अपने मन को हास्य और आनन्द के अनुरूप बना लो, इससे सहस्रों हानियाँ रुक जाती हैं और जिन्दगी लम्बी हो जाती है।
प्रत्येक विनोद के साथ उससे सम्बन्धित सुख रहता है, और अन्य बातों की अपेक्षा उसी में विनोद का आनन्द भी मिलता है।
—शेक्सपीयर
कर्त्तव्य-अकर्त्तव्य, धर्म-अधर्म की परीक्षा के लिये शास्त्रकारों ने बताया है कि उसे—”आत्म सन्तुष्टि” की कसौटी पर कसा जाय। अर्थात् जिस कर्त्तव्य से हमारी आत्मा सन्तुष्ट हो, मन प्रसन्न रहे वही धर्म है। जो कार्य करने में भय, लज्जा, शंका, ग्लानि जैसे मनोविकार उत्पन्न हों उन्हें करने के लिये आत्मा रोकती है। इसलिये आध्यात्मिक वृत्ति के मनुष्य अपनी आत्मा की प्रवृत्ति को देखते हैं। वे सोचते हैं कि जिस कार्य के करने से हमारी आत्मा को सन्तोष होगा वही हमारे लिये अभीष्ट है। उसी का वे सम्पादन भी करते हैं। वेद भगवान का प्रवचन है :—
आ रोहतायुर्जरसं वृणाना अनुपूर्व यतमाना यतिष्ठ । इह त्वष्टा सुजनिमा सजोषा दीर्घमायुः करतिजीवसे वः॥
अर्थात्—जिन्हें दीर्घ जीवन की कामना है वे संयमित जीवन द्वारा स्वास्थ्य बनाये रखें, सन्तोष, प्रीति और हँसी-खुशी का जीवन जियें। सदैव कर्मशील बने रहें। उत्तम सन्तान उत्पन्न करें और कुशलता को प्राप्त करें।