ईंटों को दो वस्त्र रूप का पाषाणों में प्राण उभारो, चेतनता के संस्पर्शों से जड़ता हँसकर मुँह-मुँह बोले।
सागर की फेनिल साँसों पर चला करें जलयान तुम्हारे, लेकर तुमको आसमान में घूमें भू के उड़नखटोले।
सिन्धु थहाओ, लौह उड़ाओ करो हुकूमत जल-थल-नभ पर, दूर चन्द्रमा के सपनों पर अपना घर आजाद करो तुम।
मैं कब कहता हूँ अम्बर में उड़ने का तुम स्वप्न न देखो, मैं यह कहता हूँ अम्बर से पहले भू को प्यार करो तुम।
मैं कब कहता हूँ तन का शृंगार नहीं अच्छा लगता है, मैं यह कहता हूँ तन से पहले मन का शृंगार करो तुम॥
—श्यामनारायण एम. ए.