जीवन-यापन के लिये जीवन लक्ष्य भी निर्धारित करें।

April 1966

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जीवन-यापन और जीवन-लक्ष्य दो भिन्न बातें हैं। प्रायः सामान्य लोगों का लक्ष्य जीवन-यापन ही रहता है। खाना-कमाना, ब्याह-शादी, लेन-देन, व्यवहार-व्यापार आदि साधारण जीवन-क्रमों को पूरा करते हुए मृत्यु तक पहुँच जाना, बस इसके अतिरिक्त उनका अन्य कोई लक्ष्य नहीं होता। एक जीविका का साधन जुटा लेना एक परिवार बसा लेना और बच्चों का पालन-पोषण करते हुए शादी-ब्याह कर देना मात्र ही साधारणतया लोगों ने जीवन-लक्ष्य मान लिया है।

वस्तुतः यह जीवन-यापन की साधारण प्रक्रिया मात्र है, जीवन-लक्ष्य नहीं। जीवन-लक्ष्य उसी सुनिश्चित विचार को ही कहा जायेगा, जो संसार के साधारण कार्यक्रम से कुछ अलग, कुछ ऊँचा हो और जिसे पूरा करने में कुछ अतिरिक्त पुरुषार्थ करना पड़े।

जीवन में कोई सुनिश्चित लक्ष्य, कुछ विशेष ध्येय धारण करके चलने वालों को असाधारण व्यक्तियों की कोटि में ही रक्खा जाता है। उनकी विशेषता तथा महानता केवल यही होती है कि परम्परा से साधारण जीवन के अभ्यस्त व्यक्तियों में से उनने कुछ आगे बढ़कर, कुछ असामान्यता ग्रहण की है। लोग उसको महान इसलिये मान लेते हैं कि जहाँ सामान्य लोग समझी-बुझी तथा एक ही लीक पर चलती चली जा रही जीवन-गाड़ी में न जाने कितनी दुःख-तकलीफें अनुभव करते हैं, तब उस व्यक्ति ने एक अन्य, अनजाना एवं असामान्य मार्ग चुना है। उसका साहस एवं कष्ट सहिष्णुता कुछ अधिक बढ़ी-चढ़ी है।

जीवन-यापन की साधारण प्रक्रिया को भी यदि एक असामान्य दृष्टिकोण से लेकर चला जाय तो वह भी एक प्रकार का जीवन-लक्ष बन जाती है। इस साधारण प्रक्रिया का असाधारणत्व केवल यही हो सकता है कि जीवन इस प्रकार से बिताया जाये, जिसमें मनुष्य पतन के गर्भ में न गिर कर एक आदर्श-जीवन बिताता हुआ उसकी परिसमाप्ति तक पहुँच जाये। जिसने जीवन को आहों, आँसुओं तथा विषादों से मुक्त करके हास, उल्लास, हर्ष, प्रमोद तथा उत्साह के साथ बिता लिया है उसने भी मानो सफल जीवन-यापन का एक लक्ष्य ही प्राप्त कर लिया है। जिसने सन्तोषपूर्वक हँसते हुए जीवन-परिधि के बाहर पैर रक्खा है, उसका जीवन सफल ही माना जायेगा। इसके विपरीत जिसने जीवन-परिधि को रोते, बिलखते, तड़पते तथा तरसते हुए पार किया, मानों उसका जीवन घोर असफल ही हुआ।

जीवन की सफलता का प्रमाण जहाँ किसी के कार्य और कर्तृत्व से दिया करते हैं, वहाँ उसकी अन्तिम श्वास में सन्निहित शाँति एवं सन्तोष की मात्रा भी उसका एक सुन्दर प्रमाण है।

जीवन-यापन को ही जीवन-लक्ष्य मानने वाले भी जब तक अपने जीवन में एक व्यवस्था, एक अनुशासन और एक सुन्दरता नहीं लायेंगे, तब तक जीवन जीने की स्वाभाविक प्रक्रिया में भी सफल न हो सकेंगे। जिस जीवन में हास, उल्लास तथा उत्साह की मात्रा जितनी अधिक होगी, वह उतना ही सुन्दर होगा। प्रसन्नता ही जीवन की सुन्दरता का दूसरा नाम है। जिस जीवन में हास नहीं, उत्साह एवं उल्लास नहीं, उसमें क्यों न संसार भर के सुख-साधन हों, क्यों न वह विशुद्ध सोने से निर्मित किया गया हो, सुन्दर नहीं कहा जा सकता।

ऊँची कोठी, सजे कमरे, सुन्दर वस्त्र, परिपूर्ण तिजोरियाँ और रंग-रूप से भरी रँगरेलियाँ भले ही किसी के जीवन को दूसरों के लिये आकर्षक बना दें, किन्तु यह उपादान उसके स्वयं के लिये जीवन की सुन्दरता का सृजन नहीं कर सकते।

जीवन की सुन्दरता बाहरी वैभव में नहीं, मनुष्य के आन्तरिक संसार में हुआ करती है। जिसके गुण, कर्म, स्वभाव जितने ही सात्विक और सुरुचिपूर्ण होंगे, उसका जीवन उतना ही प्रसन्न, उतना ही सुन्दर होगा। जो अविचारी, व्यभिचारी अथवा अवगुणी है, वह कितना ही धनवान, शान−शौकत वाला, सुन्दर शरीर और रहन-सहन वाला क्यों न हो सुन्दर जीवन की परिधि में नहीं आ सकता। इसके विपरीत जो सामान्य स्थिति का है, गरीब है, बहुत सुन्दर शरीर वाला भी नहीं है, यदि वह शिष्ट, सभ्य, श्लील, संतुष्ट और शान्त है तो वह अधिक सुन्दर जीवन वाला कहा जायेगा।

जीवन को सफल एवं सुन्दर बनाने के लिये जीवन जीने को एक कला के रूप में ग्रहण करना होगा। इस कला की सबसे प्रमुख मान्यता यह है कि मनुष्य के जीवन तत्व का शोषण करने वाली चिन्ता को पास न आने दिया जाये! जिसके जीवन तत्व को चिन्ताओं ने सोख डाला है वह जीवन के किसी क्षेत्र में सफलता प्राप्त नहीं कर सकता। जो शक्तियाँ जीवन को उन्नत और सुरुचिपूर्ण बनाने वाली होती हैं चिन्ता सबसे पहले उन्हीं को दबाकर बैठ जाती है। चिन्ताग्रस्त मनुष्य किंकर्तव्यविमूढ़ होकर किसी कार्य के योग्य नहीं रहता। जीवन की सारी सुन्दरताओं का मूल स्वास्थ्य चिन्ता के विष से भस्म हो जाता है। विविध प्रकार के रोग मनुष्य को घेर लेते हें। रोगी मनुष्य का स्वभाव जीवन-कला के अनुरूप हो ही नहीं सकता। वह चिड़-चिड़ा, झक्की, क्रोधी एवं सनकी बन जायेगा। मनुष्य स्वभाव की यह विकृति उसको पतन की ओर ही धकेलती है।

कार्य में मनोयोगता प्राप्त करने के लिये मनुष्य का तन मन से स्वस्थ बहुत आवश्यक है। इस प्रकार के स्वास्थ्य की उपलब्धि के लिये व्यवस्थित एवं संयमित जीवन क्रम की बहुत आवश्यकता है। जो अस्त-व्यस्त है, जिसने समय एवं श्रम में संतुलन नहीं बना रक्खा है, वह व्यवस्थित जीवन नहीं रख सकता। असंयम स्वास्थ्य का सबसे बड़ा शत्रु है। असंयम से पाचन-क्रिया बिगड़ जाती है और पाचन-क्रिया के बिगड़ते ही शारीरिक स्वास्थ्य की सारी संभावनाएं जाती रहती हैं। जो अस्वस्थ है उसका मानसिक सन्तुलन अवश्य बिगड़ जाता है। इससे उत्तेजना, क्रोध और क्षोभ की बहुतायत हो जाती है। जरा-जरा सी बात पर बिगड़ उठना, विध्वंसक दिशा में सोचना, द्वेष मान लेना और प्रतिशोध की भावना में जलते रहना मानसिक रोगी का सबसे बड़ा लक्षण है।

यों तो साधारण चिन्ताओं से मुक्त रहने का सबसे सरल उपाय कार्य-व्यस्त रहना है, किन्तु चिन्ता जब इतनी बढ़ जाये कि वह सम्पूर्ण जीवन पर अपना अधिकार करके मनुष्य को अपना दास बना ले तब केवल काम में लगे रहने भर से भी काम न चलेगा। जब चिन्ता, विषाद, निराशा और हतोत्साह को लेकर स्थायी रूप से जीवन में घर कर जाये, तो मनुष्य को जीवन से अरुचि एवं ग्लानि होने लगे, तब उसे अध्यात्म का सहारा लेकर अपना त्राण करना चाहिये। दृष्टिकोण के आध्यात्मिक होते ही मनुष्य की आत्मशक्ति प्रबुद्ध होने लगती है। ईश्वर के प्रति विश्वास और श्रद्धा बढ़ने लगती है। आत्म-विश्वास का उदय होता है। आशा के साथ आत्म-विश्वास की किरणें फैलते ही मनुष्य जीवन में नया प्रभात होता है और वह एक नये उत्साह के साथ जीवन पथ पर बढ़ चलता है।

अनियंत्रित इच्छायें भी चिन्ता का एक विशेष कारण है। जिसकी इच्छायें बहुत हैं, जिसने तरह-तरह की आकाँक्षायें पाल रखी हैं वह कभी भी निश्चिन्त नहीं रह सकता। एक के बाद एक इच्छा उसके मन मस्तिष्क को मथती ही रहेगी। इच्छाओं के बोझ से उसकी इन्द्रियाँ शिथिल होकर काम करने योग्य नहीं रह सकतीं फलस्वरूप अकर्मण्यता की वृद्धि होगी ही! जहाँ अकर्मण्यता होगी वहाँ चिन्ताएँ अवश्य रहेंगी और जहाँ चिन्तायें होगी, वहाँ प्रसन्नता ठहर ही नहीं सकती। प्रसन्नता के अभाव में मनुष्य जीवन की असफलता निश्चित है।

जीवन की सफलता के लिये मनुष्य को कम-से-कम इच्छाओं के साथ अनुशासित संयमित एवं कटी छँटी जिन्दगी को लेकर प्रसन्नतापूर्वक कार्यरत रहना चाहिये। इस प्रकार की अबोझिल जिन्दगी में न असंतोष होता है और न क्षोभ। उसकी जिन्दगी हर ओर सुन्दर बनकर कलापूर्ण बन जाती है।


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