मन के हारे हार है, मन के जीते जीत

August 1965

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साँसारिक सुख-सुविधाओं की प्राप्ति और उनके उपभोग की दृष्टि से शारीरिक बल का महत्व निर्विवाद है। रोगी और दुर्बल शरीर वालों को धरती के सुख के सारे उपहार बेकार हैं, उनसे उसकी परेशानियाँ ही बढ़ती हैं, झंझट ही उत्पन्न होते हैं। कहा भी है—”सर्व सुखी निरोग काया” रोग रहित सशक्त शरीर सब सुखों का मूल है।

किन्तु मन का बल शरीर के बल से भी बड़ा है। इसके अभाव में शारीरिक बल भी किसी काम का नहीं होता। देखा गया है कि उत्तम स्वास्थ्य वाले व्यक्तियों को भी जब कोई मानसिक आघात लगता है तो वे अपनी स्थिति सम्हाल नहीं पाते और अपने सामान्य जीवन-क्रम से गिरकर स्वयं ही अपनी दशा दयनीय बना डालते हैं। एक व्यक्ति बड़ा धनी था। उसका स्वास्थ्य भी बड़ा अच्छा था। उन्होंने जीवन में कभी असफलता न देखी थी, कभी सफलता के लिये उन्हें संघर्ष करने की आवश्यकता भी न पड़ी थी। पैतृक व्यवसाय हाथ लग गया था खूब अच्छे खाते-पीते और मस्त रहते थे। किसी तरह का उन्हें कोई अभाव न था।

मित्रों की सलाह पर एक दिन उन्होंने काफी बड़ा सौदा कर लिया। रातों-रात भाव बदला और दूसरे दिन जब बिक्री का समय आया तो उन महाशय को पता चला कि इससे उन्हें कई लाख का घाटा हुआ। बस सेठ जी का दिल धड़कने लगा। हक्के-बक्के रह गये। दुबारा सही आवाज भी न निकाली। विक्षिप्त से हो गये। चाहते तो उनके पास तब भी लाखों की सम्पत्ति बची हुई थी, दुबारा फिर रोजगार खड़ा कर लेते। पर सेठ जी का मनोबल इतना कमजोर था वे स्थिति की गम्भीरता को बर्दाश्त न कर सके और पागल हो गये, और इसी अफसोस में पड़े रहने के कारण अन्त में उनकी मृत्यु भी हो गई।

धन कोई महत्व की वस्तु नहीं। उसके आने या चले जाने से किसी का कुछ बनता बिगड़ता भी नहीं पर मानसिक दुर्बलता के कारण उक्त महाशय को जीवन जैसी बहुमूल्य वस्तु की क्षति उठानी पड़ी।

अपने परिचय के पाठक जी हैं। पन्द्रह वर्ष पूर्व जब वे मिले थे उनका शरीर बड़ा दुबला-पतला था, साधारण से अध्यापक थे। पाँच व्यक्तियों का परिवार था उनमें भी कोई न कोई आये दिन बीमार ही बना रहता था। पाठक जी कभी मिलते तो उनकी दयनीय स्थिति पर कुछ सहायता करने की इच्छा होती तो वे कहते नहीं भाई स्थिति कमजोर है पर मेरा मन कमजोर नहीं, तन हारा है मन नहीं। आप देखिये तो सही मैं आपको क्या करके दिखाता हूँ।

ऐसी कमजोर स्थिति में भी मास्टर साहब का मन कभी म्लान न हुआ, सदैव हँसते-खेलते, विनोद करते मिलते। भीतर ही भीतर उनकी योजनायें चलती रहतीं। बड़ी गुप्त और बड़ी ठोस योजनायें। आकाश और पाताल को उलट-पलट कर डालने वाली योजनायें।

प्राइमरी स्कूल के मास्टर साहब की स्थिति में परिवर्तन शुरू हुआ। बी. ए. किया एम. ए. किया और प्रोफेसर बन गये। मस्ती जीवन में थी ही, अभाव था सो भी पूरा हो गया। अब उनकी आय 500) मासिक से भी अधिक है। घर गृहस्थी ऐसी जिसे देखकर मन प्रसन्नता से भर जाय। मास्टर साहब का स्वास्थ्य ऐसा बढ़िया हो गया जैसे उन्होंने वर्षों कसरत की हो। इतना बड़ा परिवर्तन क्या उनके भाग्य ने किया? नहीं, वह तो उनका तीक्ष्ण मनोबल था जिसने यह चमत्कार कर दिखाया।

अनिश्चयता की मनोवृत्ति रहने के कारण लोगों के उपाय कारगर नहीं होते। सफलता का एक आधार है व्यक्ति का मनोबल। मनुष्य के मन में कल्पनायें उठें और उन्हें पूर्ण करने के प्रयत्न करने का वह साहस करे। न हिम्मत छूटे, न धैर्य टूटे, तो इच्छायें भी पूरी होती हैं। इससे जीवन में आशा का संचार होता है निराशा दूर भागती है। काम में सफलता मिलती जाती है तो नये काम हाथ में लेने और उन्हें पूरा करने की प्रवृत्ति जगती है।

यह सच है कि प्रत्येक सफलता मनुष्य का मनोबल बढ़ाती है पर क्रिया क्षेत्र में यह बात सदैव संभव नहीं है। संघर्ष करते हुए सफलता के साथ असफलता भी हो सकती है। आशा के साथ निराशा की भी उत्पत्ति हो सकती है। मनोबल की परीक्षा का यही समय होता है। आशायुक्त जीवन से निरन्तरता आती है तो निराशा से निकम्मापन भी आ सकता है। यहाँ परिस्थिति न सम्भालें तो मनुष्य के सारे प्रयास व्यर्थ हो सकते हैं। इसलिए यह बहुत जरूरी बात है कि सफलता की आशा रखें पर साथ ही असफलता के समय धैर्य भी जागृत रखें। किसी भी अवस्था में मनोबल क्षीण न हो तो रुका कदम रुका नहीं रहता, निराशा आशा में बदलती और हारी बाजी फिर से जीत में बदल जाती है।

इच्छायें करें पर यह न भूले कि उनका विकास एकाएक नहीं हो जाता। कुछ समय लगता है, कुछ श्रम लगता है। परिस्थितियों की अनुकूलता और प्रतिकूलता का भी विचार करना पड़ता है। इतना सब न करें तो इच्छायें कल्पना मात्र रह जायेंगी और उनसे कोई उद्देश्य पूरा न होगा।

पहले छोटी इच्छायें कीजिये और उन्हें संकल्प का रूप दीजिये। एक संकल्प पूरा होगा तो आपका मनोबल बढ़ेगा, उत्साह और उल्लास जागेगा। क्रमशः अपने संकल्प का स्तर बड़ा बनाइये और इस तरह अपने मनोबल को और भी ऊँचे उठाते हुए चले जाइये पर यह याद रहे कि संकल्प टूटना नहीं चाहिये अन्यथा मन में निराशा उत्पन्न होगी और मानसिक क्रियाशक्ति को छिन्न-भिन्न कर देगी।

उदाहरणार्थ - जब आप प्रातःकाल सो कर उठते हैं तो बिस्तर त्यागने के पूर्व आप कुछ क्षण रुकिये। स्वस्थ और चैतन्य होकर शान्त मुद्रा में बैठिये। परमात्मा को याद कीजिये और यह भावना कीजिए कि आज का दिन आपका एक जीवन है। आज आप अपनी शक्ति का अपव्यय रोकेंगे और ब्रह्मचर्य का पालन करेंगे। दिन-भर कामुक विचारों से बचते रहिये और अन्त तक आज का अपना प्रण पूरा कर ही जाइये। यह आपका एक छोटा संकल्प हुआ। धीरे-धीरे संकल्प के स्वरूप और उसकी अवधि को और भी चौड़ा करते रहिये। आपका मनोबल संकल्प की तौल के अनुसार बढ़ता ही जायेगा।

आत्म-विकास के इन कार्य-क्रमों में मन को व्यस्त रखिये तो वह आपके बड़े काम आयेगा आपको बहुत लाभ देगा। ऐसा नहीं करेंगे तो मन स्थिर नहीं रहेगा यह आप निश्चय जान लीजिए। मन को काम चाहिए, प्रोग्राम के बिना तो वह एक क्षण नहीं टिक सकता। यह नहीं तो आत्म-विनाश की खुराफात शुरू कर देगा। ताश-तमाशे के लिये, सैर-सपाटे के लिए, लड़ाई झगड़ा, कानाफूसी, मजाक आदि की अश्लील दुष्प्रवृत्तियों की ओर वह तभी दौड़ता है, जब उसे कोई रचनात्मक कार्य-क्रम नहीं मिलता। इससे सिवाय मनोबल क्षय होने के और कोई कारण नहीं। निर्धनता, दुर्बलता, दैत्यता आदि इसी आत्मविनाश के फल हैं। इन्हें रोकिये और अपना जीवन बरबाद होने से बचाइये।

आप याद रखिये कि स्वाभिमान ऊँचा रहता है तो मनोबल भी बढ़ा हुआ होता है। हीन भावनायें रखेंगे और गलत काम करेंगे तो आपका स्वाभिमान कौन ऊँचा रहने देगा। घर वाले डाँट मारेंगे, अध्यापक झिड़कियाँ देगा, प्रधान फटकार लगायेगा, फैक्टरी का मालिक काम से निकाल देगा। इससे आपके अपमान हो जाने का उतना भय नहीं है जितना आपके दुर्बल मन हो जाने का। यदि आप ऐसा करते हैं तो वह आपकी सबसे बड़ी कमजोरी होगी।

आप छोटे होने का विचार अपने मन से निकालकर दूर फेंकिए, आपके मन में अपार सामर्थ्य है। इधर देखिए यह जो विज्ञान फैला पड़ा है यह सब मन की शक्ति का चमत्कार है। उस शक्ति का अपमान न होने दीजिए। अपने मनोबल को सदैव दृढ़ रखिये। मन हार जाता है तो यह संसार भी दुःख का आगार ही समझ में आता है। आपकी सफलता आपकी जीत आपके मन की जीत है। मन को बलवान् रखना आपका धर्म है इससे आप संसार में बड़े काम कर सकते हैं, बड़ी सफलतायें अर्जित कर सकते हैं।


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