तुम जगाते रहे हो, जगाते रहो,
युद्ध की इस निशा को सवेर करो।
तुम कवि हो, रवि, रोशनी हो तुम्हीं,
तम का विस्तार छाया उसे तुम हरो,
तुम न चुप हो कवि, आज बोलो जरा,
यह समय है तुम्हारे ही उद्गार का।
—श्री मुक्ति नाथ त्रिपाठी