नारी को समुचित सम्मान एवं उत्थान दीजिए।

April 1966

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

कोई भी समाज नारी-पुरुष के युग्म से बनता है, समाज ही क्यों, सच्ची बात तो यह है कि सृष्टि के क्रम का मूलभूत कारण ही यह जोड़ा है। इसमें भी नारी का स्थान प्रमुख है। क्योंकि संसार एवं सृष्टि क्रम में पुरुष एक साधारण-सा हेतु है, बाकी सारा काम एक मात्र नारी को ही करना पड़ता है।

सन्तान धारण करने का काम से लेकर उसको जन्म देने और पालन करने का सारा दायित्व एक मात्र नारी ही उठाया करती है। सन्तान का प्रजनन एवं पालन मात्र नारी की कृपा पर ही निर्भर है। घर बसाना, उसे चलाना और उसकी व्यवस्था रखना नारी के हाथ में ही है। यदि वह अपने इस दायित्व से विमुख हो जाये अथवा इसमें उपेक्षा बरतने लगे तो कुछ ही समय में यह व्यवस्थित दिखलाई देने वाला समाज अस्त-व्यस्त और ऊबड़-खाबड़ दिखाई देने लगे। इस प्रकार यदि ध्यान से विचार किया जाये तो पता चलेगा, सृष्टि से लेकर समाज तक का संचालन क्रम मुख्यतः नारी पर निर्भर है। पुरुष तो इसके एक सहायक हेतु है। तब ऐसी नारी निर्मात्री, धात्री और व्यवस्थापिका जैसी पूजा-पत्री का तिरस्कार, अपमान, उपेक्षा अथवा अवहेलना करना कहाँ तक उचित है?

जो धारिका, धात्री और निर्मात्री है, यदि वह अपने तन-मन से प्रसन्न और प्रफुल्ल रहेगी तो उसकी सृष्टि भी उसी प्रकार की प्रसन्न एवं प्रफुल्ल होगी और यदि वह मलीन रहती है, तो उसका सृजन भी उतना ही मलीन और अयोग्य होगा। इसीलिये बुद्धिमान व्यक्ति , नारी का समुचित आदर करते हुए उसे प्रसन्न रखने का प्रयत्न करते हैं।

जब-जब जिन समाजों में नारी का समुचित स्थान रहा है, उसके शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक तथा आत्मिक विकास की व्यवस्था रक्खी गई है, तब तब वे समाज, संसार में समुन्नत होकर आगे बढ़े हैं और जब-जब इसके प्रतिकूल आचरण किया गया है, तब-तब समाजों का पतन होता है।

नारी जन्मदात्री है। समाज का प्रत्येक भावी सदस्य उसकी गोद में पल कर संसार में खड़ा होता है। उसके स्तन का अमृत पीकर पुष्ट होता है। उसकी हँसी से हँसना और उसकी वाणी से बोलना सीखता है। उसकी कृपा से ही जीकर और उसके ही अच्छे-बुरे संस्कार लेकर अपने जीवन क्षेत्र में उतरता है। तात्पर्य यह कि जैसी माँ होगी, सन्तान अधिकाँशतः उसी प्रकार की होगी।

भारत के अतीत-कालीन गौरव में नारियों का बहुत कुछ अंश-दान रहा है। उस समय संतान की अच्छाई-बुराई का सम्बन्ध माँ की मर्यादा के साथ जुड़ा था। वह अपनी मान-मर्यादा की प्रतिष्ठा के लिये सन्तान को बड़े उत्तरदायित्वपूर्ण ढंग से पालती थी। देश, काल और समाज की आवश्यकता के अनुरूप सन्तान देना अपना परम-पावन कर्तव्य समझती थी। यही कारण है कि जब-जब युगानुसार सन्त, महात्मा, त्यागी, दानी योद्धा, वीर और बलिदानियों की आवश्यकता पड़ी, उसने अपनी गोद में पाल-पाल कर दिये।

किन्तु वह अपने इस दायित्व को निभा तब ही सकी है। जब उसको स्वयं अपना विकास करने का अवसर दिया गया है। जिस माँ का स्वयं अपना विकास न हुआ हो, वह भला विकासशील संतान दे भी कैसे सकती है। जिसको देश-काल की आवश्यकता और समाज की स्थिति और संसार की गतिविधि का ज्ञान ही न हो, वह उसके अनुसार अपनी सन्तान को किस प्रकार बना सकती है? अपने इस दायित्व को ठीक प्रकार से निभा सकने के लिये आवश्यक है कि नारी को सारे शैक्षणिक एवं सामाजिक अधिकार समुचित रूप से दिये जायें।

प्राचीन काल में भारत में नारी को यह सब अधिकार मिले हुए थे। उनके लिये शिक्षा की समुचित व्यवस्था थी, समाज में आने-जाने और उसकी गतिविधियों में भाग लेने की पूरी स्वतन्त्रता थी। वे पुरुषों के साथ वेद पढ़ती-पढ़ाती थीं, यज्ञ में होता, ऋत्विज् तथा यज्वा के रूप में योगदान किया करती थीं। यही कारण था कि वे गुण, कर्म, स्वभाव में पुरुषों के समान ही उन्नत हुआ करती थीं और तभी समान एवं समकक्ष स्त्री-पुरुष की सम्मिलित सन्तान भी उन्हीं की तरह गुणवती होती थीं। जब तक समाज में इस प्रकार की मंगल परम्परा चलती रही, भारत का वह समय देव-युग के समान सुख-शान्ति और सम्पन्नता पूर्ण बना रहा, किन्तु ज्योंही इस पुण्य-परम्परा में व्यवधान आया, नारी को उसके समुचित एवं आवश्यक अधिकारों से वंचित किया गया, भारतीय समाज का पतन होना प्रारम्भ हो गया और ज्यों नारी को दयनीय बनाया जाता रहा, समाज अधोगति को प्राप्त होता गया और अन्त में एक ऐसा अन्धकार-युग आया कि भारत का सारा गौरव और उसकी सारी साँस्कृतिक गरिमा मिट्टी में मिल गई।

कहना न होगा कि जिस प्रकार शिखा सहित ही दीपक, दीपक है, उसी प्रकार सुयोग्य, सुशील और सुगृहिणी के रूप में ही पत्नी, पत्नी मानी जायगी। अयोग्य विवाहितायें वास्तव में पुरुष रूपी शरीर में पक्षाघात के समान ही हैं। जीवनरूपी रथ में टूटे पहिये और उन्नति अभियान में विखण्डित पक्ष की तरह ही बेकार हैं।

इस रूप में पुरुष की पूर्ति नारी तब ही कर सकती है, जब उन्हें इस कर्तव्य के योग्य विकसित होने का अवसर दिया जाये। जहाँ स्त्रियों को केवल बच्चा पैदा करने की मशीन, विषय-विष का समाधान और चूल्हे-चौके की दासी-भर समझकर रक्खा जायेगा, वहाँ उससे उपर्युक्त पतित्व की अपेक्षा करना मूर्खता होगी।

हमारे समाज में आज एक लम्बे युग से नारी की उपेक्षा होती चली आ रही है। जिसके फल स्वरूप धर्म भार्या के रूप में उसके सारे गुण और समाज निर्मात्री के रूप में सारी योग्यताएं समाप्त हो गई हैं। उसे पैर की जूती बनाकर रक्खा जाने लगा, जिससे वास्तव में जूती से अधिक उसकी कोई उपयोगिता रह भी नहीं गई है। ऐसी निम्न कोटि में पहुँचाई गई नारी से यदि आज का स्वार्थी एवं अनुदार पुरुष यह आशा करे कि वह गृह-लक्ष्मी बनकर उसके घर को सुख-शान्तिपूर्ण स्वर्ग का एक कोना बना दे, उसकी सन्तानों की सुयोग्य, तो वह दिन के सपने देखता है, आकाश-कुसुम की कामना करता है।

यदि मनुष्य सच्ची सुख-शान्ति चाहता है और चाहता है कि उसकी उसकी नारी अन्नपूर्णा बनकर उसकी कमाई में प्रकाण्डता भरे, उसके मन को माधुर्य और प्राणों को प्रसन्नता दे! उसके परिश्रान्त जीवन में श्री बनकर हँसे और संसार-समर में शक्ति बनकर साहस दे, तो उसे पैरों से उठाकर अर्धांग में सम्मान देना ही होगा। अन्यथा टूटे पहिये की गाड़ी के समान उसकी जिन्दगी धचके खाती हुई ही घिसटेगी। घरबार उसे बेकार का बोझ बनकर त्रस्त करता रहेगा। अयोग्य एवं अनाचारी बच्चों की भीड़ दुश्मन की तरह उसके पीछे पड़ी रहेगी।

इस प्रकार देश, समाज, घर-गृहस्थी तथा वैयक्तिक विकास तथा सुख-शान्ति के लिये नारी की इस आवश्यकता जानकर भी जो उसे अधिकारहीन करके पैर की जूती बनाये रखने की सोचता है, वह उसे समाज का ही नहीं, अपनी आत्मा का भी हितैषी नहीं कहा जा सकता।

अपने राष्ट्र का मंगल, समाज का कल्याण और अपना वैयक्तिक हित ध्यान में रखते हुए नारी को अज्ञान के अन्धकार से निकाल कर प्रकाश में लाना होगा। चेतना देने के लिये उसे शिक्षित करना होगा। सामाजिक एवं नागरिक प्रबोध के लिये उसके प्रतिबंध हटाने होंगे और भारत की भावी सन्तान के लिये उसे ठीक-ठीक जननी का आदर देना ही होगा। समाज के सर्वांगीण विकास और राष्ट्र की समुन्नति के लिए यह एक सबसे सरल, सुलभ और समुचित उपाय है जिसे घर-घर में प्रत्येक भारतवासी को काम में लाकर अपना कर्त्तव्य पूर्ण करना चाहिये। यही आज की सबसे बड़ी सभ्यता सामाजिकता, नागरिकता और मानवता है। वैसे घर में नारी के प्रति संकीर्ण होकर यदि कोई बाहर समाज में उदारता और मानवता का प्रदर्शन करता है तो वह दम्भी है, आडम्बरी और मिथ्याचारी है।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118