अनासक्ति का अर्थ यह नहीं कि जो कुछ आप करें उसमें आपको रुचि न हो। उसकी अच्छाई बुराई सफलता असफलता की चिन्ता न करें। ऐसा करने से तो कोई भी कार्य करने में लापरवाही ही रहेगी। यदि अनासक्ति का अर्थ असम्बन्ध, अरुचि अथवा निरपेक्षता लिया जायेगा तो कोई भी कार्य कुशलता पूर्वक नहीं किया जा सकता। बिना कोई आशा रक्खे कोई भी काम करने में मनुष्य का मन न लगेगा। किसी कार्य में लाभालाभ का विचार ही उस कर्म में रुचि उत्पन्न करता है। जब मनुष्य असफलता का भय और सफलता की आशा लेकर कार्य करेगा तभी उसको संलग्नता और उत्तरदायित्व पूर्ण ढंग से कर सकेगा अन्यथा नहीं।
यदि ऐसा है तो अनासक्त कर्मयोग का मतलब क्या? अनासक्ति भावना का सम्बन्ध काम करते समय नहीं उसके पूर्ण हो जाने पर संयोगवश उसकी असफलता मात्र से है, सफलता से भी नहीं। सफलता की स्थिति में उसका प्रसन्न होना स्वाभाविक है। यदि सफलता का हर्षातिरेक किसी को अभिमान अथवा अहंकार की उत्पत्ति करता है तब ही उसे अनासक्ति का सहारा लेना आवश्यक है। क्योंकि ऐसी स्थिति में कर्ता को अपना किया हुआ एक छोटा सा कार्य भी बड़ी भारी कृति मालूम होगी जिससे संतुष्ट होकर वह और अधिक कार्य करने से विरत होने लगेगा! वैसे सामान्यतः किसी कार्य की सफलता से मनुष्य का उत्साह वर्धक प्रसन्नता से विरक्त होने की कोई विशेष आशंका नहीं है।
हाँ, असफलता की स्थिति में मनुष्य को अवश्य अनासक्ति योग का अवलम्बन लेना चाहिये, जिससे उसे असफलता के खेद अथवा असंतोष, हतोत्साह अथवा निराशा का अनुभव न हो। असफलता से प्रभावित होकर सामान्य मनुष्य प्रायः पुनः प्रयत्न में विश्वास नहीं करने लगता है! दोनों दशाओं में कर्म फल से विरत अर्थात् अप्रभावित रहने का निर्देश इसलिये किया गया है कि जो मनुष्य सफलता में प्रसन्न होने का अभ्यासी है उसका असफलता की स्थिति में खिन्न और निराश होना स्वाभाविक है। अनासक्ति का पूर्ण अभ्यास करने के लिये ही कर्म फल अर्थात् सफलता असफलता के प्रति उदासीन रहने का निर्देश किया गया है। यद्यपि तटस्थता एक महान स्थिति है तथापि यदि हमको गलत प्रेरणा न दे तो सफलता में प्रसन्नता होना कोई हानिकारक अस्वाभाविकता नहीं है!
एक ओर कहा गया है कि मनुष्य का कर्म में अधिकार है, उसे हर अच्छा बुरा काम करने की स्वतन्त्रता है। पर दूसरी ओर निर्देश है कि मनुष्य सब कुछ करता हुआ भी कुछ नहीं करता। वह एक माध्यम मात्र, है, उसकी समस्त क्रियायें परमात्मा द्वारा प्रेरित होती हैं। विराट-पुरुष परमात्मा ही सारे कर्मों का कारण है।
यह दोनों कथन देखने में एक दूसरे के विरोधी प्रतीत होते हैं। जब मनुष्य किसी शक्ति की प्रेरणा से यंत्रवत् कार्य करता है तब वह कर्मों में स्वतंत्र, उसका उत्तरदायी किस प्रकार ठहराया जा सकता है? और यदि वह कर्मों में स्वतन्त्र है, अच्छा बुरा जो चाहे कर सकता है तब किसी शक्ति की प्रेरणा की बात कैसे टिक सकती है?
इन कथनों के विरोधाभास को समझने के लिये गहराई से विचार करने की आवश्यकता है! मनुष्य में जो चेतना पूर्ण गतिवत्ता है उसका कारण तो वह विराट-शक्ति है किन्तु कर्मगति की दिशा मनुष्य की अपनी है। परमात्मा विद्युत की भाँति गतिशीलता की शक्ति तो देता किन्तु उस शक्ति से संचलित मनुष्य-यंत्र किस ओर जाता है इसका उत्तरदायी वह नहीं है! विद्युत धारायें केवल प्रेरणा देती हैं अब आगे उपभोक्ता का कर्तव्य है कि वह उसका उपयोग रोशनी करने में करता है या किसी के प्राण लेने में। गैस मोटर को ढकेलती भर है उसके चलने के ढंग का उत्तरदायित्व संचालक पर है।
संसार में जो कुछ अच्छा बुरा हितकर अथवा अहितकर होता है वह सब परमात्मा की प्रेरणा तथा इच्छा से होता है, मनुष्य का उसमें कोई हाथ नहीं है। वह स्वयं कुछ नहीं करता। किसी विराट्-शक्ति द्वारा उससे बलात् कराया जाता है, ऐसा विश्वास धारण करने से मनुष्य भले ही अपने कर्म फल का भागी न बने, पर यह विश्वास व्यवहार जगत में हितकर नहीं है। स्वभावतः बुराई की ओर दौड़ने वाला मनुष्य इस विश्वास के बल पर और भी भयंकर हो जायेगा। उसको किसी कर्म का फल भले ही भोगना न पड़े किन्तु उसके कुकर्म दूसरों के लिये तो कष्ट एवं अनिष्टकर होंगे ही।
किसी को मारने वाला यह सोचकर अपने कृत्य की जिम्मेदारी से मुक्त हो जाये कि उसने वैसा स्वयं नहीं किया बल्कि सर्व शक्तिमान परमात्मा की प्रेरणा से किया, और मरने वाला अथवा उसके सम्बन्धी यह सोच कर संतोष कर लें कि इसमें मारने वाले का कोई दोष नहीं, मरने वाला परमात्मा की इच्छा से मृत्यु को प्राप्त हुआ है, यह भला किस प्रकार सम्भव हो सकता है?
यदि इस नियम को सार्वभौम मान कर यह कल्पना भी कर ली जाय कि संसार का प्रत्येक मनुष्य यह विश्वास रखने लगा है कि कोई किसी काम का उत्तरदायी नहीं है और न कोई किसी को कष्ट अथवा हानि पहुँचाने का दोषी है तब तो संसार में एक भयानक अव्यवस्था ही उत्पन्न हो जाय। न कोई किसी को मारने लूटने में संकोच करे और न कोई उसका प्रतिकार। सबल व्यक्ति निर्बलों को एक मिनट में मिटाकर रख दें। किसी कृत्य के परिणाम, उसके दण्ड तथा प्रतिकार के भय से ही मनुष्य एक साधारण अनुशासन में चलता है!
सब कुछ परमात्मा की इच्छा से होता है ऐसा विश्वास बना लेने पर मनुष्य के ज्ञानी होने की कम किन्तु निरंकुश होने की अधिक सम्भावना है। यदि मनुष्य के प्रत्येक कर्म में सर्व शक्तिमान की प्रेरणा रहती है तो फिर कर्म करने वाले को उसका परिणाम क्यों भुगतना पड़ता है मनुष्य असंयम करता है किन्तु ईश्वर की इच्छा से तो फिर उसे रोग के रूप में उसका दण्ड क्यों मिलता है? एक प्रकार से तो यह परमात्मा का अन्याय ही प्रतीत होता है। पहले तो वह किसी को कुछ बुरा करने को प्रेरित करता है और फिर उसे वैसा करने का दण्ड देता है, यह कहाँ का न्याय हुआ। और यदि यह मान लिया जाय कि सर्व शक्तिमान मनुष्य से शुभाशुभ कर्म कराकर फिर जो उसे उसका पुरस्कार अथवा दंड देता है यह उसकी लीला है खेल है-तब भी यह उस सर्व शक्तिमान विराट् पुरुष के अनुरूप नहीं है। यह बचकाना खेल न तो उसके गौरव उपयुक्त है ओर न वह ऐसा खेल खेलेगा ही।
विराट् पुरुष द्वारा प्रेरित यह याँत्रिकता जड़ प्रकृति तथा विवेक रहित पशु-पक्षियों में तो किसी हद तक मानी जा सकती है किन्तु सचेतन तथा विवेकशक्ति सम्पन्न मनुष्य के विषय में नहीं मानी जा सकती।
परमात्मा ने मनुष्य को अनेक आश्चर्यजनक शक्तियाँ देकर स्वतन्त्र कर दिया है कि यदि वह चाहे तो शक्तियों का सदुपयोग करके परमपद प्राप्त कर ले अथवा उनके दुरुपयोग द्वारा अधोगति में जा पड़े। उसने मनुष्य को सारे उपादान देकर खिलाड़ी की तरह संसार के मैदान में छोड़ दिया है और स्वयं एक निष्पक्ष दर्शक की भान्ति उसका खेल देखता है कि सुगति दुर्गति के इस विशाल खेल में कौन खिलाड़ी जीतता है और कौन हारता है। जो अपने स्रोत अर्थात् लक्ष्य को पाता जाता है वह उस परमपद परमात्मा की गोद में पहुँचता जाता है और जो हारता है वह खेलने के लिये दुबारा संसार में भेज दिया जाता है। मनुष्य की आयु खेल के एक अवसर की अवधि है। समाप्त हो जाने के बाद यदि खिलाड़ी सफल नहीं हो पाता तो उसे समयानुसार पुनः अवसर व समय दिया जाता है।
विवेकवान मनुष्य को इस भ्रम में नहीं पड़ना चाहिये कि उसके शुभाशुभ कर्मों का प्रेरक तथा संचालक सर्व शक्तिमान परमात्मा है, उसका अपना कोई दायित्व नहीं है। न वह कुछ करने के स्वतन्त्र है और न करता ही है।
अनासक्ति कर्मयोग का यह अर्थ कदापि नहीं है कि तटस्थ रहकर कुछ भी अच्छा बुरा किये जाओ कोई भी गुण दोष हमारे लिये नहीं आयेगा। अनासक्ति कर्मयोग का केवल यह अर्थ है कि अपने कर्मों के फलाफल से प्रभावित होकर कर्म गति में व्यवधान अथवा विराम न आने दें जिससे दिन प्रति दिन अपने कर्मों में सुधार करते हुये परमपद की ओर बढ़ते जायें।
गाय के महत्व को न भूलें
भारतीय संस्कृति के चार प्रमुख स्तम्भों में गंगा, गीता, गायत्री, गौ में गाय का महत्व कम नहीं है। हमारे पूर्वजों में गायत्री, गंगा और गीता के प्रति जो श्रद्धा और सम्मान की भावना रही है वैसी ही गौ-माता के प्रति भी रही है। यह श्रद्धा साम्प्रदायिक या अन्धविश्वास न होकर गुण, सात्विकता और पवित्रता की दृष्टि से रही है। गौ का महत्व केवल इसलिए ही नहीं है कि वह हमें दूध देती है, उसी के बछड़ों से कृषि की जाती है वरन् उसमें पाया जाने वाला ओज, संस्कारों को पुष्ट करने वाली सात्विकता की दृष्टि से भी वह पूज्य है। वेद का कथन है :—
नमस्ते जायमानायै जाताया उतते नमः।
वालेभ्यः शफेभ्यो रुपायाघ्न्ये ते नमः॥
यया द्यौर्यया पृथिवी ययाऽऽपो गुपिता इमाः।
वशाँ सहस्रधाराँ ब्रह्मणाच्छावदामसि।
—अथर्व 10। 10। 1, 4
“हे अबध्य गौ। उत्पन्न होते समय और उत्पन्न होने पर तुम्हें प्रणाम! हम तुम्हारे शरीर, रोम और खुरों की शक्ति को पहचानते हैं। तुमने द्युलोक, भूमण्डल एवं इन जलों को भी सुरक्षित रक्खा है इसलिए सहस्र धाराओं से दूध देने वाली हे गौ माता, हम तुम्हारी स्तुति करते हैं।”
ऐसी स्तुतियों और चर्चाओं से शास्त्रों में पन्नों के पन्ने भरे पड़े हैं, जिनमें गाय के स्थूल और सूक्ष्म लाभों को वर्णन किया गया है। पद्म पुराण सृष्टि खण्ड में गाय के महत्व पर विस्तृत रूप से प्रकाश डाला है। स्कन्द. प्रभास. में गौ का स्थान ब्राह्मण, गुरु और देवता के समान दिया गया है। वायु पुराण, कश्यप संहिता, स्कन्द पुराण के आवन्त्यखण्ड, रेवाखण्ड, चरक संहिता, बौधायन स्मृति, लोकनीति में गाय के प्रभाव का वर्णन है और उससे प्राप्त होने वाले लाभों की व्याख्या है।
हिन्दू-धर्म ग्रन्थों में ही गाय के महत्व को प्रतिपादित किया गया हो ऐसी बात नहीं। दूसरे धर्मों में भी उसे पूज्य भाव से देखा गया है। “नौशियात हादी” में मनुष्य के स्वास्थ्य और आरोग्य के लिये गाय का दूध आवश्यक बताया है।
अफगानिस्तान के भूतपूर्व अमीर अमानुल्ला खाँ ने बम्बई यात्रा में कहा—”मुसलमानों को, मुल्लाओं और पीरों की बातों में न आकर हिन्दुओं के साथ शान्ति रखनी चाहिए। हिन्दुस्तान के लिए गाय और बैल बड़े उपकारी जीव हैं, आपको इनके वंश की वृद्धि की चेष्टा करनी चाहिए।”
“फतवे हुमायूनी” भाग 1 पृष्ठ 360 में “गाय की कुर्बानी इस्लाम-धर्म का नियम नहीं है” ऐसा बताया गया है। कुस्तुन्तुनियाँ के सादिक गौ को पवित्र मानते थे। “ईसाइयाह” ‘जरथुस्त्र’ ‘इदीस साइस्ता’ आदि विभिन्न धर्म ग्रंथों में गाय के महत्व को स्वीकार किया गया है।
जब तक भारतवर्ष में इस गौ-सम्पदा का अभाव नहीं रहा तब तक यहाँ धन-धान्य की कमी नहीं रही। यहाँ के बछड़े दूसरे देशों में बड़ा सम्मान पाते थे। यहाँ की गायें प्रचुर मात्रा में दूध और घी देती थीं जिसका सेवन करने से न केवल लोगों के शरीर स्वस्थ बलिष्ठ होते थे वरन् उनमें सद्गुणों का भी आविर्भाव होता था। गाय के दूध में शक्ति की मात्रा से सात्विकता की मात्रा कहीं अधिक होती है उसका प्रभाव सीधा संस्कारों पर पड़ता है। जब तक यहाँ गौ को पूज्य स्थान मिला तब तक लोगों का आत्मबल और मनोबल भी ऊँचा रहा किन्तु गौ-सम्पदा कम होने के साथ ही देश का गौरव भी कम होने लगा।
“यतो गावस्ततो वयम्” (गायें हैं इसी से हम लोग हैं, इस बात को भूल जाने के कारण पशुधन और धान्य क्षेत्र में हमारी यह दुर्दशा हो रही है। भारत जैसे कृषि प्रधान देश में तो गौ की आवश्यकता सर्वाधिक होनी चाहिए।
प्रत्येक बालक का आरोग्य केवल आरोग्य ही नहीं प्रत्युत बुद्धि उसके द्वारा पिये हुए दूध के परिमाण और प्रकार पर अधिक अवलम्बित है। भारतवर्ष के ऐसे करोड़ों बच्चों के शारीरिक विकास का आधार और बौद्धिक विकास का साधन गौ है। गाय के दूध में वह सारे तत्व पायें जाते हैं जिनसे उसका शारीरिक तथा मानसिक स्वास्थ्य तेजी से विकसित होता है। पहले बच्चों को गाय का ताजा दूध पिलाने की प्रथा थी इससे बाल-स्वास्थ्य का निर्माण बड़ी तेजी से होता था और वे प्रौढ़ होने पर छोटी मोटी बीमारियों के आघातों को चुटकी बजाकर झेल लेते थे, किन्तु अब वह क्षमता कहीं दिखाई नहीं देती। बालकों को गाय के दूध की पर्याप्त मात्रा न मिल पाने के कारण उन्हें छोटी अवस्था से ही रोग घेरे रहते हैं। बालकों के शारीरिक विकास के लिये गाय का दूध अन्य दूधों की अपेक्षा अधिक लाभदायक होता है। उसे बच्चा आसानी से पचा लेता है। दूसरे दूध या तो उसे पचते नहीं या उनमें पर्याप्त जीवनी-शक्ति नहीं होती। कीटाणु नाशक होने के कारण गो-दुग्ध का महत्व बालक, युवा, वृद्ध, स्वस्थ व रोगी सभी के लिये समान रूप से लाभदायक होता है।
सहायक-धन्धे के रूप में भी गौ-पालन अत्यन्त हितकर है। आम के आम गुठलियों के दाम वाली कहावत गायें चरितार्थ करती हैं। इनसे प्राप्त दूध का घी बेचकर छाछ, मट्ठा घरेलू उपयोग में लिया जा सकता है। गोबर की खाद से खेतों की उर्वराशक्ति बढ़ाई जा सकती है। जिस परिवार में चार-छः गायें होंगी वह घर कभी अभावग्रस्त नहीं रह सकता। ग्रामीण क्षेत्रों में गौ-पालन प्रमुख धन्धा भी हो सकता है।
किन्तु अब इस क्षेत्र में उपेक्षा बरते जाने से गायों की संख्या तेजी से कम होती जा रही है। उधर गौ-हत्या की मात्रा इतनी तेजी से बढ़ रही है कि सारा गौ-वंश ही नष्ट होता हुआ दिखाई दे रहा है। हिन्दुस्तान के लिये यह कलंक की बात है। हम यदि गौओं के विकास और पालन-पोषण को उचित महत्व दें तो उससे हमारे आर्थिक विकास में लाभदायक सहायता मिलती है। ऐसा न करें और गौ-धन को उसके स्वाभाविक रूप में भी बढ़ने दें तो भी लाभ ही है किन्तु गायों के वध की मात्रा बढ़ जाने से यह समस्या विचारणीय बन गई है। उसे रोकने का प्रयत्न न किया गया तो यह धन सर्वनाश की सीमा तक जा पहुँचेगा और उससे भारतीय जीवन की पवित्रता नष्ट होगी।
वेद में गौवध को एक महान् पाप बताया गया है और कहा भी है :—
यदि नो गाँ हंसि यद्यश्वं यदि पूरुषम्।
तं त्वा सीसेन विध्यामो यथा नोऽसो अवीरहा॥
—अथर्व वेद 1। 16। 4
“ऐ अभिमानी! तू हमारी गौओं की हत्या करता है इसलिये हम तुझे सीसे की गोली से बींध देंगे, जिससे तू हमारे वीरों का वध न कर सके।”
“किताब मस्तरक” में लिखा है-”तुम पर लाजिम है गाय का दूध और घी। खबरदार! उसके गोश्त से। उसका दूध शिफा है घी दवा है और गोश्त बीमारी है।”
किन्तु इन धार्मिक निर्देशों और महापुरुषों के उपदेशों के बावजूद भी गो-वध की संख्या इतनी तेजी से बढ़ रही है कि उससे सारे हिन्दू समाज के संस्कारों पर कुठाराघात हो रहा है। सरकारी रिपोर्टों के आधार पर सन् 1952-53 में 46,08,173 गायों की खाल बाहर भेजी गई। बछड़ों की खाल इससे अलग थीं। इससे पूर्व 1945-46 में बछड़ों की 172000 खाल बाहर भेजी गई जब कि 1952-53 में 2007951 खाल भेजी गई थीं। इससे गौ-वध की उत्तरोत्तर वृद्धि का अनुमान सहज में ही हो जाता है। लाला हरदेव सहायजी के कथनानुसार देश में वध किये गये गोवंश की खालों का कम से कम दाम अनुमानतः 1500000 रु . होता है।
बूढ़ी और बेकाम गायों को भी कसाइयों को सौंप देना मानवता की दृष्टि से घोर अपराध है। जिन्होंने दूध पिलाया, खाद दी, बछड़े दिये उनको अपनी मौत मरने तक आवश्यक चारा-पानी और चिकित्सा की व्यवस्था करना प्रत्येक का कर्तव्य होना चाहिए।
दैनिक आहार में गाय के दूध, घी, मट्ठे आदि का अधिक से अधिक उपयोग होना चाहिए। इससे हमारे शरीर पुष्ट होंगे और शुभ संस्कारों की भी वृद्धि होगी।
गो रक्षा और गौ-संवर्द्धन धार्मिक दृष्टि से प्रत्येक हिन्दू का प्रमुख धर्म कर्तव्य है। हमारे समाज में पूर्वकाल से गौ का स्थान जननी माता के तुल्य माना गया है। गाय को कामधेनु और सुरभि की पदवी प्राप्त है। केवल साँसारिक दृष्टि से देखें तो भी गौवंश की उन्नति इस देश के लिये बहुत आवश्यक है।