गीत संजीवनी- 3

अंधकार आसुरी वृत्ति का

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अंधकार आसुरी वृत्ति का

अंधकार आसुरी वृत्ति का, जिसने दूर भगाया।
देवदूत उतरा धरती पर, जग पहचान न पाया॥

सुधा समझ विष के प्याले थे, हम हाथों में पकड़े।
पेट और प्रजनन- कारा में, सभी रात दिन जकड़े।
धोकर कल्मष पंक यहाँ, जिसने पंकज विकसाया॥

रहा जागता वह युग प्रहरी, हम सब बेसुध सोते।
मुस्कानों से रहे निरंतर, पीर परायी ढोते।
करती रही प्राण- मन शीतल, बोधि विटप की छाया॥

गूँज रही सतयुगी ऋचा सी, अब भी जिसकी वाणी।
दिखा रही दिग्भ्रांत जगत को, दिशा नयी कल्याणी।
दिया प्रकाश अखण्ड ज्योति का, दीपक दिव्य जलाया॥

फैले आज प्रखर प्रज्ञा के, सूक्ष्म जगत में कंपन।
बन सकते नर से नारायण, जुड़कर जिससे जन- जन।
छोड़ गई पद्चिन्ह क्रांति के, जिसकी पावन काया॥

मुक्तक-


आते पीर हमारी हरने, धरती पर भगवान स्वयं ही।
पर पहिचान नहीं पाता है, उनको भी इन्सान स्वयं ही॥

इस युग में भी युग दृष्टा ने, हमको राह बताई आकर।
अब दुर्भाग्य हमारा होगा, बन जाएँ नादान स्वयं ही॥

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