धर्म का स्वरूप और उपयोग

August 1965

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जीवन में स्थायी सुख-शान्ति लाने के लिये धर्म का पालन करना बहुत आवश्यक है। जनसाधारण की सामान्य धारणा के अनुसार धर्म कोई विशिष्ट कर्म काण्ड नहीं है। धर्म का अर्थ पूजा-पाठ अथवा साधना-उपासना ही नहीं है। यह सारे कर्म-काण्ड जीवन को धार्मिक पथ पर चलाने और उसका अभ्यस्त बनाने के साधन मात्र हैं। पवित्र कर्म-काण्ड करने से मनुष्य के कुसंस्कार तथा अहितकर अभ्यास मिटते हैं और उनके स्थान पर सुसंस्कार और कल्याणपूर्ण अभ्यासों का समावेश होता है।

धर्म तो मनुष्य जीवन की वह सामान्य पद्धति है जिसको अपना कर चलने से एक चिरस्थायी सुख-शाँति की उपलब्धि होती है। पग-पग पर विग्रह तथा विनाश कारणों का समापन होता है। धर्म का अवलम्बन लेकर चलने से जीवन दिन-दिन उन्नति की ओर अग्रसर होता चलता है। उन्नतिपूर्ण जीवनयापन करना ही मनुष्यता है, इसके विपरीत अधोगामी जीवन जीना और कुछ भी हो मानवता तो नहीं ही है!

भारतीय मनीषियों ने अध्ययन, चिन्तन और अनुभव के आधार पर सुख-शाँति पूर्ण जीवन-यापन की जो पद्धति खोज निकाली है उसको धर्म का नाम देकर दश लक्षणों अथवा कर्तव्यों की सीमा में समाहित कर दिया है। जो मनुष्य इन दश गुणों अथवा कर्तव्यों को अपना कर चलता है वह न केवल स्वयं सुखी रहता है अपितु दूसरों के लिये भी सुख का हेतु बनता है!

“धृतिः क्षमा दमोऽस्तुते यै शौचमिन्द्रि निग्रहः। धीविद्या सत्यमक्रोधो दशकं धर्म लक्षणम्।”

“धृति, क्षमा, दम, अस्तेय, शौच, इन्द्रिय निग्रह, धी, विद्या, सत्य एवं अक्रोध यह धर्म के दश-लक्षण हैं—अर्थात् यह दश ऐसे कर्तव्य अथवा गुण हैं जो मनुष्य को महान बना कर सुख-शाँति की उपलब्धि कराते हैं।

यह दश कर्तव्य केवल धर्म के ही लक्षण नहीं बल्कि सच्ची मनुष्यता के पावन सोपान और विश्वकल्याण के मूल मंत्र भी हैं।

इन दश लक्षणों को अपना कर चलने वाले को किसी धर्म विशेष का अनुयायी मानना संकुचित दृष्टिकोण तथा संकीर्ण विचारधारा का परिचय देना है। यह किसी जाति विशेष के लिये साम्प्रदायिक निर्देश नहीं अपितु सम्पूर्ण मानवता के लिये माँगलिक निष्कर्ष हैं जिनको सार्वभौम भावना रखने वाले भारतीय चिन्तकों ने सम्पूर्ण जीवन का मंथन करके निकाला है। यह जीवन तथ्य किसी देश, जाति, राष्ट्र अथवा सम्प्रदाय की निधि नहीं है। इस विभूति में समग्र संसार का अधिकार है जो चाहे ग्रहण कर सकता है और लाभ उठा सकता है।

धर्म के ये दश लक्षण अंधविश्वास के विषय नहीं हैं बल्कि तर्क और अनुभव की कसौटी पर परखे हुये मानवजीवन के शाश्वत सत्य हैं। संसार में कितने ही धर्म, मजहब, पंथ और सम्प्रदाय क्यों न चला करें और क्यों न कितने ही पीर, पैगम्बर, सन्त, महन्त, साधु अथवा महात्मा पैदा हो जायें-मानव-कल्याण का निर्देश करते समय इस त्रयकालिक दशक से बाहर नहीं जा सकते। वे जो कुछ नया पुराना कहेंगे वह इन्हीं के इर्द-गिर्द घूमती हुई इनकी ही शाखायें प्रशाखायें होंगी।

इस धार्मिक दशक को जीवन में उतारते समय विवेचना पूर्वक इनका स्वरूप समझ लेना अत्यावश्यक है।

धृति का अर्थ है धैर्य। मनुष्य एक कर्मशील प्राणी है। इस कर्म प्रधान विश्व में बिना कर्म किये, बिना कुछ काम किये किसी का गुजर नहीं हो सकता। अथवा यों कहना चाहिये कि वह जीवित नहीं रह सकता। अतएव मनुष्य कुछ न कुछ करता ही रहता है। अपना विकास, परिवार का पालन, समाज की सेवा आदि सब बातें कर्म पर आधारित हैं। यदि मनुष्य क्रियाशील न रहा होता तो आज संसार को जिस उन्नत दशा में देखते हैं वह वैसा न होता, बल्कि चारों ओर निर्जीविता, जड़ता और उजाड़पन वर्तमान होता। इन ऊँचे-ऊँचे भवनों, समुन्नत कला-कौशलों के केन्द्रों, साहित्य और शिल्पों के स्थान पर सब कुछ ऊबड़- खाबड़ ही रहा होता और जीवन की चहल-पहल के स्थान पर मृत्यु जैसा सन्नाटा छाया रहता। हम संसार में आज जो कुछ भी सत्यं-शिवं-सुन्दरम् देख रहे हैं वह सब मनुष्य की क्रियाशीलता का ही फल है।

कोई भी काम करने में धैर्य की नितान्त आवश्यकता है। जो धैर्यवान है वह कर्म करने से पहले उसके शुभाशुभ परिणाम पर विचार कर सकता है उसको सफल बनाने के लिये मार्ग निर्धारित कर सकता है। अपने कर्म के सतासत एवं उपयोगिता अनुपयोगिता पर सोच सकता है। इसके विपरीत जो अधैर्यवान् है आवेश अथवा उद्वेग पूर्ण है वह न तो कर्म की इन आवश्यक भूमिकाओं पर विचार कर सकता है और न दक्षता प्राप्त कर सकता है। उद्वेग पूर्वक किया हुआ कार्य प्रायः न तो अपनी पूर्णता को प्राप्त होता है और न वाँछित फल का वाहक ही बनता है। वह तो अस्त-व्यस्त क्रिया-कलाप की तरह एक निरर्थक श्रम ही होता है।

अधैर्य मनुष्य का बहुत बड़ा दुर्गुण है। अधीर व्यक्ति में अपेक्षित गम्भीरता का अभाव ही रहता है जिससे वह चपलता के कारण समाज में उपहास, उपेक्षा और निन्दा का पात्र बनता है। अधीर व्यक्ति के मन बुद्धि स्थिर नहीं रहते। वह न किसी विषय में ठीक से सोच सकता है और न कर्तृत्व अथवा अकर्तृत्व का निर्णय कर सकता है। अधैर्यवान् व्यक्ति अदक्षता, अस्त-व्यस्तता, अनिर्णायकता एवं अक्षमता के कारण जीवन के हर क्षेत्र में असफल होकर दुःख भोगता है। इसके विपरीत जो घृतिवान है वह जिस कार्य को पकड़ता है उसे पूर्ण मनोयोग, विवेक बुद्धि और समग्र-शक्ति लगा कर पूरा किये बिना नहीं रहता। धैर्यवान व्यक्ति कर्म करके उसके फल की प्रतीक्षा में व्यग्र नहीं होता बल्कि फलासक्ति से रहित होकर कार्य किया करता है, जिससे वह कर्मों में न तो क्लान्ति अनुभव करता है और न सफलता असफलता से आँदोलित होता है। ऐसे धृति-धर कर्म योगी ही जीवन में अपूर्व सफलता पाकर सुख-शाँति का लाभ प्राप्त करते हैं।

क्षमा का अर्थ है निद्वेष होना। निद्वेष व्यक्ति ही संसार में अजातशत्रु बनता है। जो अजातशत्रु है पूरा संसार उसका हितैषी रहता है। उसे हर समय हर स्थिति में प्रत्येक व्यक्ति की सद्भावना तथा सहयोग मिलता रहता है। क्षमावान व्यक्ति हर स्थान पर स्नेह पूर्ण सम्मान का पात्र बना रहता है।

‘क्षमा’ धारण करना कायरता अथवा दुर्बलता का चिन्ह नहीं बल्कि यह स्थिर बुद्धि, गम्भीर मन और उन्नत आत्मा का लक्षण है। अपराध करने पर भी किसी को क्षमा कर देना, उसके प्रतिशोध, प्रतिकार एवं प्रतिहिंसा की भावना न रखना किसी कायर हृदय की क्षमता के बाहर है। अपराधी के प्रति निर्द्वेष रह सकना किसी धीर वीर मनस्वी के लिये ही साध्य है। जिसके हृदय में विद्वेष नहीं जिसका कोई शत्रु नहीं और जिसको संसार का स्नेह एवं सौहार्द प्राप्त है ऐसे क्षमाशील व्यक्ति को सुख-शाँति न मिले यह त्रय काल में असम्भव है।

‘दम’ का अर्थ है दमन करने, समाधान करने की योग्यता। इस दमन का आशय है उच्छृंखल मन और अनियंत्रित कामनाओं का नियंत्रण करना। योग्यता पूर्वक विग्रह, विद्वेष तथा वैमनस्यता का समाधान करना। क्या बाह्य और क्या आन्तरिक विग्रह एवं विकारों का समाधान अनुग्रह पूर्वक ही किया जा सकता है। अविचारिता पूर्ण बलात्कार से किसी बुराई का समाधान सम्भव नहीं। क्रिया प्रतिक्रियाओं के वशीभूत होकर जो दमन किया जाता है वह अत्याचार में बदल जाता है और अत्याचारी के नसीब में सुख-शान्ति की कोई रेखा नहीं होती। अग्नि का समाधान जल और द्वेष का सहृदयता है। दमन-शील व्यक्ति आत्मा के प्रति दयालु रहता है कुविचारों तथा कुकामनाओं से आत्मा की रक्षा करता है। मन की अनियंत्रित चंचलता में शक्ति की क्षय नहीं कर देता। मन, बुद्धि और शरीर पर समुचित नियंत्रण रख कर उन्हें शक्तिशाली बनने का अवसर देता है। हर दृष्टि से शक्तिशाली बन कर दमनशील संयमी संसार के सारे सुखों का अधिकारी बनता है।

अस्तेय का अर्थ है अवंचकता होना। जिसके मन में कोई चोर नहीं रहता, वह दूसरों के प्रति ही नहीं बल्कि अपने प्रति भी सच्चा और ईमानदार रहता है। जहाँ किसी को धोखा न देना उसके प्रति हितकारक है वहाँ वंचकता का भाव न होना अपने प्रति कल्याणकारक है। जो वंचक नहीं, झूठा नहीं, वह संसार में सबका विश्वास पा लेता है। अवंचक व्यक्ति निरपराध रह कर निर्विरोध, निर्विकार, निर्द्वन्द्व एवं निर्भय जीवन यापन करता हुआ सुख शाँति का अधिकारी बनता है। अनास्तेयता पूर्ण व्यक्ति की आत्मा स्वस्थ तथा सबल होकर अक्षय आनन्द का स्रोत बन जाता है।

शौच का अर्थ है- पवित्रता। पवित्र मन प्राण वाला व्यक्ति शरीर से भी स्वस्थ रहता है। उसे रोग शोक और पाप-ताप रूपी शत्रु नहीं घेरते। पवित्र मनः व्यक्ति स्वच्छ और समुन्नत दशा में रहता है। उसे मलीनता और गन्दगी नहीं भाती। वह शिव एवं सुन्दर होने का अनुयायी होने से कला पूर्ण जीवन का आनन्द प्राप्त करता है।

इन्द्रिय निग्रह का अर्थ है वासनाओं से अपनी रक्षा करना। जिसकी इन्द्रियाँ वश में हैं वह मिताहारी, मितव्ययी एवं मितभाषी होता है। जिसमें इन तीन गुणों का विकास हो जाता है वह संसार के बहुत से दुर्गुणों से बच जाता है। मिताहार रोग से, मितव्ययिता दरिद्रता से और मितभाषण निरर्थक विग्रह तथा वाद-विवाद से रक्षा करता है। जो इन्द्रियों का दास है वह जीवन का सारा सार शीघ्र ही खोकर खोखला हो जाता है, फिर उसके पास लोलुपता तथा लिप्सा के अतिरिक्त कुछ भी शेष नहीं रहता। जहाँ अनियंत्रित-इन्द्रिय व्यक्ति दुःख दारिद्रय से ग्रसित अल्पजीवी होता है वहाँ इन्द्रिय निग्रही व्यक्ति सुख पूर्ण दीर्घ जीवन का अधिकारी होता है।

धीः—मनुष्य की विवेक बुद्धि को कहते हैं। जिसका विवेक प्रबुद्ध है उस पर कोई विपत्ति नहीं आती और यदि संयोगवश आ भी जाती है तो विवेकी व्यक्ति उसका शीघ्र समाधान कर लेता है। जो विवेकवान है उसे किसी का भय नहीं। विवेक मनुष्य को सदैव सत्कर्मों में ही प्रवृत्त रखता है और सत्कर्मों में लगे हुये व्यक्ति के पास सुख-शाँति की कमी नहीं रहती।

‘विद्या’ का अर्थ केवल शिक्षा ही नहीं ज्ञान भी है! जिस व्यक्ति में विद्या नहीं वह बहुधा अविनयी ही होता है। धृष्ट व्यक्ति का न कहीं मान होता है और न उसे कोई चाहता है! संसार का अनन्त ऐश्वर्य पा लेने वाला व्यक्ति यदि अज्ञानी है तो वह अपने वैभव की न तो रक्षा कर सकता है और न सदुपयोग। ज्ञान के अभाव में सारे गुण, सर्वशक्तियाँ पंगु होकर निकम्मी हो जाती हैं। अज्ञान मनुष्य जीवन में निषिद्ध अन्धकार के तुल्य है। अज्ञानी व्यक्ति अंधेरे में भटकते हुए के समान पग-पग ठोकर खाता रहता है। जो विद्यावान है ज्ञानवान है वह निर्धन रहकर भी सुख-शाँति पूर्ण आत्म जीवन व्यतीत कर सकता है।

सत्य का अर्थ है किसी भ्रम अथवा भूलों में न भटकना। जो व्यक्ति सत्य का उपासक है वह किसी व्यक्ति अथवा वस्तु के बाह्य स्वरूप से प्रभावित होकर उसे अपनाने का प्रयत्न नहीं करता। सत्यवादी व्यक्तित्व की ही खोज में रहता है और प्रत्येक वस्तु के यथार्थ रूप को पाने का प्रयास किया करता है।

“सत्य के उपासक की वाणी में तेज और कर्मों में एक सार्थक दक्षता रहती है। वह न अहितकर बोलता है, और न कोई अकल्याणकर कार्य करता है। सत्य जीवन का मूल मंत्र है। सत्य का आधार लेकर चलने वाले की सफलता निश्चित है।

‘अक्रोध’-का अर्थ है उत्तेजित न होना। सदैव ही शाँत एवं आवेगरहित रहना। जिसने क्रोध को जीत लिया उसने मानो संसार को जीत लिया। क्रोध मनुष्य को अन्धा कर देता है। क्रोध का आवेग आने पर मनुष्य आगा-पीछा नहीं सोच पाता और अकरणीय कार्य कर बैठता है। क्रोधी की बुद्धि क्रोध की आग में जल कर नष्ट हो जाती है और बुद्धि का विनाश हो जाने से मनुष्य का विनाश निश्चित ही है।

इसके विपरीत जो शाँत है आवेग रहित है उसे अनिष्ट का कोई भय नहीं। अक्रोधी व्यक्ति शीतल जल की भाँति स्वयं भी शीतल रहता है और दूसरों को भी शीतल रखता है।

इस प्रकार जो व्यक्ति अपने जीवन में धर्म लक्षण कहे जाने वाले इन दश गुणों का समावेश कर लेता है उसकी सुख-शाँति में कोई बाधा नहीं पड़ती।


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