गीत संजीवनी- 3

आज बेचैन हैं स्वर्ग की

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आज बेचैन हैं स्वर्ग की

आज बेचैन हैं स्वर्ग की शक्तियाँ-
हे मनुज तुम उठो दिव्य अुनदान लो॥

तुम उठे बुद्धि की शक्ति ले इस तरह-
क्या धरा क्या गगन सब कहीं छा गए।
सिद्ध तुमने किये मंत्र विज्ञान के-
नित नये उपकरण हाथ में आ गए॥
अब नियोजित इन्हें श्रेष्ठ पथ पर करो-
सृष्टि का हित भली- भाँति पहचान लो॥

बाहरी क्षेत्र के तुम विजेता बने-
किन्तु अन्तर्जगत है अधूरा अभी।
आत्मबल के बिना बुद्धि बल मात्र से-
लक्ष्य होगा तुम्हारा न पूरा कभी॥
विश्व के तुम बनोगे मुकुटमणि तभी-
जबकि विज्ञान के साथ सद्ज्ञान लो॥

व्यक्तिगत मुक्ति कोई समस्या नहीं-
व्यक्तिगत साधना ने शिखर को छुआ।
सन्त,अवतार आए दिशा दे गए-
किन्तु सामान्य जीवन न विकसित हुआ॥
यह समूची मनुजता नया जन्म ले-
तुम नये कल्प का वह नवोत्थान लो॥

कब उठे ऊर्ध्वगामी बने जाति यह-
देवसत्ता प्रतीक्षा यही कर रही।
तुम बढ़ाते नहीं पात्र अपना यहाँ-
है जहाँ से सुधा अनवरत झर रही॥
प्यार माँ का अपरिमित छलकता अरे-
तुम स्वयं को यहाँ पुत्रवत् मान लो॥

मुक्तक-

देव दुर्लभ देह केवल भोग को मिलती नहीं।
साधना द्वारा अनूठी सिद्धियाँ मिलती यहीं॥

लोक- मंगल के लिए अनुदान मिलते हैं इसे।
श्रेय पाने से मनुज वंचित न रह जाए कहीं॥

शशिना रहितेव निशा विजलेव नदी लता विपुष्पेव। अविभूषिते कांता गीतिरलंकारहीना स्यात्।
अर्थात्- जैसे चन्द्रमा के बिना रात्रि, जल के बिना नदी,
फूलों के बिना लता तथा आभूषणों के बिना स्त्री शोभा
नहीं पाती, उसी प्रकार अलंकार बिना गीत भी
शोभा को प्राप्त नहीं होते।

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