ब्राह्मणत्व जागेगा तो राष्ट्र जागेगा

August 1965

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ऋषियों ने मनुष्य समाज की प्रवृत्तियों का गहन अध्ययन कर यह निश्चय किया कि उसका नेतृत्व और मार्गदर्शन ऐसे व्यक्तियों के हाथ में हो, जो पक्षपात रहित, निर्लोभ रहकर सर्व साधारण के हित की रक्षा कर सकें। नेतृत्व एक बड़ी शक्ति है, बुरे व्यक्तियों के हाथों में पड़कर जिसका दुरुपयोग भी हो सकता है। अतः यह आवश्यकता समझ में आयी कि समाज के बुरे तत्वों पर अंकुश रखने के लिये राज्य की बागडोर किसी के भी हाथ में रहे पर उसका नियंत्रण उन लोगों के हाथ में रहे जो उस शक्ति का दुरुपयोग न होने दें।

सामाजिक व्यवस्था, सर्व साधारण के हित, श्रेष्ठ व्यक्तियों के हाथ में नेतृत्व मार्गदर्शन एवं प्रशासनिक नियंत्रण रखने की दृष्टि से यहाँ जातियों का वर्गीकरण हुआ और प्रत्येक की स्थिति, गुण कर्म तथा स्वभाव के अनुरूप अधिकार और कर्तव्य भी प्रदान किये गये।

ब्राह्मण समाज का शिरोमणि समझा गया। उसके कर्त्तव्य और जिम्मेदारियाँ बहुत बड़ी थीं, उसका जीवन एक कठोर तपश्चर्या थी, इसलिये उसे अधिकार भी बढ़े हुए दिये गये। ब्राह्मण ने भी इस कठोर जीवन को सहर्ष स्वीकार किया क्योंकि लोक-कल्याण के लिये उसका हृदय बड़ा विस्तृत, बड़ा विशाल था।

ब्राह्मण बुद्धि, विचार और सत्कर्म आदि की दृष्टि से तो श्रेष्ठ होता ही है ब्रह्मा शक्ति से आविर्भूत होने के कारण वह प्रचुर क्षमतावान् समझा जाता है। जो व्यक्ति अपनी शक्तियों, सामर्थ्यों का उपयोग निजी स्वार्थों तक ही बाँध रखते हैं उनकी तुलना में तपस्वी, परोपकारी, त्यागी और कर्मनिष्ठ ब्राह्मणों को बड़ा पद मिलना भी चाहिये था। जो समाज कल्याण तथा लोकोपकार के लिये निरन्तर प्रयत्नशील रहे, ऐसे ब्राह्मणों के बाहुल्य से ही जातीय विकास संभव हुआ है। हिन्दू इस योग्य हुआ है कि वह अन्य राष्ट्रों के समक्ष अपना गौरव ज्वलन्त रख सकें। राष्ट्र की शान और सुरक्षा भी ब्राह्मणों के हाथ अक्षुण्ण रही है।

ब्राह्मण मनुष्य समाज का देवता है। वह जन-कल्याण की भावनायें उत्सर्ग करता है। इस दृष्टि से समाज में उसे प्रथम स्थान मिले तो यह सर्वथा उपयुक्त ही है।

शास्त्र का भी मत ऐसा ही है। कहा है—”ब्रह्मक्षत्रिय वैश्य शूद्रा इति चत्वारो वर्णास्तेषाँ वर्णानाँ ब्राह्मण एव प्रधान इति वेद वचनानुरूपं स्मृतिमिरप्युक्तम्।” अर्थात् ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र ये चार वर्ण कहे गये हैं। इनमें ब्राह्मण प्रधान है ऐसा वेद का मत है। स्मृतियों में भी यही कहा गया है।

किन्तु “ब्राह्मण” शब्द के अर्थ पर अब लोगों में बड़ा तीव्र मतभेद है। कोई ब्राह्मणत्व का आधार श्रेष्ठ, सत्कर्म मानते हैं, कोई जन्म परम्परा से ही जातियों का वर्गीकरण हुआ मानते हैं। यह प्रश्न बड़े महत्व का है। इस पर विचार करना और भी आवश्यक है।

शाब्दिक अर्थ के अनुसार ब्राह्मण ब्रह्म-ज्ञान की स्थिति सामान्य बात नहीं जो हर किसी को तपश्चर्या के अभाव में भी मिल जाया करे। यों तो आज भी शास्त्र पारंगतों की कमी नहीं पर ब्रह्मनिष्ठ का ज्ञान मात्र वाचिक नहीं अनुभव सिद्ध भी होता है। जिसका पाण्डित्य असाधारण हो वह ब्राह्मण है। यह अर्थ-सार्थक और सही लगता है।

ब्राह्मण “शक्ति “ का प्रतीक है। उसकी सामर्थ्य, उसका प्राण और उसकी विद्वता असीम बनाई गई है इन विशेषताओं को देखते हुये वंश परम्परागत ब्राह्मण होने की बात तर्क संगत नहीं प्रतीत होती।

इसके सही निर्णय के लिये वहीं चलना पड़ेगा जहाँ ब्राह्मण का प्रादुर्भाव हुआ है।

बज्र सूचिकोपनिषद् में इसे लेकर 8 श्लोकों तक ब्राह्मण को क्रमशः जीव, देह तथा ज्ञानी मानकर उसका विश्लेषण किया गया है और यह बताया गया है कि जीव ब्राह्मण नहीं क्योंकि वह विभिन्न योनियों में शूकर, कूकर आदि के रूप में भी जन्म लेता रहता है। देह अर्थात् जन्म से भी वह ब्राह्मण नहीं क्योंकि ब्राह्मण से लेकर चाण्डाल तक सभी पंच भौतिक शरीरों वाले हैं। अन्य प्राणियों के शरीरों की भी ऐसी ही दशा है। शिक्षा भी ब्राह्मणत्व का आधार नहीं क्योंकि शिक्षा के विविध रूप हैं और उसका पारंगत कोई भी व्यक्ति हो सकता है।

अन्तिम श्लोक में ब्राह्मण की परिभाषा देते हुये कहा है “जो आत्मा के द्वैत-भाव से रहित अर्थात् अपने को सदैव आत्मा के रूप में ही देखता हो। सत्य, ज्ञान और आनन्द; अनन्त स्वरूप तथा निर्विकल्प रहने वाला हो। परमात्मा की तरह ही सब भूतों का अन्तर्यामी, काम, राग आदि से रहित हो उसे ब्राह्मण कहते हैं। संयम-नियम का पालन करने वाला, मत्सर, तृष्णा, आशा, मोह, दम्भ, अहंकार आदि से पृथक रहने वाला ही ब्राह्मणत्व का अधिकारी होता है।

इस तरह का विश्लेषण यह सिद्ध करता है कि जन्मजात ब्राह्मण होने की बात अप्रमाणित है। ब्राह्मण की स्थिति सामान्य नहीं होती, उसकी क्षमता और ब्रह्म की क्षमता में एकरूपता होती है इसीलिये उसका इतना गौरवपूर्ण स्थान है। यह गुण जाति परम्परा से देखने में नहीं आते इसलिये ब्राह्मण की शास्त्रीय व्याख्या ही बुद्धि संगत है।

दुर्भाग्य से आज ऐसे ब्राह्मणों का राष्ट्र में नितान्त अभाव है। इसीलिये राष्ट्रीय जीवन में किसी प्रकार गौरव दिखाई नहीं देता। राजनैतिक स्वतन्त्रता भले ही मिल गई हो पर विचार और आचरण की दृष्टि से राष्ट्र अभी भी परतन्त्र है। इस स्थिति का निराकरण सच्चे ब्राह्मणों के उदय से ही संभव है।

स्वतन्त्रता के नाम पर आज जो स्वेच्छाचारिता, पदलोलुपता, दंभ, दुराचार आदि बढ़ रहे हैं उससे इस देश का भारी अहित हुआ है। यहाँ का नैतिक जीवन बुरी तरह नष्ट हुआ है। कलह और प्रतिस्पर्धा बढ़ने से जन-असंतोष भी बुरी तरह बढ़ा है। इसमें मनुष्य के स्वतन्त्र चिन्तन का अभाव एक बहुत बड़ा कारण है।

ब्राह्मण चिन्तन-शील होता है। वह अपनी बुद्धि की सूक्ष्मता तथा ब्रह्मतेज से युक्त होकर अपने चारों ओर की परिस्थितियों को प्रभावित करता है। उसके संपर्क में आने वाले व्यक्ति एक अलौकिक प्रकाश का अनुभव करते हैं और उन्हें भी सत्कर्मों की प्रेरणा होती है। समाज में सदाचार और सत्प्रवृत्तियाँ जागृत होती हैं तो उससे सामाजिक एवं राष्ट्रीय विकास की संभावनायें तीव्रता से विकसित होती हैं।

ऐसे थोड़े से ब्राह्मणों का भी प्रादुर्भाव यहाँ हो जाय तो यहाँ के जीवन में व्याप्त भ्रष्टाचार और बुराइयों का प्रभाव कम होते देर न लगे। प्रकाश जहाँ रहता है अन्धकार को वहाँ से भागना ही पड़ता है, सत्प्रवृत्तियों को जहाँ जोरदार समर्थन मिल रहा हो वहाँ दुःख, दीनता और दरिद्रता का टिक पाना असंभव है। ब्राह्मण की जागृति इसलिये अनिवार्य है कि उसमें राष्ट्रीय चेतना की जागृति छुपी हुई है।

इस जागृति के लिये साधना की आवश्यकता होगी। ब्राह्मण का आविर्भाव कठिन तपश्चर्या से होता है, पर इस युग की परिस्थितियाँ इतना गिर गई हैं कि लोग साधारण स्तर की तपश्चर्या से, कठिनाई से भी भय खाते हैं। लोगों का नैतिक स्तर जितना गिरा है मनोबल उससे भी अधिक गिरता हुआ चला जा रहा है। ऐसी स्थिति में साधना की कठिनाइयों में देर तक टिके रहना सबके लिये कठिन हो जाता है और एक महान् आवश्यकता की पूर्ति यों ही अधूरी पड़ी रह जाती है।

आज लोग भोग चाहते हैं, अधिक से अधिक सुख चाहते हैं; इस तृष्णा में हमारा परलोक ढक गया है। सुखोपभोग की भ्रामक बुद्धि ने आत्म-ज्ञान पर पर्दा डाल दिया है। लोगों का जीवन उद्देश्यहीन हो गया है। अब लोग स्वार्थ के लिये सदाचार को छोड़ देने में पटु हो गये हैं, अतः यह समस्या खड़ी हो गई है कि सच्चे ब्राह्मणत्व का पुनर्जागरण किस प्रकार किया जाय।

जिस दिन से ऐसा वातावरण बनने लगेगा उस दिन से राष्ट्रीय जीवन में भी नव-जागरण का शुभारम्भ हो जायगा। साधना जागृत होगी तो निश्चय ही राष्ट्र का ब्राह्मणत्व जागृत होगा। ब्राह्मण जागृत होगा तो यह राष्ट्र जागृत हो जायेगा और यह देश पुनः अपने अतीत कालीन ज्ञान, गौरव और समृद्धि की ओर बढ़ने लगेगा। ब्राह्मण इस देश के विकास की रीढ़ है उसे अब जागृत होना ही चाहिये।


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