परमात्मा से प्रेम होना ही प्राणी की सबसे बड़ी उपलब्धि है। परमात्मा में प्रीति होते ही प्राणी को सारी कामनायें परितृप्त हो जाती हैं। उसके दुख-दारिद्र्य प्रकाश की उपस्थिति में अन्धकार के समान दूर हो जाते हैं। प्राणी आत्म-तुष्ट हो जाता है। उसकी सारी क्षुद्रतायें मिट जाती हैं। जीवन में अनन्त और अक्षय सुख का सागर लहरा उठता है।
परमात्मा के प्रति प्रेम ही सच्चा प्रेम है अन्य सारे आकर्षण वासनायें हैं, जिनका सुख क्षणिक और परिणाम में दुःखकारक है। जिस प्रेम में अनन्तता, अक्षयता और निरपेक्षता न हो जो पवित्रता और सम रूपता से रहित हो वह प्रेम नहीं मोह है! वास्तविक और नित्य नवीनता वाला प्रेम केवल ईश्वर विषयक ही हो सकता है? संसार-विषयक नहीं!
परमात्मा के प्रति प्रेम रखने वाला अपने सच्चे स्वरूप को जान लेता है और अन्य प्राणियों की वास्तविकता को समझ लेता है जिससे उसके भीतर विश्व प्रेम की भावना जागृत हो जाती है।
परमात्मा के प्रति प्रेम रखने वाला जीवन के सत्य को पहचान लेता, आत्मा के दिव्य दर्शन कर लेता है और उसे एक ऐसी अहेतुकी परितृप्ति प्राप्त हो जाती है कि फिर किसी वस्तु की कामना नहीं रहती।
—महर्षि रमण