सेवा ही सच्ची भगवद्भक्ति है।

August 1965

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विद्वानों ने जन सेवा तथा परोपकार को जो भगवद्भक्ति कहा है वह ठीक ही है। जिस मनुष्य के हृदय में जन जन के लिये प्रेम का प्रवाह बह रहा होगा वही जन सेवा में प्रवृत्त होगा। उसके हृदय में निवास करने वाला यह प्रेम ही परमात्मा रूप है। जन-सेवा के माध्यम से मनुष्य इसी हृदयस्थ प्रेम को परितृप्त करता है, और इस प्रकार वह परमात्मा को ही भक्ति करता है।

इसके अतिरिक्त जन-जन परमात्मा-रूप है। संसार में मात्र मनुष्य ही क्या सारे जड़ चेतन उसी एक का रूप हैं। किसी की सेवा करने वाला व्यक्ति वास्तव में हाड़ माँस से बने किसी के शरीर की सेवा नहीं करता बल्कि देह के माध्यम से उसकी उस आत्मा को ही परितृप्त करता है जो परमात्मा का प्रतिनिधि स्वरूप है। अपने प्रेम और दूसरे की आत्मा को तुष्ट करके मनुष्य एक से परमात्मा की दुहरी उपासना ही करता है, दुहरा पुण्य प्राप्त करता है।

सेवा करने का अपना महत्व है किन्तु सेवा के स्वरूप का भी महत्व कम नहीं है। कौन सेवा, जनता जनार्दन के माध्यम से, परमात्मा की वास्तविक सेवा है और कौन सी नहीं? वह सेवा जिसमें मनुष्य का कोई स्वार्थ निहित होता है, चाहे वह स्वार्थ स्थूल हो अथवा सूक्ष्म, प्रत्यक्ष हो अथवा परोक्ष, सेवा की उस कोटि में नहीं आती जिसे भगवद्भक्ति कहा जाता है।

यदि प्रत्येक सेवा को भगवद्भक्ति की संज्ञा दी जाती है तो स्वामी सेवा, सरकारी सेवा, भय लोभ अथवा दबाव जन्य सारी सेवायें भगवद्भक्ति ही मानी जायेंगी। किन्तु ऐसा नहीं है। एक मात्र निःस्वार्थ, निष्कपट और अहेतुकी सेवा ही भगवद्भक्ति की कोटि की मानी जायेगी।

बहुत सी ऐसी सेवायें भी हो सकती हैं जो उपर्युक्त विचारों से मुक्त होने पर भी भगवद्भक्ति की कोटि में नहीं आतीं। जैसे किसी की सेवा करते समय विषमता का भाव होना, घृणा अथवा जुगुप्सा की गंध होना, अपने को अपदस्थ अथवा तुच्छ समझना। सेवा कर्म पर यह कतिपय आरोपण भी सेवा-सत्कर्म को उसकी पुण्यवती स्थिति से भिन्न कर देते हैं। सेवा कर्म में निःस्वार्थता ही नहीं निर्मोहता की भी आवश्यकता है। सेवा का यह शाश्वत स्वरूप है,जो त्रिकाल में अपनी महान पुण्य-पदवी पर प्रतिष्ठित रहता है।

इसी क्षेत्र में सेवा की विविध श्रेणियाँ हैं। प्रथम, द्वितीय एवं तृतीय। प्रथम श्रेणी की सेवा वह है जिससे किसी को स्थायी सुख लाभ हो। द्वितीय श्रेणी की सेवा वह है जिससे किसी का दीर्घजीवी दुख दूर हो और तृतीय श्रेणी की सेवा वह है जिससे किसी की सामयिक आवश्यकता अथवा आपत्ति दूर हो।

इन श्रेणियों में ज्ञान दान की सेवा प्रथम श्रेणी की है, क्योंकि ज्ञानालोकित किया हुआ मनुष्य संसार के समस्त दुःखों से छूट जाता है। न उसे शारीरिक कष्ट सताता है, न मानसिक और न आर्थिक। वह सारे कष्ट क्लेशों से एक साथ ही मुक्त होकर चिदानन्दमय हो जाता है। ऐसी ज्ञान मूलक सर्वांगीण सेवा का श्रेय उन ऋषि, मुनियों और संत महात्माओं को सबसे अधिक प्राप्त हुआ, जिन्होंने अज्ञानान्धकार में भटकती हुई मानवता को प्रकाश का पथ दिखाया। इन महात्माओं में वे संत और भी शाश्वत श्रेय और चिरन्तन पुण्य के अधिकारी हुए जिन्होंने मानवता को सही रास्ता दिखलाने में अपने प्राणों का उत्सर्ग कर दिया और मनुष्यों द्वारा मारे जाते समय भी उन्हीं के कल्याण की कामना की और आशीर्वाद दिया।

ज्ञान दान में भी मनुष्य को परमात्मा की ओर अधिकाधिक उन्मुख करना ही श्रेयस्कर सेवा है। जो व्यक्ति जितने व्यक्तियों को उस प्रभु की ओर अग्रसर करता है वह मानो उतनी ही संख्या में उतने ही रूपों में एक साथ परमात्मा की सेवा करता है। परमात्मा की ओर उन्मुख व्यक्ति अपने इस कर्तव्य का जो पुण्य पाते हैं वह तो पाते ही हैं, इसके अतिरिक्त प्रेरणा देने वाला प्रेरितों की संख्या के अनुसार ही एक अकेले ही उतने पुण्य फलों का भागी बनता है। अस्तु, परमात्मा की ओर ले जाने वाला ज्ञान दान करना सर्वोपरि सेवा है, सर्व श्रेष्ठ भगवद्भक्ति है।

द्वितीय श्रेणी की सेवा के अंतर्गत वे सेवायें आती है जिनसे किसी का दीर्घजीवी दुःख दूर हो। सहानुभूति तथा सहृदयता द्वारा किसी का शोक हरना, किसी निराश को उत्साहित करना, किसी की बिगड़ती हुई स्थिति सँभालने में सहायता करना, किसी निरपराध की रक्षा करना, किन्हीं दो की शत्रुता मिटाना और वैमनस्य दूर करना तथा किन्हीं अनाथ अथवा निराश्रितों को आश्रय देना आदि-इस प्रकार की सेवाओं से एक दीर्घकाल तक कष्ट पाने वाला जीवन भी प्रकाश की किरण पा लेगा, जिससे उसकी आत्मा आजीवन उपकारी को शुभाशीष देती रहेगी।

इस प्रकार की सेवाओं में जहाँ वैयक्तिक हित होता है वहाँ एक प्रकार से समाज का भी हित साधन होता है। सहायता, सौहार्द एवं सहानुभूति के आधार पर जिन व्यक्तियों का दुःख दूर किया जायेगा उनमें मानवता पूर्ण सामाजिकता की चेतना आयेगी वे परस्पर सहायता एवं सहयोग आदि मानवीय गुणों का महत्व समझेंगे, जिससे उनका मानसिक विकास होगा और वे दूसरों की सेवा में भी प्रवृत्त होंगे! इस प्रकार अच्छे नागरिकों की वृद्धि से सामाजिक वातावरण में एकात्मकता का सन्निवेश होगा!

किसी को अन्धकार से निकाल कर जीवन के प्रकाश पथ पर लाना हृदय में सहृदयता तथा सहानुभूति के भाव पैदा करना भी भगवद्भक्ति ही हैं। अपने अथवा किसी दूसरे में सद्गुण उत्पन्न करना भी एक आध्यात्मिक कार्य है। सद्गुण उत्पन्न करना भी एक प्रकार से परमात्मा की ओर ही उन्मुख होना है।

ऐसी सेवाओं को द्वितीय श्रेणी में इसलिये लेना होगा कि जीवन प्रकाश पाकर लोग साँसारिकता तक ही सीमित रह सकते हैं। सम्भव है कि उनका दृष्टिकोण विशुद्ध आध्यात्मिक और पारमार्थिक न हो!

आवश्यकता आ पड़ने पर किसी की आर्थिक सहायता करना, किसी रोगी के उपचार का प्रबंध कर देना, किसी विद्यार्थी की फीस दे देना, किसी को छोटा मोटा काम करा देना, स्मारक रूप में विद्यालय, धर्मशाला, गौशाला, अनाथालय आदि बनवा देना तृतीय श्रेणी को सेवायें हैं। इस प्रकार से किसी की सामाजिक आवश्यकता तो पूर्ण हो सकती है, तात्कालिक असुविधा दूर हो सकती है, किन्तु कोई स्थायी आत्मिक अथवा मानसिक विकास नहीं होता।

इस प्रकार की सेवाओं की पृष्ठभूमि में किसी सक्षम व्यक्ति की उदारता, दया अथवा सहानुभूति रह सकती है, किन्तु वह भी स्थायी नहीं आकस्मिक अथवा तात्कालिक! संस्थाओं अथवा सुविधा व आश्रय भवनों के निर्माण में तो बहुधा लोगों की दिखाने की वृत्ति, लोकेषणा अथवा अहंकार का भाव ही रहता है!

यद्यपि इस प्रकार की भावना के साथ कोई भी सेवा बहुत सराहनीय अथवा श्रेयस्कर नहीं है तथापि सामाजिक दृष्टि से इनका भी अपना महत्व है! अनुकरण करके अन्य लोग भी इस प्रकार के कार्य करने के लिये उत्साहित हो सकते हैं। सुविधा पाने वाले व्यक्तियों को समाज के प्रति आस्था एवं श्रद्धा हो सकती है। शिक्षा-संस्थाओं द्वारा विद्या का प्रचार होता है और विद्यार्थियों में से किसी भी अच्छे और ऊँचे महात्मा के निकल आने की सम्भावना रह सकती है! विशुद्ध भगवद्भक्ति न होने पर भी इस प्रकार की सामाजिक एवं सार्वजनिक सेवाओं का भी अपना मूल्य और महत्व है! सम्भव है इनसे लोग आध्यात्मिकता की ओर अधिक न बढ़ें किन्तु सामाजिकता की ओर बढ़ने की प्रेरणा तो पा ही सकते हैं।

सभी प्रकार की सेवाओं का महत्व तथा आवश्यकता है। प्रत्येक व्यक्ति को अपने क्षेत्र, अपनी सीमा तथा क्षमता के अनुसार कुछ न कुछ सेवा कार्य अवश्य करना चाहिये। सेवा के हजारों प्रकार हो सकते हैं। यह प्रत्येक कार्य सेवा ही है जिससे प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष किसी भी रूप में संसार का दुख दर्द दूर हो और हितकारी परिस्थितियाँ उत्पन्न हों। यदि व्यापक दृष्टि से विचार किया जावे तो संसार में क्या समर्थ और क्या असमर्थ, सभी को एक दूसरे की सेवा की आवश्यकता है। संसार में जो कुछ भी व्यापार व व्यवहार हो रहा है वह सब एक दूसरे की सहायता से चल रहा है! सेवा का एक अर्थ पारस्परिकता भी हो सकता है! यदि नित्य प्रति के सामान्य व्यापार तथा व्यवहार से स्वार्थ, संकोच छल कपट निकाल दिया जाये तो यह माना जायेगा कि संसार का प्रत्येक व्यक्ति मानवता की निष्काम सेवा ही करता है।


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