तुम जगाते रहे हो (Kavita)

August 1965

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तुम जगाते रहे हो, जगाते रहो,

युद्ध की इस निशा को सवेर करो।

तुम कवि हो, रवि, रोशनी हो तुम्हीं,

तम का विस्तार छाया उसे तुम हरो,

तुम न चुप हो कवि, आज बोलो जरा,

यह समय है तुम्हारे ही उद्गार का।

—श्री मुक्ति नाथ त्रिपाठी


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