मितव्ययी आदर्श विवाहों का प्रचलन अत्यावश्यक

April 1966

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क्या व्यक्ति, क्या समाज और क्या राष्ट्र सबकी प्रगति का भौतिक आधार अर्थ ही है। अर्थहीनता की दशा में इनमें से कोई भी भौतिक प्रगति अथवा उन्नति नहीं कर सकता। अर्थ के आधार पर ही मनुष्य की जीविका चलती है, जोकि जीवन गति की ही पूरक है। जब कोई व्यक्ति, समाज अथवा राष्ट्र अपनी आर्थिक समस्याओं में ही उलझा रहता है, तब वह संसार में होने वाली प्रगति का अनुसरण नहीं कर सकता और जो प्रगतिहीन है, वह किसी प्रकार की सुख-शान्ति नहीं पा सकता। अर्थ पर ही मनुष्य के भौतिक एवं आत्मिक विकास का होना निर्भर है। अस्तु आज ही नहीं, संसार के प्रगतिशील राष्ट्र सदा से अपनी आर्थिक उन्नति की ओर समुचित ध्यान देते चले आ रहे हैं, आगे भी देते रहेंगे।

आर्थिक उन्नति के अनेक साधन होते हैं। उत्पादन एवं व्यापार-व्यवसाय इसकी उन्नति के प्रमुख उपाय हैं। किन्तु इसके साथ यह भी न भूल जाना चाहिए कि मितव्ययता एवं किफायतशारी भी आर्थिक उन्नति का एक महत्वपूर्ण साधन है। एक ओर से अर्थागमन का मार्ग खोला जाये और दूसरी ओर उसके निकल जाने का भी मार्ग बना दिया जायेगा तो वह फूटे पात्र में दूध दुहने के समान ही होगा। एक ओर से पैसा आयेगा और दूसरी ओर से निकल जायेगा। इस प्रकार आपके लाख साधन इकट्ठे कर लेने पर भी जब तक धन के दुरुपयोग का नियन्त्रण न किया जायेगा, आर्थिक उन्नति में स्थायित्व न आ सकेगा। इसलिये अर्थागमन के साधन जुटाने के साथ ही अपव्ययता का मार्ग भी बन्द करना होगा।

अपने समाज में विवाह के नाम पर अपव्ययता का अभिशाप बुरी तरह फैला हुआ है और पूरे का पूरा समाज इसकी चक्की में बुरी तरह पिसा जा रहा है। हिन्दू समाज में व्यवसाय, व्यापार, उद्योग, धन्धों की इतनी कमी नहीं है, जितना कि यह गरीब बना हुआ है। यदि इस समाज के पास कारोबार के साधन बहुत अधिक संख्या में नहीं हैं, तो इतने कम भी नहीं हैं कि जिसके कारण पूरा समाज नंगा-भूखा दीखता है।

आय के साधन होते हुए भी अपने समाज की गरीबी का एक मुख्य हेतु अनेक ऐसी कुरीतियाँ एवं प्रथाएं भी हैं, जिनमें अतोल धन खर्च करना पड़ता है। उनमें से विवाह के नाम पर चलने वाली कुरीतियाँ भी हैं। विवाहों में धूम-धाम, रोशनी, आतिशबाजी, बाजा-गाजा, साज-बनाव करने में इतना खर्च किया जाता है कि एक-दो विवाह करने के बाद ही कोई भी सामान्य परिवार, कंगाल बन जाता है, कर्जदार हो जाता है, जिससे उसे और उसके ब्याज चुकाने में ही सारी कमाई लगने लगती है, जिससे परिवार की उन्नति का हर मार्ग अवरुद्ध हो जाता है। तब यह तो स्वयं सिद्ध ही है कि जहाँ उन्नति एवं विकास का मार्ग अवरुद्ध हो जायेगा वहाँ अन्य उन्नतियाँ तो दूर, आर्थिक उन्नति भी नहीं हो पाती।

यदि औसत लगाया जाये तो पता चलेगा कि अपने समाज में एक विवाह में दो-चार हजार रुपया सहज ही खर्च करने पड़ते हैं। इस प्रकार जिस परिवार में तीन शादियाँ भी करनी हुई तो उसे औसतन आठ-दस हजार रुपया तो खर्च करना ही पड़ेगा। किसी साधारण परिवार से यह आठ-दस हजार रुपया निकल जाना कोई साधारण बात नहीं हैं। जिस देश के लोगों की औसतन आय चार छः आना प्रतिदिन हो, उसे जब शादी-ब्याह के नाम पर इस प्रकार आठ-दस हजार का दण्ड भुगतना पड़ता है, तब उस पर एक स्थायी कंगाली आने के अतिरिक्त और क्या हो सकता है?

यह दस हजार का औसत व्यय तो केवल एक व्यक्ति के परिवार का है। इसी प्रकार यदि एक कुटुम्ब का हिसाब लगाया जाये तो भाई-भतीजे, चाचा-ताऊ के बच्चों का हिसाब लगाया जाये तो यह व्यय लाखों की संख्या में पहुँच जायेगा। इस प्रकार जिस समाज के एक मध्यम कुटुम्ब से लाखों की रकम ब्याह-शादियों के नाम पर बर्बाद हो जाये, उसकी आर्थिक स्थिति किस प्रकार ठीक रह सकती है? उसका गरीब, कंगाल और भुखमरा होना सहज स्वाभाविक ही है। इस प्रकार इन साधारण आँकड़ों के प्रकाश में यदि एक विशाल दृष्टिकोण से देखें तो पता चलेगा कि अपने समाज में करोड़ों-अरबों की सम्पत्ति ब्याह-शादियों के नाम पर होने वाली कुरीतियों को पूरा करने में स्वाहा हो जाती है।

यदि विवाह के नाम पर चलने वाली अपव्यय की कुरीतियों को रोक दिया जाये तो कहना होगा कि कुछ एक वर्षों में ही हमारा समाज, हमारा राष्ट्र आर्थिक आत्मनिर्भरता की दिशा में बहुत कुछ प्रगति करता दिखाई देने लगे।

आज हमें जो योजनायें पूरी करने और अन्य साधनों को जुटाने के लिये विदेशों से कर्ज लेना पड़ता है, वह न लेना पड़े और इसके कारण जो अन्तर्राष्ट्रीय क्षेत्र में अपने ऋण-दाताओं के अनुचित दबाव को सहना पड़ता है, वह न सहना पड़े। इस प्रकार कहना न होगा कि केवल शादी-ब्याहों में होने वाले अपव्यय को रोक देने से ही हमारे राष्ट्र की बहुत-सी समस्यायें हल हो सकती हैं, राष्ट्रीय गौरव बढ़ सकता है।

आर्थिक हानि के अतिरिक्त अपने समाज को अन्य और भी तरह की अनेक हानियाँ होती हैं। इसी प्रकार की अपव्ययता पूर्ण कुरीतियों के कारण घबड़ा कर बहुत से हिन्दू नित्य ही ईसाई एवं मुसलमान होते चले जा रहे हैं, जिससे अपने समाज की संख्या दिन पर दिन घटती और परकीय समाज की संख्या बढ़ती चली जाती है। अन्य समाज के लोग भी जो अपने समाज में शामिल नहीं होते, उसका कारण भी विवाह आदि के नाम पर अनावश्यक अनुपयोगी एवं असहनीय कुरीतियाँ ही हैं। इस प्रकार हम अपनी इन कुरीतियों के कारण अपने समाज की कितनी हानि कर रहे हैं, इसका अनुमान लगा सकना भी कठिन हो रहा है। किन्तु सामने खड़ी हुई भयावह परिस्थितियाँ एवं आर्थिक कंगाली फिर भी इसका कुछ अनुमान दे ही रही हैं। अपने समाज की रक्षा करने और उसकी उन्नति के लिये आज हमको अपने समाज से कुरीतियों एवं हानिकारक प्रथा, परम्पराओं को निकाल फेंकना ही होगा। नहीं तो, वह समय दूर नहीं, जब हिन्दू समाज इतना गिर जायेगा, इतना निकम्मा हो जायेगा कि फिर इसका उठ सकना कठिन ही नहीं, असम्भव ही हो जायेगा।

कुटुम्ब पीछे लाखों का धन बचाने के लिये जो सबसे सरल उपाय है, वह है—आदर्श-विवाहों का प्रचलन! यदि मितव्ययी आदर्श-विवाहों का प्रचलन प्रारम्भ हो जाये तो बिना कोई अन्य साधन जुटाये प्रति परिवार कम से कम आठ-दस हजार की बचत होना निश्चित हो जाये और यह बचत बेटे-पोतों में चलती हुई कुछ ही समय में लाखों में पहुँच जाये और इतनी बड़ी अहैतुक आय किसी भी परिवार को उन्नति के चरम-शिखर पर पहुँचा देने के लिये कम न होगी।

जिस प्रकार नकद रुपया मिलने और किसी प्रकार रोजगार में लाभ होने से आय बढ़ती है, उसी प्रकार अपव्यय से बचाये हुए धन को भी एक अतिरिक्त आय ही माना जाता है। जब तक सादगीपूर्ण आदर्श-विवाहों का प्रचलन नहीं होता, हर परिवार को आठ-दस हजार का प्रबन्ध करना ही होगा और उसे विवाह के नाम पर फूँक देना होगा। यदि उसे इस प्रबन्ध अथवा विवाह के लिये बचाए हुए पैसे को खर्च करने की मजबूरी न हो तो यह पैसा उसकी आय के रूप में ही उसके पास बना रहेगा। यही नहीं, जब इतनी बड़ी रकम किसी कार-रोजगार को बढ़ाने में लगा दी जायेगी, तब तो कुछ ही समय में उससे होने वाली आय का ठिकाना ही न रहे। यह सुविधा जब हर परिवार उठाने लगेगा तब सहज ही सोचा जा सकता है कि अपने समाज की आर्थिक दयनीयता कितनी जल्दी दूर हो जायेगी?

यदि एक बार भी यह मान लिया जाय कि विवाहों में होने वाले खर्च की मजबूरी से ही लोग पैसा बचाते हैं, वैसे बचाने योग्य आमदनी आज के कठिन दिनों में किसे होती है? तब भी तो जो बच्चों का पेट काट कर, उनकी शिक्षा में न्यूनता करके धन बचाने की कठिनाई है, उससे तो छुटकारा मिल ही जाये और जब निश्चिन्ततापूर्वक परिवार खायेगा, पहनेगा और बच्चों की समुचित पढ़ाई-लिखाई होने लगेगी तो परिवार का विकास आप से आप ही होने लगेगा। जिस परिवार के लोग प्रसन्न, स्वस्थ एवं शिक्षित होंगे, उसकी आय बढ़ते और गरीबी दूर होते क्या देर लगेगी? अस्तु आज समय का सबसे बड़ा तकाजा है कि महंगी विवाह-पद्धति बंद की जाये और आदर्श-विवाहों का प्रचलन किया जाये।


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