गाथा इस देश की, गाई विदेशियों ने

August 1965

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भारतवर्ष की शक्ति और समृद्धि, ज्ञान और गुरुत्व विश्व-विख्यात है। प्राचीनकाल की श्रेष्ठतम उपलब्धियों से भरपूर साहित्य और इतिहास हमें प्रतिक्षण उस गौरवपूर्ण अतीत की याद दिलाता है। पूर्वजों की आत्माओं का प्रकाश अब भी इस देश के कण-कण को जागृति का सन्देश दे रहा है। वह बात हर एक नागरिक के हृदय में समाई हुई है, वह आत्माभिमान अभी तक मरा नहीं। किन्तु काल के दूषित प्रभाव के कारण आज आर्य-जाति सब तरह से दीन-हीन बन चुकी है। अब उसका कदम केवल विनाश की ओर ही बढ़ रहा है। जानते हुये भी हम अपनी पूर्व प्रतिष्ठा को भुलाये बैठे हैं। हमारी गाथायें विदेशों में बिक गईं। हमारे ज्ञान की एक छोटी-सी किरण पाकर पाश्चात्य देश अभिमान से सिर उठाये खड़े हैं और हम अपने पूर्वजों की शान को भी मिट्टी में मिलाने को तैयार है।

कठोर बनने का कोई उद्देश्य नहीं है। कटु बात कहकर अपनी ही आत्मा के कणों का जी दुखाना नहीं चाहते किन्तु जो दुर्गति हमारी संस्कृति की इन दिनों हो रही है उसे देखकर हृदय में सौ-सौ बरछों का-सा प्रहार लग रहा है। आत्मा की इस आवाज को कोई धर्माभिमानी, राष्ट्र-हितैषी तथा जाति के गौरव के लिये प्राण अर्पण करने वाला ही समझ सकता है।

आर्य संस्कृति का या हिन्दू धर्म का नाम उल्लेखन करने में साम्प्रदायिक संकीर्णता का भाव नहीं आना चाहिये। हमारी संस्कृति दिव्य-संस्कृति है। उसमें प्राणिमात्र के हित की व्यवस्था है। यह उद्बोधन केवल इसलिये है कि उस चिर-सत्य का प्रादुर्भाव केवल इसी भूमि में हुआ है इसी से हम उसे एक विशेष सम्बोधन से विभूषित करते हैं अन्यथा हिन्दू-धर्म का क्षेत्र सम्पूर्ण विश्व है। काउन्ट जोन्स जेनी ने इस बात को स्पष्ट करते हुये बताया है—”भारतवर्ष केवल हिन्दू धर्म का ही घर नहीं है वरन् वह संसार की सभ्यता का आदि भंडार है।”

“संसार में भारतवर्ष के प्रति लोगों का प्रेम और आदर उसकी बौद्धिक, नैतिक और आध्यात्मिक सम्पत्ति के कारण है।” यह शब्द प्रो॰ लुई रिनाड ने व्यक्त किये हैं। इन शब्दों से भी यही तथ्य प्रकाशित होता है कि भारत समग्र विश्व का है और सम्पूर्ण वसुन्धरा इसके प्रेमपाश में आबद्ध है। अनादि काल से धर्म की, संस्कृति और मानवता की ज्योति यह विकीर्ण कर रहा है। धरती की अनुपम कृति यह देश भला किसे प्यारा न होगा। भारतवर्ष ने जो आध्यात्मिक विचार इस संसार में प्रसारित किये हैं वे युग युगान्तरों तक अक्षुण्ण रहने वाले हैं। उनसे अनेक सुषुप्त आत्माओं को अनन्त काल तक प्रकाश मिलता रहेगा। भारतीय संस्कृति के प्रवाह का उद्गम वे चिन्तन, शाश्वत और सनातन सत्य रहे हैं जिनकी अनुभूति ऋषियों ने प्रबल तपश्चर्याओं के द्वारा अर्जित की थी, वह प्रभाव धूमिल भले ही हो गया हो किन्तु अभी तक भी लुप्त नहीं हुआ है।

धार्मिक, आध्यात्मिक एवं नैतिक क्षेत्र में ही हम सर्वसम्पन्न नहीं रहे वरन् कोई भी क्षेत्र ऐसा नहीं छूटा जहाँ हमारी पहुँच न रही हो। आध्यात्मिक तत्व ज्ञान के अतिरिक्त सामाजिक, व्यावहारिक तथा अन्य विद्याओं के ज्ञान विज्ञान में भी हम अग्रणी रहे हैं। अपनी एक शोध में डॉ. थीवो ने लिखा है कि “संसार, रेखागणित के लिये भारत का ऋणी है यूनान का नहीं।” प्रसिद्ध इतिहासज्ञ प्रो. बेवर का कथन है—”अरब में ज्योतिष विद्या का विज्ञान भारतवर्ष से हुआ।” कोलब्रुक ने बताया है कि “कोई अन्य देश नहीं, चीन और अरब को अंकगणित का पाठ पढ़ाने वाला देश भारतवर्ष ही है।”

यूनान के प्राचीन इतिहास का दावा है कि “भारत के निवासी यूनान में आकर बसे। वे बड़े बुद्धिमान, विद्वान और कला-कुशल थे। उन्होंने विद्या और वैद्यक का खूब प्रचार किया। यहाँ के निवासियों को सभ्य और विश्वासपात्र बनाया।” निःसन्देह इतना सारा ज्ञान अगाध श्रम शोध और लगन के द्वारा पैदा किया गया होगा। तब के पुरुष आलस्य, अरुचि, आसक्ति , अहंकार आदि से दूर रहे होंगे तभी तो वह तन्मयता बन पाई होगी जिसके बूते पर इतनी सारी खोज की जा सकी होगी। दुर्भाग्य की बात है कि आज वही भारतवर्ष विदेशियों के अनुकरण को ही अपनी शान समझता है। इस कार्य में जो जितना अधिक निपुण है उसे उतनी ही सामाजिक प्रतिष्ठा मिलती है।

विश्व के विविध विषयों के जब आँकड़े प्रस्तुत किये जाते हैं तो यह देखकर तीव्र वेदना होती है कि उनमें भारतवर्ष पिछड़ी श्रेणी में आता है। शिक्षा के क्षेत्र में हम सबसे कमजोर, भारतीयों की औसत आय संसार में सबसे कम, आरोग्य के नाम पर सबसे दुःखी, दुर्बल और रोगग्रस्त; आहार में सबसे कम कैलोरी वाला, निर्धनता में सबसे पहले दर्जे का। अवनति की कोई हद नहीं। कोई क्षेत्र नहीं छूटा जहाँ मात न खाई हो। क्या वह समृद्धि हम फिर से देख सकेंगे जिसका वर्णन प्रसिद्ध यूनानी विद्वान एरियन ने इस तरह किया है-

“जो लोग भारत से आकर यहाँ बसे थे वे कैसे थे? वे देवताओं के वंशज थे, उनके पास विपुल सोना था। वे रेशम के कामदार ऊनी दुशाले ओढ़ते थे। हाथी दाँत की वस्तुयें व्यवहार में लाते थे और बहुमूल्य रत्नों के हार पहनते थे।”

जो विध्वंसक विज्ञान और एटमी हथियार इन दिनों बन रहे हैं उनसे भी बड़ी शक्ति वाले आयुध यहाँ वैदिक युग में प्रयुक्त हुये हैं। सरस्वती की उपासना के साथ साथ शक्ति की भी समवेत उपासना इस देश में हुई है। अथर्ववेद में अनेक स्थानों पर जो “अशनि” शब्द का प्रयोग हुआ है उसका अर्थ आजकल की भीमकाय तोपों जैसा ही है। प्रोफेसर विल्सन का कथन है—”गोलों का आविष्कार सबसे पहले भारत में हुआ था। यूरोप के संपर्क में आने के बहुत समय पहले उनका प्रयोग भारत में होता था।”

कर्नल रशब्रुक विलियम ने एक स्थान पर लिखा है—

“शीशे की गोलियाँ और बन्दूकों के प्रयोग का हाल विस्तार से यजुर्वेद में मिलता है। भारतवर्ष में तोपों और बन्दूकों का प्रयोग वैदिक काल से ही होता था।”

डफ महोदय लिखते हैं—”भारतीय विज्ञान इतना विस्तृत है कि यूरोपीय विज्ञान के सब अंग वहाँ मिलते हैं।”

कहाँ तक गिनायें, ऐसे आख्यानों से यूरोप का इतिहास भरा पड़ा है। फ्रेडरिक शेलिग, प्रो॰ मैक्समूलर, रोम्या रोलाँ, एम लुई जिकोलिएट, विक्टर कोसिन आदि अनेक विद्वानों तथा दार्शनिकों ने मुक्त कंठ से भारतीय गरिमा की प्रशंसा की है। जो भी इस संस्कृति के प्रभाव में आया उसी का मन इसे देख कर मोह गया। भारतीयों की सहृदयता, धर्म, श्रद्धा और ईश्वर विश्वास के आगे संसार नत-मस्तक हो जाता है।

वह ज्ञान, वह गौरव, विज्ञान, कला समृद्धि और संस्कृति सबका सब इस देश के गर्भ में अभी भी विद्यमान है। वह खोजें दृढ़ हैं, निरर्थक या लोप नहीं हुईं। उन विद्याओं का अस्तित्व अब भी विद्यमान है और यह प्रतीक्षा किया करता है कि कोई आये और हमारे अनन्त भंडार में से जितना मन चाहे, बटोर ले जाय। किन्तु कहाँ है वह साहस? उस तन्मयता को क्या हो गया? कहाँ है वे कर्मवीर जो राष्ट्र के गौरव को फिर से ऊँचा उठा सकें।

हमने एक परिभाषा सीख ली है-”पतन की परिभाषा।” नशे में झूमते हुये व्यक्ति को जैसे खुद का भी होश-हवास नहीं रहता ठीक उसी तरह हो गये हैं हम! हमारी रगों में विदेशीपन का, बनावट का नशा छा गया है। अपने साँस्कृतिक गौरव को भूल चुके हैं। तभी दिनों-दिन हमारी दुर्गति बढ़ती जा रही है। बेकारी रह नहीं सकती। भ्रष्टाचार टिक नहीं सकता, व्यभिचार पनप नहीं सकता, अत्याचार अधिक दिन तक सर उठाये खड़ा नहीं रह सकता, पर हमारा आत्माभिमान तो जागे। हम जिस दिन अपने गौरव को समझ पायेंगे उस दिन हमारी अवस्था ही भिन्न होगी। सर्वत्र हास-परिहास होगा। ज्ञान की गंगा यहाँ बह रही होगी। समृद्धि का कुबेर अपना खजाना लुटा रहा होगा। सब कुछ होगा पर हमारी आध्यात्मिक वृत्तियाँ भी तो जागें। यदि इतना साहस हम में पैदा हो जाय तो युग को बदलते देर न लगेगी। वह स्वर्णिम विहान विहँसता हुआ चला आयेगा। आइये! अब उसी धर्म और संस्कृति के अवगाहन के लिए तैयार हों।


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