मनुष्य जीवन की सम्पूर्ण गतिविधियों का परिचालन मन द्वारा होता है। सूक्ष्म और अदृश्य रूप में मस्तिष्क से जैसे विचार उत्पन्न होते हैं वैसी ही जीवन में क्रियाशीलता आती है। कर्मों के फल भी वैसे ही होते हैं। जीवन के विभिन्न पहलुओं के साथ स्वास्थ्य भी इसी प्रभाव क्षेत्र में आता है। यह कहना कोई अत्युक्ति नहीं वरन् पूर्ण सत्य है कि मनुष्य का आरोग्य उसकी मनोदशा पर निर्भर करता है। मन की विकृति और कुरूपता ही बुरे स्वास्थ्य के रूप में परिलक्षित होती है उसी प्रकार मन का स्वस्थ होना शारीरिक पुष्टता का प्रमाण है।
एक अँग्रेजी कहावत के अनुसार “तन्दुरुस्त शरीर में तन्दुरुस्त मन” वाले व्यक्ति को ही नीरोग माना जाना चाहिये। शरीर अस्वस्थ हो पर यदि मन को अस्वस्थ, निराश और उद्विग्न न होने दिया जाय तो उस दुर्बलता के लक्षण चिरस्थाई न होंगे। उसे दूर भागना पड़ेगा। हीनता और निराशा की भावनायें कुछ काल तक मन एवं विचारों में परिपोषित रहने के कारण रोग की भावना ग्रन्थि का रूप धारण कर लेती है। साधारण बीमारी हलके उपचार से ठीक हो सकती है किन्तु इस ग्रन्थि चेतना का उपचार अलभ्य है। वह कठिनाई से दूर होती है। मन की निराशा एक संक्रामक रोग है, इसे दूर करने के लिये आत्म-अपमान की भावनायें मन से निकाल कर सदैव उत्साही, आशावादी एवं क्रियाशील बने रहना चाहिए। अशुभ भावनायें मन से निकल जाती हैं तो शरीर उसके दूषित प्रकोप से बच जाता है। आध्यात्मिक दृष्टिकोण वाले के लिए हर स्थिति में सुख और आनन्द है अतः खिन्नता की स्थिति को त्याग कर, कायरता और घबराहट को हटाकर, सदैव शुभ संकल्पों और रचनात्मक योजनाओं में लगे रहना चाहिए।
शारीरिक स्वास्थ का मूल मन है इस बात को भूलना नहीं चाहिए। अनेक रोग केवल मानसिक विकारों के कारण उत्पन्न होते हैं अतः उत्तम स्वास्थ्य के लिए मानसिक रूप से भी स्वस्थ होना अति आवश्यक है। सद्विचार ही उत्तम जीवन का निर्माण करते हैं अतः प्रयत्न यह हो कि बुरे विचार, बुरी भावनायें, चिन्ता, हीनता आदि दूर रहें और यदि इनका प्रहार होता है तो उनका संशोधन बराबर किया जाता रहना चाहिए।
यह देखना चाहिए कि आपके जीवन में कोई मानसिक कष्ट तो नहीं है। किसी रोजगार में घाटा हुआ हो, नौकरी न लग रही हो, विवाह की समस्या हो, परीक्षा में असफल रहे हों, इंटरव्यू सफल न हुआ हो, दाम्पत्य जीवन में मनोमालिन्य हो—ऐसा कोई कारण हो सकता है जिससे आपका मन पीड़ित हो। स्वास्थ्य की खराबी का शत-प्रतिशत कारण इस तरह की मानसिक वेदना होती है। यदि इस तरह की किसी खास पीड़ा से स्वतन्त्र न हुआ जाय तो उसका शारीरिक स्थिति पर दबाव पड़ता है और स्वास्थ्य खराब हो जाता है। प्रयत्न कीजिए कि आपकी यह परेशानी दूर हो जाय, कुछ हद तक परिस्थिति के साथ समझौता हो जाय तो भी बुरा नहीं पर आप इसी उलझन में ही न पड़े रहिये। अभाव दूर न हो तो उसकी कल्पना ही छोड़ दीजिये। संसार में अनेकों निर्धन, बेकारीग्रस्त, अनुत्तीर्ण, असफल व्यक्ति हैं फिर भी वे सब जी रहे है फिर आपको क्या इतनी भी गुँजाइश नहीं कि आप भी कुछ थोड़े से अभाव को सहन कर जायँ। हर स्थिति में प्रसन्न रहने का ‘फार्मूला’ अपना लें तो आपको यह कष्टकारी परिस्थितियाँ बेकार-सी प्रतीत होंगी और आप उस जटिलता से बच जायेंगे जिसके कारण आपके स्वास्थ्य पर उस दुश्चिन्ता का खराब असर पड़ने वाला था। आपको मानसिक विकारों से हर घड़ी स्वतन्त्र रहना चाहिए।
यदि आप विनोदप्रिय हैं, और व्यक्तिगत जीवन में उसे एक वरदान की तरह प्रयोग किये हुये हैं तो आप अपने को स्वास्थ्य की दृष्टि से अधिक सकुशल अनुभव करेंगे। विनोद प्रसन्नता प्रदान करता है जिससे स्नायु-संस्थान सशक्त बना रहता है। जी खोल कर हँस लेने वाले लोगों को आमाशय तथा यकृत आदि के रोग नहीं होते। हृदय मजबूत और शेष शरीर भी नीरोग रहता है। कई परिस्थितियों, चिन्ता व निराशा के क्षणों में शरीर पर पड़ने वाले बोझ को विनोद प्रियता हलका और सहनशील बना देती है। अपनी असफलताओं पर ही सदैव चिन्तन करते रहना रोग का प्रमुख कारण है इससे मन की शक्ति अकारण खर्च होती है जिससे शेष शरीर की शक्ति खिंचकर मानसिक चिन्ता में खर्च होने लगती है।
अकेलापन भी मनुष्य को कम कष्ट नहीं देता। विशेषकर जब कोई विपत्ति आती है उस समय तो अकेला रहने में मनुष्य की उदासी तथा खीझ और भी अधिक बढ़ जाया करती है। कोई बात एक ही मनुष्य के मन में अधिक दिनों तक पड़ी रहे तो इस दबाव के कारण स्वास्थ्य में अधिकाँश खराबी उत्पन्न हो जाती है। कष्ट भी सुखों की भाँति बाँटने से निबट जाते हैं। अपने मित्रों, सुहृद परिजनों तथा धर्मपत्नी से समय-समय पर समस्याओं के सुलझाव में सहायता लेते रहने से उतना कष्टकर दबाव नहीं पड़ता जिससे शरीर में हैरानी पैदा हो जाय। दूसरों की सहानुभूति तथा सहयोग मिल जाने से आत्मिक प्रसन्नता होती है, साहस जागता है तथा मनोविकार दूर होते हैं। चित्त की प्रफुल्लता बढ़ने से स्वास्थ्य में सजीवता आती है इसलिये आरोग्य का एक सबसे अच्छा उपचार यह भी है कि अपने दुःख बाँट दिये जाया करें। उनमें अपने मित्रों, परिजनों को सहयोगी बना लिया जाना चाहिये।
किसी की उन्नति देखकर ईर्ष्यालु भावना उत्पन्न नहीं करनी चाहिए। ईर्ष्या मन की प्रबल शत्रु है यह उसमें संशय उत्पन्न करती है और कमजोर बना डालती है। सही सोचने और उचित व्यवहार करने की क्षमता ईर्ष्यालु व्यक्ति में नहीं होती। वे केवल हीन, आत्मघाती विचारों में ही लगे रहते हैं और शारीरिक शक्ति का महत्वपूर्ण अंश व्यर्थ की योजनाओं में बर्बाद करते रहते हैं। इससे बात-बात पर चिढ़ जाना, तुनकमिज़ाजी, सिर में चक्कर आना, विचारों का ठीक काम न करना आदि अनेकों उपद्रव उठ खड़े होते हैं और शारीरिक दृष्टि से मनुष्य का बड़ा अहित हो जाता है। दूसरों की उन्नति देख कर प्रसन्न होना चाहिये। सब के साथ आत्मीयता पूर्ण सम्बन्धों का निर्वाह करने में सुख का अनुभव होना चाहिये।
अपने सुख की तरह औरों के सुखों का भी ध्यान रखिये। सर्वथा अनहोनी बातों पर ही विचार करते रहना अच्छा नहीं होता। मन व्यर्थ के प्रलापों में न फँसा रहे और वह अशुभ चिन्तन में ही न लगा रहे इसका सर्वोच्च उपाय यह है कि उसे हर घड़ी कार्य व्यस्त रखा जाय। आलस्य एक बहुत बड़ा अपराध है जिससे शरीर की स्थूल और सूक्ष्म, बाह्य और आन्तरिक सभी प्रकार की शक्तियों का तेजी से पतन होता है खुराफात की बातें प्रायः आलसी प्रकृति वालों को ही सूझती हैं। जिनके पास कोई काम न होगा उन्हीं के मस्तिष्क में कूड़ा-कचरा भर रहा होगा और वे अपने आपको उतना ही परेशान अनुभव कर रहे होंगे।
विचार और चिन्तन की विकृति से जिस तरह मनोभूमि अस्वच्छ और दूषित होती है उसी तरह आहार-विहार में असंयम से भी मन दुष्प्रवृत्तियों की ओर आकर्षित होता है इस बात को ध्यान में रखकर ही हिन्दू धर्म में अनेक निषेध एवं निर्देश लगाये गये हैं। नशीली वस्तुओं के प्रयोग, माँस, मदिरा आदि अभक्ष्य, मादक, तीखे, चटपटे खाद्यों पर प्रतिबन्ध लगाने का यही तात्पर्य रहा है कि इस तरह मनुष्य का मन स्वस्थ रहे, शरीर स्वस्थ रहे। नित्य शारीरिक व्यायाम आदि की आवश्यकता भी इसी उद्देश्य की पूर्ति के लिये है। स्वास्थ्य रक्षा के यह दोनों ही पहलू आवश्यक हैं इनमें से कोई एक भी उपेक्षणीय नहीं है।
उत्तम स्वास्थ्य आध्यात्मिक जीवन की मूल आवश्यकता है उसे प्राप्त करने के लिये प्रत्येक व्यक्ति को प्रयत्नशील होना चाहिये। आहार, व्यायाम, विश्राम आदि स्वास्थ्य की स्थिरता के लिये उपयोगी हैं किन्तु आत्म-विकास, दीर्घ-जीवन, आत्म-विश्वास तथा आनन्द प्राप्ति के लिये उससे भी अधिक आवश्यक मानसिक रोगों से मुक्त होना है। मन का स्वास्थ्य ही शरीर का स्वास्थ्य है। मन स्वस्थ है तो शरीर अपने आप स्वस्थ बना रहेगा।