भारतीयता के संरक्षक- महात्मा हँसराज

April 1966

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यह वह समय था, जब भारत में अंग्रेजी राज्य की जड़े मजबूत करने के लिये शिक्षा को साधन रूप में प्रयुक्त किया जा रहा था। 1857 के बाद अंग्रेज कूटनीतिज्ञों ने यह बात अच्छी तरह समझ ली थी कि जब तक भारतीयता को नष्ट करके भारत में अंग्रेजियत का प्रचार नहीं किया जायेगा, अंग्रेजों का राज्य चिरस्थायी नहीं हो सकता।

अंग्रेजों ने इसके दो मार्ग निकाले, एक तो धर्म-प्रिय साधारण जनता को ईसाईयत की विशेषता बतलाकर और उनकी सामाजिक परिस्थिति तथा आर्थिक दशा का लाभ उठा कर ईसाई बनाना दूसरे अपेक्षाकृत सम्पन्न तथा जागरूक जनता में से तरुण वर्ग को शिक्षा के माध्यम से अंग्रेजियत में रंग कर अपना मानसिक गुलाम बनाना।

निदान सरकार ने शिक्षा प्रसार का दायित्व अपने पर लेने के बहाने से जनता के बीच जन-सहयोग से चलने वाली सभी छोटी-बड़ी शिक्षा-संस्थाओं को बन्द कर दिया, जिनमें धर्म के माध्यम से जीवन के सभी अंगों की शिक्षा दी जाती थी। सरकारी स्कूल स्थापित किये गये और उनमें बाबूशाहों का निर्माण होने लगा। ईसाईयत सिखाई जाने लगी।

सरकार की यह योजन सफल हुई और नवयुवक अंग्रेजी राज्य के अनुकूल शिक्षा पा-पाकर उसके यंत्र बनने लगे। थोड़ी अंग्रेजी पढ़ने और अंग्रेजियत को अपनाने वालों को अच्छे-अच्छे सरकारी पद मिलने लगे और वे लोग इसे अपना भाग्य समझने लगे।

उस समय सरकार की इस भयंकर योजना का विरोध करना शेर के दाँत गिनने के समान था। सरकार सन् 1857 के आघात से आहत होकर बौरा चुकी थी और जरा-सा भी विरोध करने वाले को राज-द्रोही ठहरा कर तरह-तरह के त्रास देकर बर्बाद कर रही थी। बड़ा विषम समय था। एक ओर भारतीयता थी और दूसरी ओर प्राणों का भय। स्वातंत्र्य-संग्राम की विफलता ने जनता में एक निराशा की भावना पैदा कर दी थी। लोग किसी भी अत्याचार को ईश्वरीर इच्छा समझ कर सह लेने में खैरियत समझते थे।

ऐसी भयंकर परिस्थिति में जो व्यक्ति अपने बुद्धि एवं साहस के बल पर राष्ट्र की रक्षा कर सके, वे वास्तव में परमात्मा के रूप ही थे।

जहाँ एक और लोग भय से किंकर्तव्य विमूढ़ होकर अनचाहे भी सरकारी शिक्षा योजना में सहयोग कर रहे थे, वहाँ एक आत्म-विश्वासी व्यक्ति ऐसा भी था, जो प्राणों को दाँव पर लगाकर सरकार की इस विषय योजना को सफल होने से रोक देने के लिए मन ही मन संकल्प पूर्ण तैयारी कर रहा था वह व्यक्ति था- नव-युवक हँसराज!

हँसराज, जो आगे चलकर- महात्मा हँसराज के नाम से प्रसिद्ध हुए। यह जिस समय शिक्षा पा रहे थे, उस समय सर का की इस नीति का भी अध्ययन कर रहे थे। वे सरकार की इस शिक्षा-प्रणाली के प्रारम्भ से ही विरोधी थे, किन्तु उन्होंने उसका बहिष्कार नहीं किया प्रयुक्त अधिकाधिक संलग्नता से विद्या प्राप्त की, अंग्रेजी पढ़ी। वे जानते थे कि कोई भी भाषा क्यों न हो, यदि वह ऊँचे स्तर तक पढ़ी जाती है तो कोई ऐसी हानि नहीं पहुँच सकती, जैसी कि हानि, पूर्णता से नहीं, अपूर्णता से होती है।

यही बात किसी धार्मिक दर्शन के संबंध में भी होती है। जिस धार्मिक शिक्षा की ऊपरी बातों तक ही सीमित रहा जायेगा, उसका कुछ ऐसा प्रभाव भले पड़ जाये, जिससे कोई एक विश्वास अथवा पद्धति से हटकर दूसरे विश्वास अथवा पद्धति पर चला जाये, किंतु जब उसकी गहराई में उतर कर उसका साँगोपाँग अध्ययन तथा मनन किया जाता है, तब उसकी सारी असलियत सामने आ जाती है और उस दशा में यदि वह दर्शन सत्य पर आधारित है तो उसके अपनाने में किसी हानि की संभावना नहीं रहती और वह यदि यों ही कपोल कल्पित चिंतन पर आधारित होगा तो किसी भी विवेकशील व्यक्ति पर प्रभाव न डाल सकेगा।

महात्मा हंसराज अंग्रेजी का पूर्ण ज्ञान प्राप्त कर उसी के माध्यम से अंग्रेजी को समझने और उनकी चाल को विफल करना चाहते थे। साथ ही ईसाईयत के प्रभाव का उन्हें कोई भय न था। इसके लिये वे भारतीय-धर्म तथा वैदिक-साहित्य को अच्छी तरह पढ़ चुके थे और स्वामी दयानन्द की तीव्र तर्क-पद्धति की अपने मस्तिष्क में प्रति-स्थापना कर चुके थे।

महात्मा हंसराज ने ईसाईयत के बीच अंग्रेजी पढ़ी और इतना गम्भीर अध्ययन किया कि जिस समय उन्होंने उत्तम श्रेणी में बी.ए. पास किया तो उन्हें अपने में लाने और उनकी योग्यता का लाभ उठाने के लिये सरकार के मुँह में पानी आ गया। निदान बी.ए. की उपाधि लेते ही उसने महात्मा हंसराज की ओर बड़ी से बड़ी सरकारी नौकरी की फूल-मालायें बढ़ाई। सरकार को पूरी आशा थी कि उनकी मादक-गन्ध से एक भारतीय युवक अवश्य मोहित होकर आकर्षित होगा और अंग्रेजी राज्य की जड़ें मजबूत करने में सहायक बनेगा।

किन्तु महात्मा हंसराज उन युवकों में न थे, जिनके सामने मौज लेने के अतिरिक्त जीवन का कोई अन्य लक्ष्य ही नहीं होता। उस समय जब अंग्रेज सरकार शिक्षा के कुठार से भारतीयता की जड़ें काट कर अंग्रेजियत बो रही थी और किसी भी माई के लाल के कान पर जूँ तक नहीं रेंग रही थी, तब भला भारतीयता के प्रति भयंकर खतरा अनुभव कर लेने पर भी वह किस मुँह से मौज-मजा लेते और चैन की नींद सोते। अन्याय एवं अनुचित के प्रति बलिदान की परम्परा जगाते रखने के लिये कोई न कोई बलि-वेदी पर आता ही रहना चाहिये। अन्यथा राष्ट्रीयता मिट जायेगी, देश निर्जीव हो जायेगा और समाज की तेजस्विता नष्ट हो जायेगी।

जिसने खतरा अनुभव किया, उसका कर्तव्य था कि वह आगे बढ़े। महात्मा हंसराज ने बड़ी गम्भीरता से विचार करके तथा समाज की मनोवृत्ति का ठीक-ठीक अध्ययन करके यह निष्कर्ष निकाला कि सरकार की इस जटिल शिक्षा नीति का विरोध किसी आन्दोलन, संघर्ष अथवा खुली चुनौती के रूप में करना ठीक न होगा। सरकारी शिक्षा-प्रणाली को किसी समानान्तर शिक्षा-प्रणाली से ही निरस्त करना ठीक होगा।

अध्ययन से निवृत्त होकर चल पड़ा, भारतीयता के संरक्षण का व्रती। किधर? रोटी-रोजी और मौज-मजे की तलाश में—नहीं—एक ऐसे बिन्दु की तलाश में, जहाँ से वह अपना शुभ अभियान प्रारम्भ करे। जिस दिन निस्पृह एवं निष्कलंक समाज-सेवियों, धर्म-निष्ठों तथा देश-भक्तों को रोटी की कमी पड़ने लगेगी, उस दिन संसार से राष्ट्रीयता की संज्ञा ही उठ जायेगी। देश और धर्म की चिन्ता करने वाले मनीषियों को चाहिये ही क्या? केवल मुट्ठी भर अन्न और वह भी इसलिये कि जन-सेवा के लिये वे कल भी जी सकें। जिस आत्म-त्यागी की सारी कामनाएं, वासनाएं और आवश्यकताएं किसी जन-कल्याण के यज्ञ में आहुति बन चुकी हों, उसे अपनी सुध रहती ही कब है? उसकी खोज-खबर लेने का दायित्व तो उन कोटि-कोटि व्यक्तियों पर आ जाता है, जिनके हित के लिये वह अपने को खपा रहा है।

ला. हंसराज के सामने केवल एक उद्देश्य था कि कोई ऐसी योजना बनाई जाये, जिससे जन-साधारण को भारतीय राष्ट्र के अनुकूल शिक्षित करके उनमें आत्मविश्वास, देश-भक्ति तथा स्वाभिमान की भावना जगाई जा सके। भारतीयता के प्रति बढ़ती हुई उनकी हीन-भावना और ईसाईयत से ओत-प्रोत अँग्रेजियत के प्रति बढ़ती हुई आस्था को रोका जा सके। महात्मा हंसराज के बुद्धिमत्तापूर्ण इस एक उद्देश्य में ही राष्ट्र की सारी आवश्यकताएं सन्निहित थीं। देखने में छोटा लगने वाला यह उद्देश्य कितना व्यापक था? इसको कोई दूरदर्शी बुद्धिमान ही देख सकता था। वे कोई लम्बी-चौड़ी योजना सामने रखकर जनता को भयभीत करना तथा सरकार को चुकाना न चाहते थे।

एक समय में कोई एक ही विचार, किसी एक ही मस्तिष्क में नहीं आता, लाखों के मस्तिष्क में 19-20 के अनुपात तथा बुद्धि की पात्रता के अनुसार एक साथ अवतरित होता है। और जब कोई एक साहसी उसकी समीचीनता की घोषणा करने के लिये खड़ा होता है तो उसके झंडे के नीचे सजातीय विचारवानों को एक बड़ी संख्या में इकट्ठा होते देर नहीं लगती।

लाहौर में कुछ विचारवानों ने स्वामी दयानन्द कॉलेज कमेटी की स्थापना कर रक्खी थी और चाहते थे कि किसी प्रकार स्वामी दयानन्द के नाम पर ऐसा विद्यालय प्रारम्भ किया जाये, जिसमें ठीक-ठीक राष्ट्रीय शिक्षा दी जा सके। कोई कमेटी बना लेना एक बात है और उसके उद्देश्यों को कार्यान्वित करना दूसरी बात। कमेटी तो बना ली किंतु सरकारी भय के कारण उसके सदस्य यह न समझ पाते थे कि स्कूल की स्थापना करके उसे कैसे चलाया जाये?

विद्वान हंसराज ने कमेटी में प्रवेश किया और एक छोटा सा विद्यालय स्थापित करके उसमें अवैतनिक शिक्षक बन गये। सच्ची भावना से योजना का सूत्रपात हो गया और उसकी प्रगति के साथ विरोध भी प्रारम्भ हो चला। किन्तु इससे क्या? जन-साधारण का विरोध योजना की महानता का प्रमाण-पत्र होता है। जिस योजना का विरोध नहीं होता, जिस नियोजन की आलोचना नहीं होती, समझ लेना चाहिये कि उस योजना में कोई जीवन नहीं है, कोई नवीनता नहीं है।

उक्त नवजात संस्था को मिटा सकने के लिये सरकार कोई बहाना न पाकर केवल इतना ही कर सकी कि उसने कोई आर्थिक सहायता देने से इन्कार कर दिया। इसको संस्था के संस्थापकों ने शुभ ही समझा। क्योंकि वे स्वयं ही सरकार से कोई सहायता न लेना चाहते थे, क्योंकि उस दशा में उन्हें सरकारी नियमों के पचड़े में पड़ना होता, जिससे संभव था कि उन्हें अपने उद्देश्य में कुछ हेर-फेर करना पड़ता। उद्देश्य की न्यूनता के साथ पाई हुई किसी सुविधा की अपेक्षा उद्देश्य की रक्षा में पाई असुविधा अधिक श्रेयस्कर होती है।

सरकार ने न केवल अनुदान देने में ही विमुखता दिखलाई, बल्कि उक्त विद्यालय को मान्यता देने में भी अनुदारता वर्ती। किन्तु सुयोग्य शिक्षक महात्मा हंसराज अपना काम करते रहे। शीघ्र ही उनके परिश्रम का फल जन-साधारण की चर्चा के रूप में फलीभूत हुआ और लोग संस्था की ओर आकर्षित होने लगे। आत्म अनुशासित तथा त्यागी शिक्षक के पढ़ाये हुए छात्र चमकते हुए हीरों की तरह निकलने लगे, जिससे अभिभावकों की आस्था दिनों-दिन बढ़ती गई और छोटा-सा प्रारम्भिक स्कूल विस्तार एवं विकास पाने लगा।

कुछ समय बाद उस शिक्षा संस्था को डी. ए. वी. स्कूल के नाम से ख्याति प्राप्त हुई और उसके शिक्षा अभियान को डी.ए.वी. आन्दोलन का नाम मिला। डी.ए.वी. स्कूल की वेग से बढ़ती हुई लोकप्रियता को देखकर सरकार को शर्म आई और उसने जन-आलोचना के भय से स्कूल को मान्यता दे दी। मान्यता के प्रथम वर्ष में ही सुयोग्य शिक्षक के पढ़ाये विद्यार्थियों ने हाई स्कूल की सारी छात्र वृत्तियाँ जीत लीं।

महात्मा हंसराज की भावनापूर्ण तपस्या फलीभूत हुई, उनका त्याग अंकुरित हुआ और देश में डी.ए.वी. स्कूलों तथा कालेजों को जाल बिछने लगा। अनेक बैंकों, बीमा कम्पनियों तथा उद्योगों ने मुक्त हस्त दान देना प्रारम्भ कर दिया और स्कूल— कालेजों में बदलने लगे।

महात्मा हंसराज के जीवन-काल में डी.ए.वी. मिशन के अनेक शिल्प विद्यालय, टेकनिकल स्कूल, आयुर्वेदिक कॉलेज, नार्मल स्कूल, वैदिक शोध संस्थान, कला-विज्ञान कॉलेज तथा वैदिक धर्म प्रचारकों की शिक्षण संस्थायें बन गई। इसके अतिरिक्त डी ए.वी. आन्दोलन के अंतर्गत उसके अपने बैंक, बीमा कम्पनी तथा अनेक उद्योग भी चलने लगे।

महात्मा हंसराज की तपस्या का यह हाहाकारी अपनी लोक-प्रियता बनाये रखने के लिये सरकारी शिक्षाप्रणाली में परिवर्तन करना पड़ा। महात्मा हंसराज का मिशन पूरा हुआ। भारतीयता की रक्षा हुई और अंग्रेज कूटनीतिज्ञों की दूरगामी योजना विफल हुई। डी.ए.वी. आन्दोलन के रूप में देश को महात्मा हंसराज की देन अनुपम है, जिसके लिये—क्या भारतीयता और क्या भारतीयता, युग-युग उनकी आभारी रहेगी।

आज से लगभग 27-28 वर्ष पूर्व संसार से वह महान् आत्मा दिवंगत हो गई, किन्तु डी.ए.वी. शिक्षा संस्थाओं तथा आन्दोलन के अंतर्गत चलती हुई योजनायें उसे सदा अमर रखेंगी।


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