गृहस्थ सुख की साधना

April 1966

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गृहस्थ-जीवन की सम्पूर्ण आधार शिला आत्मीयता है। बच्चे रूखा-सूखा पाते हैं पर माता-पिता का साथ छोड़कर नहीं जाते। अपने सुख, अपनी सुविधायें विस्मृत कर स्त्री दिन-रात अपने पति अपने बच्चों की सेवा टहल करती है। एक ही भूख, एक ही प्यास—ममत्व। एक ही बन्धन—आत्मीयता ही है जो कष्ट की स्थिति में भी मनुष्य-मनुष्य को जोड़कर रखता है। पारस्परिक प्रेम, अपनत्व, स्नेह, सौहार्द, प्यार, दुलार पाकर निरे अभावग्रस्त परिवारों से भी लोग सम्बन्ध विच्छेद नहीं करना चाहते, पर आत्मीयता के अभाव में साधन सम्पन्न व्यक्ति भी परस्पर टकराते और भीतर ही भीतर घुला करते हैं।

ऐसी शिकायतें आये दिन सुनने को मिलती रहती हैं कि “हम भाइयों-भाइयों के बीच नहीं बनती”, “हमारा दाम्पत्य-जीवन बड़ा दुःखी है” “हमारे घर में ऐसा कलह छाया रहता है कि घर की चहारदीवारी में दम घुटता है।” ऐसी शिकायतें आज आम हो गई हैं। उन परिस्थितियों की कल्पना करते हैं जिनमें ऐसे लोग रह रहे होंगे तो इस निष्कर्ष पर पहुँचना पड़ता है कि आज का समाज निःसन्देह बहुत दुःखी है और उसका कुछ उपचार भी अवश्य होना चाहिए।

क्या कोई बाहरी हस्तक्षेप कारगर हो सकता है?—नहीं। आपकी यह समस्या किसी बिचौलिये से ठीक होने वाली नहीं। मनोवृत्तियाँ विकृत हो रही हों तो कोई देवता भी उस स्थिति को ठीक नहीं कर सकता। किसी अन्य से शिकायत करने की अपेक्षा अपने आप में ही यदि उस कारण को ढूँढ़ा जाय तो सारा उत्पात उत्पन्न करता है और उसे दूर किया जाय तब सम्बन्ध-सुधार की आशा भी बढ़ जाती है और उसके परिणाम भी कुछ अधिक प्रभावशाली हो सकते हैं।

दो भाइयों की कलह-ग्रस्त स्थिति जिसमें एक भाई अपने सगे भाई की जान लेने पर उतारू हो जाता है, और दूसरी ओर भाई की कष्ट-ग्रस्तता के समाचार से दूसरा भाई समाहित हो जाता है और उसकी विपत्ति दूर करने के लिए बड़े से बड़ा त्याग करने की तैयारी करता है—ये दोनों परिस्थितियाँ जमीन-आसमान जैसे अन्तर की हैं। इस अन्तर पर विचार करने से इसी निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि इन दोनों स्थितियों में आत्मीयता का प्रगाढ़ होना और आत्मीयता न होना यह दो ही कारण हो सकते हैं अन्यथा धन दौलत किसी के सम्बन्ध खराब नहीं कर सकते। बटवारे का झगड़ा तब होता है जब स्वार्थ पैदा होता है। न्यायपूर्वक लोग उपभोग करते रहें तो ऐसी लड़ाई ही क्यों हो? अपने आपको बड़ा मानने और दूसरे को नीचा मानने की अमानवीय प्रकृति ही कलह उत्पन्न करती है। एक मनुष्य यदि दूसरे मनुष्य की स्थिति भी ठीक अपनी ही जैसी अनुभव करे तो फिर क्यों झगड़ा हो,क्यों सम्बन्ध खराब हों।

कमी कूद न कुछ प्रत्येक व्यक्ति में होती है। जो बेटा दिन-भर खेतों में काम करता है, कठिनाइयों में संघर्ष करते रहने के कारण संभव है वह कुछ तीखी आवाज में बोलता हो, माँ उसे अपने बेटे का गुण मानती है, दुर्गुण नहीं। पत्नी यदि अपनी सेवाओं के बदले कुछ अधिकार चाहती हो तो इसे उसकी स्वाभाविक वृत्ति मानना चाहिए न कि उसका दोष। इन स्वाभाविकताओं को माँ की दृष्टि से देखा जाय और उसके अनुरूप ही अपने आपको ढाल लिया जाय तो इसमें हर्ज ही क्या है। सेवा के बदले बड़ाई, परिश्रम के बदले प्यार देना, मनुष्य का धर्म है। इन सद् गुणों के बीच यदि कोई कटु लगने वाली बात जान पड़ती हो तो उसकी उपेक्षा ऐसे ही की जानी चाहिए जैसे नीम के गुणों के बीच उसकी कड़ुवाहट की उपेक्षा कर दी जाती है।

मानवीय अधिकारों की भूख सभी को होती है। बच्चा प्रातःकाल से लेकर सायंकाल तक तोड़-फोड़ वस्तु-खराबी और खर्च ही कराता है, इतना करते हुए भी वह माता-पिता से बराबर प्रेम और स्नेह का अधिकार रखता है। बच्चे को वह प्यार मिलता भी है, क्योंकि यह उसका मानवीय अधिकार था। बच्चे की ही तरह बड़ों के श्रम की प्रशंसा, उनके कार्य में सहयोग, अभावों की पूर्ति भी ऐसे ही मानवीय अधिकारों के अंतर्गत आती है। इसे पूरा करने में जब लोग कंजूसी दिखाते हैं तो स्वभावतः उसकी प्रतिक्रिया विपरीत होती है और आत्मीय-सम्बन्धों में विकृति आती है।

त्याग और उदारता का मानवीय अधिकार केवल वे लोग ही नहीं माँगते जो अधिक उपयोगी होते हैं अथवा जिनके पास किसी प्रकार की सत्ता होती है, वरन् यह मनोवैज्ञानिक सत्य है कि उसकी अपेक्षा समाज का हर व्यक्ति करता है। यह कहा जा सकता है कि जो कोई काम न आता हो या अनुपयोगी हो उसके प्रति परोपकार से क्या लाभ? पर बात ऐसी नहीं। त्याग और उदारता किसी भी व्यक्ति के साथ बरती जाय वह कभी निष्प्रभाव नहीं जाती। इतिहास साक्षी है कि इस उदारता के द्वारा कई पातकी व्यक्तियों को भी सुधारा जा सका है। बाल्मीकि और अंगुलिमाल जैसे हिंसक प्रवृत्ति के व्यक्तियों को भी मनुष्य की दया, क्षमा, त्याग और उदारता ने बदलकर रख दिया तो परिवार की छोटी-छोटी कमियों वाले व्यक्तियों को बदलना और भी आसान होना चाहिए।

माँ का हृदय बड़ा विशाल कहा जाता है क्योंकि वह लायक और नालायक दोनों बेटों को एक आँख, एक भावना से देखती है। अच्छे, चरित्रवान और सुशील बेटे के लिए जितनी मुहब्बत उसके हृदय में होती है, नालायक बेटे के लिए उससे कम नहीं। कुछ अंशों में तो वह उसका और भी अधिक हितचिन्तन करती है। माँ की तरह हम सब व्यक्तियों का हृदय उदार हो सकता है। यदि हमारा अहंकार सचमुच बड़ा है और हम अपने आपको अन्य लोगों की अपेक्षा कुछ बड़ा समझदार और सुधरा हुआ समझते हैं तो अयोग्य को भी आदर देने की योग्यता हम में होनी ही चाहिए।

स्वार्थ वृत्ति का उन्मूलन और त्याग वृत्ति का परिष्कार आत्मीयता बढ़ाने की दो धारायें हैं। यह दो स्वर्ण-सूत्र हैं जिन्हें अपनाकर खोये हुए सम्बन्धों को सुधारा जा सकता है, सुधरे हुए सम्बन्धों को प्रगाढ़ बनाया जा सकता है। पारिवारिक जीवन में यदि समता, सौमनस्यता, सुव्यवस्था, सुख और शान्ति बनाये रखनी हो तो इन बातों का पाठ प्रत्येक सदस्य को पढ़ाना ही पड़ेगा।

भावनाओं को ऊँचे उठाना कुछ कठिन बात नहीं इससे आपको घाटा होता हो ऐसी बात नहीं। अपनी ओर से उदारता व्यक्त करने वाला व्यक्ति बाहर से भले ही कुछ घाटे में जान पड़े पर यदि यह तत्व उसके जीवन में ओत-प्रोत हो जाते हैं तो उसके जीवन में अभूतपूर्व आत्म-संतोष का उभार देखा जा सकता है। आध्यात्मिक ही नहीं अनेक भौतिक लाभों से भी वह लाभान्वित होता है।

पारिवारिक संगठन के लिए आत्मीयता अनिवार्य शर्त है, उसे पूरा कर लिया जाय तो सुख और सम्पत्ति का उस गृहस्थ को कोई अभाव नहीं रह सकता। पर यह क्रिया बाह्य संदर्भ से न आनी चाहिये। आत्मीयता हमारी भावनाओं का प्रसार है। हम अपनी धर्मपत्नी के प्रति अपने भाई-बहनों और बच्चों के प्रति जैसी भावनायें रखते हैं उसी के अनुरूप आत्म-सम्बन्ध भी ढीले या प्रगाढ़ होते हैं। अच्छी भावनाओं का अच्छा प्रतिफल तुरन्त देखा जा सकता है जबकि दुर्भावनाओं से पारस्परिक सम्बन्ध और भी खराब होते हैं।

पारिवारिक संगठन गृहस्थ की समुन्नति का मेरुदण्ड है। वह जितना सुदृढ़ होगा, व्यक्ति , समाज और राष्ट्र भी उतना ही समुन्नत होगा। मनुष्य-जीवन की सुख-सुविधायें भी उसी में सन्निहित हैं। हमारे पास घर और साधन प्रचुर मात्रा में न हों तो कुछ हर्ज नहीं। बहुत अच्छा मकान, बहुत ऊँची शिक्षा न हो तो भी काम चल सकता है, पर पारिवारिक सौजन्यता के बिना हम एक कदम भी आगे नहीं बढ़ सकते। सुखी गृहस्थ के लिए भाई-भाई में अटूट प्रेम, पिता-पुत्र में गहन आत्मीयता पति-पत्नी के बीच पूर्ण एकता और विश्वास होना आवश्यक है। इसे उपलब्ध कर सकें तो स्वर्ग इसी धरती में है उसे ढूँढ़ने के लिए कहीं अन्यत्र जाने की आवश्यकता न होगी।


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