों के वेग को रोक सकने में कदापि सफल नहीं हो सकतीं। विचारों की प्रेरणा रोककर यदि मनुष्य उसके विपरीत क्रिया करने का प्रयत्न करेगा तो उसमें एक मानसिक तनाव उत्पन्न हो जायेगा जिसको देर तक सह सकना मनुष्य के वश की बात नहीं है। कुछ समय तो वह आग्रहपूर्वक अपनी क्रिया को चलाता रहेगा, बाद में उसके विचारों की अभिव्यक्ति धीरे-धीरे उसके कार्यों में परिलक्षित होने लगती हैं। मानिए एक व्यक्ति किसी से शत्रुता मानता है और संयोगवश किसी दबाव से उसका कोई काम करना पड़ता है तो उसका किया हुआ काम किसी दशा में भी उतना ठीक न हो सकेगा जितना कि होना चाहिये। दूसरे यदि किसी गलती पर उसे रोका जायेगा तो उसका विरोध बाहर आ जायेगा, और कुछ न सही वह अपनी गलती का गलत प्रतिपादन ही करने लगेगा।

किसी के प्रति प्रेम रखने वाले व्यक्ति की भावना अवसर पाकर बात-बात में प्रकट हुये बिना नहीं रहेगी। अपने प्रिय जन की बुराई का विरोध, अयाचित हित के कार्य ऐसी क्रियाएं हैं जो किसी के प्रति किसी के विचारों को ही प्रकट करती हैं।

सामने आई हुई अच्छी बुरी परिस्थितियों का कारण मनुष्य के अपने विचार, उसकी भावनाएँ ही होती हैं। मनुष्य की वाणी तथा कर्म ही परिस्थितियों का निर्माण किया करते हैं। कटुवादी तथा कुकर्मी को समाज में प्रतिकूल परिस्थितियों का सामना करना ही होगा। कोई कितना ही विद्वान, बुद्धिमान तथा धनवान क्यों न हो यदि वह कटुवादी है, दुराचारी है तो कोई भी उसके संपर्क में आना, उससे सहयोग करना पसन्द न करेगा। असहयोग तथा संपर्कहीनता से उत्पन्न परिस्थितियाँ बड़ी ही कठोर तथा कठिन होती हैं।

मनुष्य सामाजिक प्राणी है। उसका जीवन पारस्परिक सहअस्तित्व पर निर्भर है। यदि यह आधार ही समाप्त हो जाये तो उसका जीना ही दूभर हो जायेगा। दुर्भावनाएं रखने वाला व्यक्ति अवश्य कामी, क्रोधी, लोभी अथवा स्वार्थी होगा, और यह विकार कार्य में साकार हुये बिना न रहेंगे, जिससे सामाजिक असहयोग की हर समय सम्भावना है और सहयोग के अभाव में जीवन किन-किन परिस्थितियों में फँस जायेगा इसका अनुमान लगाना कठिन नहीं है।

समाज द्वारा बहिष्कृत तिरस्कृत तथा त्यक्त व्यक्ति की सारी दशाएं बिगड़ जाती हैं और वह तेज हीन होकर बुझे दीपक के समान धूमिल जिन्दगी काटा करता है। बिना सामाजिक सहयोग के कोई भी व्यक्ति आजकल सफल नहीं हो सका। जन सहयोग के अभाव में बड़े-बड़े नेताओं का पतन और ग्राहकों के असहयोग से करोड़पति व्यापारियों को दरिद्री होते देखा जा सकता है। जनता के सहयोग व असहयोग से संसार में बड़े-बड़े साम्राज्यों का उत्थान-पतन होता रहता है।

इस प्रकार का सहयोग तथा असहयोग मनुष्य के अपने व्यवहार पर और मनुष्य का व्यवहार उसके अपने विचारों के स्वरूप पर निर्भर करता है इसलिए मनुष्य की सफलता, असफलता का प्रमुख हेतु विचारों को ही मानना उचित होगा।,

संसार में पर प्रेरित परिस्थितियाँ भी असम्भाव्य नहीं हैं। कोई भी दुष्ट किसी सज्जन को अकारण ही दुखी करने के लिए प्रतिकूल परिस्थितियाँ उत्पन्न कर सकता है। यद्यपि उन परिस्थितियों में सज्जन के विचारों का कोई दोष नहीं तथापि कष्टकर परिस्थितियाँ उसके सामने आई। पर यह सत्य है कि अपने निर्विकार विचारों के कारण वह उनसे प्रभावित न होगा और शीघ्र ही उन पर विजय प्राप्त कर लेगा। जो परिस्थितियाँ मनुष्य को व्यग्र नहीं कर सकतीं अथवा उसकी गति नहीं रोक सकतीं उनका आना न आना बराबर ही है।

मनुष्य की मानसिक दशा के अनुसार ही उसके आसपास का संसार भी बन जाता है। जिसका हृदय क्रुद्ध है, निराश है अथवा असंतुष्ट है उसको संसार में चारों ओर क्षोभ, अन्धकार तथा अभाव ही दिखाई देगा। चित्त की व्यग्रता के कारण उसकी किसी स्थान पर अच्छा न लगेगा। किसी की प्रसन्नता की प्रतिक्रिया भी उसके हृदय पर प्रतिकूल प्रभाव डालेगी। निराश व्यक्ति के सामने यदि आशापूर्ण बातें की जायें तो वह उसे निरर्थक प्रलाप जैसा ही अनुभव होगा। दुःखी हृदय व्यक्ति को सुन्दर दृश्य, सुन्दर से सुन्दर कार्यक्रम भी भार स्वरूप लगने लगेंगे।

बाहर के संसार में वास्तविक सुख-दुःख कुछ भी नहीं होते। यह मनुष्य की अनुभवशीलता पर ही निर्भर करते हैं। जिसका हृदय निर्बल है, दोषपूर्ण है उसको दुःख का छोटा-सा कारण भी बुरी तरह आहत कर डालता है। एक छोटी-सी प्रतिकूलता से ही रोने-चिल्लाने लगता है और हाथ-पाँव छोड़कर बैठ जाता। भयभीत होने, निराश होने और विषाद करने के अतिरिक्त उसको कोई चारा ही नहीं दीखता। एक साधारण-सी घटना उसके दुर्बल मनोदर्पण पर असाधारण जैसी प्रतिबिम्बित हो उठती है। कोई कारण उतना बड़ा नहीं होता जितना कि उसकी मानसिक दुर्बलता मिलकर उसे बना देती है। संकीर्ण हृदय में एक छोटा-सा भय बहुत बड़ा दीखता है। जिस प्रकार एक रोगी को एक छोटा-सा झटका बुरी तरह बेहाल और बेताब कर देता है उसी प्रकार विकारों से अस्वस्थ मन को एक छोटी-सी प्रतिक्रिया बुरी तरह दहला देती है।

जिसका हृदय विशाल है, उच्च विचारों से भरा-पूरा है उसमें दुःख के किसी कारण का प्रवेश ही नहीं हो पाता और यदि वह किसी तरह से प्रवेश भी पा लेता है। स्वस्थ मन की प्रसन्नता उसे दीक्षित कर अपने अनुकूल बना लेती है, उल्लास एवं प्रसाद से उसके विषैले प्रभाव को दूर कर देती है। प्रसन्न-मन व्यक्ति सदा सुखी ही रहता है, संसार की कोई प्रतिकूलता उसे व्यग्र नहीं कर पाती।

प्रसन्नता का वास्तविक अर्थ है निर्मलता एवं निर्विकारता। जो हृदय निर्मल है निर्विकार है वही प्रसन्न है और जो प्रसन्न है वही सदा सुखी है। अस्तु जीवन में सुख शान्ति के स्थायित्व के लिए मनुष्य को अपने हृदय को सदा निर्मल एवं निर्विकार ही रखना चाहिये।

ईर्ष्या, द्वेष, छल-कपट, काम-क्रोध आदि विकार मन के मल हैं। इनको दूर कर देने से मनुष्य का हृदय निर्मल हो जाता है। काम, क्रोध, लोभ, मोह आदि विकारों को दूर करने के लिये विचार बल का ही अवलम्बन लेना होगा। अपने विचारों को ऊँचा उठाइए, उनकी सहायता के लिये स्वाध्याय सत्संग तथा सत्कर्मों का ग्रहण कीजिए। कुविचार उत्पन्न करने वाले वातावरण से दूर हटिये। लोभ आने पर त्याग कीजिये दान दीजिये, क्रोध होने पर करुणाजनक प्रसंग पढ़िये, कामावेग के समक्ष निर्वेद का सहारा लीजिये और मोह से बचने के लिए ईश्वर का चिन्तन करिये। निरन्तर इस प्रकार का क्रम चलाते रहने से कुछ ही समय में आपका हृदय निर्मल होने लगेगा। निर्मलता की प्रसन्नता का थोड़ा-सा आभास पाते ही फिर मन पुनः अपना परिमार्जन करने में तत्पर हो जायेगा।

परिस्थितियों को सुलझाने और प्रतिकूलताओं से लड़ने के लिए मनोबल की बहुत बड़ी आवश्यकता होती है। मनोबल का विकास केवल प्रसन्नता से ही हो सकता है। मानसिक प्रसन्नता की सिद्धि कीजिये और अपने चारों ओर के सुन्दर संसार के बीच निर्द्वन्द्व, निर्भय तथा सदा सुखी होकर जीवन को सफल एवं सार्थक बनाइये।


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