हमारी भावना और कार्य-पद्धति

April 1966

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“विचारों की शक्ति महान् है। हाड़-माँस के बने शरीर में जो कुछ भी विशेषता और विलक्षणता है, उसे विचारों का ही प्रकाश कहना चाहिए। जिसमें विचारों की उत्कृष्टता नहीं, उसे नर-पशु ही मानना चाहिए।”

इस तथ्य को ध्यान में रखकर ऋषियों ने शास्त्र और दर्शन का, अध्यात्म एवं धर्म का सृजन किया। ब्राह्मणों एवं सन्तों का जीवन, लोक-जीवन में विचार-शक्ति का उत्कर्ष करने में ही लगता रहा है। मानव जाति की यही सबसे बड़ी सेवा है।

“अखण्ड-ज्योति” विगत 27 वर्षों से इसी सेवासाधना में संलग्न है। अपने पाठकों में वह हर मास ऐसी प्रेरणा एवं ज्योति प्रदीप्त करती है, जिससे आदर्शवादिता के मानवोचित सत्पथ पर चलते हुए जीवन को सार्थक बना सकना सम्भव हो सके। यह प्रेरणा किसने कितनी ग्रहण की? इसकी परख इसी कसौटी पर की जा सकती है कि कौन उस प्रेरणा को अपने व्यावहारिक जीवन में किस सीमा तक कार्यान्वित कर रहा है? विचारों में विलक्षण शक्ति तो अवश्य है, पर वह सजीव तभी होती है, जब कार्य रूप में परिणत होती चले। हमें उत्कृष्ट विचारों का शक्ति भर प्रसार करना चाहिए, पर साथ ही यह भी देखना चाहिए कि यह पठन-पाठन एक व्यसन मात्र ही बनकर तो नहीं रह रहा है? पाठक उसे हृदयंगम भी कर रहे हैं या नहीं?

इस कसौटी को “युग-निर्माण योजना” के रूप में प्रस्तुत किया गया है। परिजनों ने “अखण्ड-ज्योति” की प्रेरणाओं को कितना अपनाया? इन प्रश्न का उत्तर इसी तरह मिलेगा कि उनमें व्यक्ति एवं समाज के नव-निर्माण के लिये कितनी लगन, श्रद्धा, स्फूर्ति एवं भावना उत्पन्न हुई? यदि ऐसा कुछ न हुआ हो तो समझना चाहिए कि परिजन केवल पाठक मात्र हैं और केवल पाठ तो अखण्ड-ज्योति तो क्या, वेद-शास्त्र या स्तोत्र-कीर्तन का भी करते रहा जाय तो कुछ प्रयोजन सिद्ध न होगा। काम तो काम से ही चलता है। सद् विचारों का उद्देश्य— सत्कर्म का उद्भव है। जो बीज अंकुर न उत्पन्न कर सके, उसकी क्या सार्थकता है, जो विचार—कर्म में परिणत न हो सके उसे निर्जीव एवं निरर्थक ही कहा जायगा। परिजनों के अन्तःकरण में जो सद्प्रेरणाओं का बीजारोपण अखण्ड-ज्योति करती रही है, उसकी सार्थकता, निरर्थकता परखने का समय अब आ पहुँचा। हमें अपने श्रम के परिणामों का लेखा-जोखा अब देखना-ढूँढ़ना ही चाहिये।

आध्यात्मिक उन्नति के पथ पर आज तक जितने भी व्यक्ति अग्रसर हुए हैं, उनमें से प्रत्येक को जीवन-शोधन का अवलम्बन लेना पड़ा है। ऐसा हो ही नहीं सकता कि अपने अन्दर सद्भावनाएं एवं सत्प्रवृत्तियाँ बढ़ाये बिना कोई व्यक्ति —ईश्वर या आत्मा की प्राप्ति कर सके। सृष्टि के आदि से लेकर अब तक इसी राज-मार्ग पर हर साधक को चलना पड़ा है। इससे बच निकलने का और कोई सीधा जल्दी का ‘शार्टकट’ न सम्भव हुआ है और न हो सकता है। आज कुछ लोग थोड़ा-सा मन्त्र-तन्त्र करके उन ऋद्धि-सिद्धियों को प्राप्त करने के सपने देखा करते हैं, जो आत्मबल बढ़े बिना किसी को भी, कभी भी, प्राप्त नहीं हो सकतीं। मन्त्र-तन्त्र तो एक प्रकार के कारतूस हैं, जो बढ़िया बन्दूक द्वारा चलाये जाने पर ही अपना चमत्कार दिखाते हैं। ओछे, स्वार्थी, घटिया और कमीने व्यक्तित्व रखकर कोई व्यक्ति किसी पूजा विधान का कोई लाभ नहीं उठा सकता। यह एक अकाट्य एवं सुनिश्चित तथ्य है।

हम अपने परिजनों को अध्यात्म प्रगति की दिशा में वस्तुतः अग्रसर करने के लिये लालायित हैं। क्योंकि इस संसार में इससे बढ़कर लाभदायक और कोई उपाय मार्ग नहीं है। जितना सुख, जितना आनन्द एवं जितना वैभव अध्यात्म-मार्ग के पथिक को मिल सकता है, उतना और किसी को नहीं। अन्य व्यवसायों की अपेक्षा यह सरल ही है, कठिन नहीं। इसलिए अखण्ड-ज्योति केवल विचार निर्माण का कर्तव्य पूरा करके ही अपने कर्तव्य की इतिश्री नहीं मान लेती, वरन् उस पथ का निर्माण भी करती है। जिस पर चलकर कल्याण-पथ के पथिकों को अभीष्ट उद्देश्यों की प्राप्ति हो सके। जिस मार्ग पर, जिस प्रकार चलते हुए हम जितनी सफलता स्वयं प्राप्त कर सके हैं, उसका रहस्य तो हमें बता ही देना है। कोई सुने चाहे न सुने, विश्वास करे या न करे पर हम यह कहते ही रहेंगे कि उपासना, आत्म-कल्याण में तभी सहायक हो सकती है, जब उसके साथ-साथ जीवन को उत्कृष्ट बनाने का साधना-क्रम भी जुड़ा हुआ हो। जीवन-साधना के बिना उपासना अधूरी है। आज लाखों धर्म-जीवी केवल कुछ थोड़ा-सी उपासना की टंट-घंट करके आत्म-कल्याण की आशा लगाये रहते हैं, फलतः उन्हें सर्वथा निराश एवं असफल ही रहना पड़ता है। हमें जानना चाहिए कि अध्यात्म-लाभ बड़ा लाभ है, अतएव उसकी कीमत भी बड़ी है। आत्म-शोधन, आत्म-निर्माण एवं आत्म-विकास के लिए प्रयत्न करने से कम मूल्य पर उस लाभ को प्राप्त नहीं किया जा सकता। सोना सस्ता नहीं बिकता और न हीरा कम दाम में खरीदा जाता है। अध्यात्म भी सोना और हीरा है, जो जीवन निर्माण के मूल्य पर ही किसी को उपलब्ध हो सकता है।

उपासना की विधियाँ अन्य अनेक लोग भी अपने-अपने ढंग से बताते हैं। हमने गायत्री उपासना का महत्व देखा, समझा और अनुभव किया है। इसलिए उसकी विवेचना के साथ साथ प्रेरणा करते रहते हैं। पर साथ ही यह भी कहते हैं कि जितना ध्यान उपासना में दिया जाय, जितना माहात्म्य उपासना का समझा जाय उससे कहीं अधिक ध्यान जीवन-साधना पर दिया जाय और कहीं अधिक माहात्म्य उस आत्म-निर्माण के प्रयास का समझा जाय। अखण्ड-ज्योति इसी दिशा में अपने परिवार का पथ-प्रदर्शन करती है। हम पत्रिका एवं पुस्तकों से विचार-क्षेत्र को परिष्कृत करने का प्रयत्न करते हैं। पर साथ ही यह भी सुझाया जा रहा है कि आत्म-निर्माण का अभ्यास तत्परतापूर्वक जारी रखें। इसे न तो गौण समझें और न महत्वहीन वरन् सच तो यह है कि उपासना का प्राण भाग, हृदय संस्थान यह जीवन साधना ही है। इसमें जिसकी जितनी निष्ठा एवं तत्परता होगी, उसे उतने ही बड़े स्तर का अध्यात्म लाभ होगा, और इस लाभ से वह उतना आनन्द प्राप्त कर रहा होगा।

जीवन-साधना में उसके दो अंग हैं। (1) दोष दुर्गुणों का निवारण एवं (2) सद्गुणों का अभिवर्धन। गाड़ी दो पहियों से चलती है, उसी प्रकार जीवन-साधना के भी यह दो ही अवलम्बन हैं। जीव रूपी पक्षी इन दो पंखों के सहारे ही आत्म-कल्याण के आकाश में उड़ता है। दोष दुर्गुणों से रहित होने के लिए कई व्यक्ति प्रयत्न करते हैं और उसमें सफल भी हो जाते हैं। चोरी, व्यभिचार, असत्य भाषण, जुआ, चुगली आदि छोड़ देते हैं। यह छोड़ने का प्रयत्न आत्मिक प्रगति की आधी आवश्यकता पूरी करता है। देह में रोग घुसा हो, तो शरीर पुष्ट कैसे होगा, रोग हटाने पर वह क्षय रुक जाता है जो शरीर को दिन-दिन गलाये डाल रहा था। पर रोग से मुक्ति प्राप्त कर लेना ही मात्र स्वास्थ्य संवर्धन के लिए पर्याप्त नहीं है। व्यायाम, पौष्टिक आहार आदि की आवश्यकता पूरी किये बिना कोई रोगमुक्त व्यक्ति भी शारीरिक दृष्टि से बलिष्ठ नहीं हो सकता। सद्गुणों का अभिवर्धन इस प्रकार का आत्मिक आहार एवं व्यायाम है जो साधक का आत्म बल बढ़ाकर उसे दिव्य विभूतियों एवं ईश्वरीय विशिष्ट अनुग्रहों का अधिकारी बनाता है।

दुष्प्रवृत्तियों से छुटकारा पाने का प्रयत्न आत्मिक प्रगति का आधा अंग है, शेष आधा अंग तब पूरा होता है जब सत्प्रवृत्तियों में अभिवर्धन का अभ्यास किया जाता है। इसके लिए एकमात्र साधन “संसार में सद्भावना अभिवृद्धि की सेवा” साधना में संलग्न होना ही है। प्राचीनकाल में प्रत्येक संत और ब्राह्मण को इसी मार्ग पर चलना पड़ा है। उनमें से हर एक ने लोक-सेवा का व्रत लिया और उसे आजीवन निवाहा है। परोपकार एक विशुद्ध आध्यात्मिक साधना है। सेवा धर्म को अपनाये बिना किसी आत्मा में से आन्तरिक उल्लास प्रस्फुटित नहीं हो सकता। आज इस धूर्तता के युग में निठल्ले, कामचोर व्यक्ति संसार को मिथ्या बताकर मुफ्त के गुलछर्रे उड़ाते और आलस में पड़े रहने का नाम त्याग, वैराग्य बताते हैं। यह कलियुगी परिभाषा है। आज लाखों व्यक्ति इस अनाचार से ग्रसित होकर उत्थान की तो बात ही कहाँ उल्टे पतन के गहरे गर्त में गिरते चले जा रहे हैं। जिसमें सेवा के लिए उत्साह एवं निष्ठा न हो वह न तो संत है, न ब्राह्मण, न योगी, न ज्ञानी। यहाँ तक कि उसे अध्यात्म तत्व-ज्ञान से परिचित भी नहीं कहा जा सकता। सच्चे अध्यात्म की ऋषि पद्धति को जानने के लिये हमने वेदों का, उपनिषदों का, शास्त्रों का, दर्शनों का, स्मृतियों का, पुराणों का मन्थन अवगाहन किया है। उन्हें अनुवादित और प्रकाशित करने की भी व्यवस्था की है ताकि लोग आज की प्रचलित भ्रान्त धारणाओं को बहिष्कृत कर आत्मिक प्रगति के वास्तविक मार्ग को जानने, उस पर चलने और लाभ उठाने में समर्थ हो सके।

हर सच्चे अध्यात्मवादी एवं साधक की तरह हमने निज के जीवन में (1) उपासना (2) जीवन-साधना (3) परमार्थ-तीनों ही साधना क्रमों को अपनाया है और उस समग्र साधना का वैसा ही लाभ देखा है, जैसा कि प्राचीनकाल के साधकों को मिलता था, अथवा शास्त्रों में जैसा लिखा है। हमने केवल भजन ही नहीं किया है, वरन् अपने व्यक्तित्व को परिष्कृत करने में कम श्रम नहीं किया है। इसके लिये लोक-मंगल के लिये सेवा संलग्न रहने की प्रवृत्तियों में तनिक भी कमी नहीं आने दी है। जीवनोत्कर्ष की प्रेरणा भर देने वाले साहित्य का सृजन, संगठन, प्रशिक्षण एवं व्यक्तिगत रूप से भी जो जिसकी जितनी सेवा सहायता बन पड़े उसके लिए अपना तप पूँजी का अनुदान, यह प्रक्रिया सदा से ही हमने चलाई है और यह माना है कि जीवन-शोधन एवं लोक सेवा के यह दोनों कार्य भी उपासना के अविच्छिन्न अंग हैं। इन अंगों को हटा दिया जाय और चौबीस घण्टे केवल भजन करते रहा जाय तो वह भजन ऐसा ही अपूर्ण होगा जैसा सिर और पैर काट देने के उपरान्त पड़ा हुआ बीच वाला धड़। उस धड़ से वह आशा नहीं की जा सकती जो सर्वांगपूर्ण शरीर से। सर्वांगपूर्ण साधना के तीनों ही अंग समान रूप से उपयोगी हैं। इन तीनों का सम्मिश्रित स्वरूप ही समाज साधना कहलाता है और उसी से सर्वांगपूर्ण आध्यात्मिक प्रगति होती है। अध्यात्म तत्व-ज्ञान का यही रहस्य एवं मार्ग है। जिनने इसके शार्टकट निकाले हैं उनने भारी भूल की है। जो केवल थोड़े से भजन का, टंट-घंट का सहारा लिये बैठे हैं और वह लाभ पाने की आशा करते हैं—जो त्रिविध समग्र साधना करने पर ही किसी को मिल सकती है—तो इसे एक भूल ही कहना चाहिए। हम चाहते हैं कि अखण्ड-ज्योति का एक पाठक भी इस भूल या भ्रम में न रहे। यदि उनसे उपासना में निष्ठा प्रदर्शित की है जो फिर दो कदम और भी आगे बढ़ाने चाहियें। जीवन-शोधन और परमार्थ के लिये भी उसे उतना ही मन, उतना ही अपना ध्यान, समय और श्रम संलग्न करना चाहिये। जहाँ वह त्रिविध समन्वय हुआ कि अध्यात्म का आशाजनक, आश्चर्यमय एवं उत्साहवर्धक परिणाम सामने आना आरम्भ हो जायगा।

युग निर्माण योजना—विशुद्ध रूप से एक साधना-पद्धति है। परिजनों को हम बहुत जोर देकर कहते रहते हैं कि वे प्रातः उठते समय यह योजना बनाया करें कि आज का दिन एक समग्र जीवन है, इसे रात्रि की मृत्यु आने तक कितने अच्छे ढंग से व्यतीत किया जा सकता है, यह सोचे और करे। प्रातः इस आधार पर बनाई गई योजना को रात्रि तक कड़ाई के साथ पालन किया जाय। दिनचर्या पूरी करते हुये बराबर यह ध्यान रखा जाय कि प्रातः निर्धारित कार्य-पद्धति में कहीं भूल तो नहीं हो रही है। चूक को तुरन्त सँभाला जाय। रात्रि को सोते समय दिन-भर के मन द्वारा किये गये विचारों और शरीर द्वारा किये गये कार्यों का लेखा-जोखा लिया जाय। जो उचित हुआ हो उसके लिए अपने आपको सराहा जाय और जो अनुचित हुआ हो उनके लिये धिक्कारा जाय। दूसरे दिन आज से भी अच्छी योजना बनाने की बात सोचकर सो जाया जाय। यह क्रम जितना भी चल रहा होगा वे अपनी कमियों और कठिनाइयाँ को जीतते हुये निश्चय ही जीवन-शोधन की साधना पर बढ़ रहे होंगे, और उनकी आध्यात्मिक प्रगति का एक तिहाई पथ प्रशस्त हो रहा होगा।

उपासना आवश्यक है। एक घण्टा भी यदि वह ठीक तरह हो सके तो पर्याप्त है। एक घण्टे का व्यायाम किसी भी शरीर को परिपुष्ट रख सकता है। एक घंटे की उपासना यदि वह भावपूर्वक की गई है तो आत्मा में पर्याप्त बल एवं प्रकाश उत्पन्न कर सकती है।

एक तिहाई साधना की पूर्ति परमार्थ के द्वारा ही होगी। आज की सामयिक आवश्यकता जन मानस में प्रेरणाप्रद भावनाओं का बीज बोने की है। हमें उसी को पूरा करना चाहिये। युग निर्माण योजना, इसी आवश्यकता की पूर्ति के लिए है। वैसे ही अपना काम धंधा करते हुए जिनसे भी संपर्क हो उन्हें नव-निर्माण की प्रेरणा देते रहना कुछ कठिन नहीं है, और इसे स्वभाव एवं अभ्यास में सम्मिलित कर लिया जाय तो बहुत काम हो सकता है। यह तो करते ही रहना चाहिये। साथ ही नित्य एक घंटा समय एवं एक आना प्रतिदिन वाली बौद्धिक कार्य-पद्धति का भी मजबूती से ध्यान रखना चाहिये। ईश्वर का सदा ध्यान रखना उचित है पर एक नियत समय भजन के लिये भी होना चाहिये। इसी प्रकार हम दिन-भर जन-जागरण के लिये प्रयत्न करते रहें पर एक घंटा तो उसके लिये विशेष रूप से निश्चित निर्धारित रहना ही चाहिये। परिजनों के सम्मुख इस समय-अनुदान को भी एक आवश्यक माँग के रूप में रखा गया है, और सन्तोष की बात है कि उसे अधिकाँश ने स्वीकार भी किया है। प्रतिज्ञा-पत्र भी भरा है। पर आदत के अनुसार फिर वह ढील-पोल चलने लगी है। जिनने प्रतिज्ञा-पत्र भरे थे वे भी शिथिलता एवं लापरवाही बरतने लगे हैं। यह उचित नहीं, जन-जागरण को, लोक-सेवा को उपासना का अविच्छिन्न अंग मानना चाहिये और यह विश्वास रखना चाहिये कि भजन से ईश्वर जितना प्रसन्न होता है, भजन से जितना आत्म-बल बढ़ता है—ठीक उतना ही इस लोक मंगल में भावनापूर्वक संलग्न रहने से भी होता है। अतएव यह उपेक्षणीय नहीं, वरन् साधना की अविच्छिन्न शर्त के रूप में अनिवार्य रूप से आवश्यक है।

अखण्ड-ज्योति अपने परिजनों को अध्यात्म आश्चर्यजनक लाभ उपलब्ध कराने के लिये सचेष्ट है। हमारे प्रेरक एवं मार्ग दर्शक ने जो रास्ता हमें बताया है वही हम अपने परिजनों को बता रहे हैं। वह ऋषि-प्रणीत, शास्त्र-सम्मत सुनिश्चित राज मार्ग है। आध्यात्मिक प्रगति का और कोई सीधा रास्ता हो नहीं सकता। भजन जादू नहीं है, जिसकी फूँक लगने से ही तरह-तरह के चमत्कार सामने आ उपस्थित हों। जादूगरी की बालबुद्धि हमें छोड़नी चाहिये, वस्तुस्थिति को समझना चाहिये और सही रास्ते पर चलना चाहिये ताकि सही सत्परिणाम का परिपूर्ण लाभ भी प्राप्त किया जा सके।

परिजनों को यह तथ्य हृदयंगम करने चाहियें। अखण्ड-ज्योति में छपने वाले सद्विचारों को वे पढ़ते और पसन्द करते हैं तो इतने मात्र से ही उन्हें सन्तुष्ट नहीं हो जाना चाहिये। मंजिल के अगले कदम भी उठाने चाहियें। जीवन-शोधन की पुनीत प्रक्रिया को तीव्र करना चाहिये। अपने साथ अधिक कड़ाई बरतने और भीतरी शत्रुओं के साथ अधिक बहादुरी से लड़ने का संकल्प करना चाहिये। मानव-जीवन पाया है तो उसी के अनुरूप मनःस्थिति बनानी चाहिये। यह सुरदुर्लभ अवसर यों ही निरर्थक नहीं जाने देना चाहिये। जो बीत गया सो गया, अभी जितना जीवन शेष है वह भी कम नहीं, सदुपयोग के लिये तत्परता बरती जाय तो इतने से भी बहुत कुछ हो सकता है। सेवा रहित जीवन गन्ध रहित पुष्प के समान, जलरहित सरोवर के समान महत्वहीन है। हमारी प्रकृति में लोक-मंगल के लिये अधिक तत्परता का समावेश होना चाहिये। युग निर्माण योजना को कोई बाहरी कार्य-पद्धति नहीं वरन् व्यक्तिगत जीवन को आध्यात्मिक दिशा में परिष्कृत करने की एक अनुभूत साधना-पद्धति मानना चाहिये। यह आस्था हमारे मनों में इतनी गहरी जमे कि उसे क्रियान्वित किए बिना किसी से रहा ही न जा सके तो अखण्ड-ज्योति अपने प्रयत्नों की सार्थकता माने और हम अपने श्रम को सफल हुआ समझें।


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