गीत संजीवनी- 3

आत्म साधना ऐसी हो

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आत्म साधना ऐसी हो

आत्म साधना ऐसी हो जो, चटका दे चट्टान को।
शाश्वत् प्राण ज्योति पी जाये, अंधकार अज्ञान को॥

साधक वह जो झेले जग के पाप,ताप,अभिशाप को।
सागर मंथन के पहले जो, मथ ले अपने आप को॥

औरों को दे सुधा रत्न खुद कर लेता विषपान है।
तपकर स्वयं ज्योति जग को, देना जिसका अरमान है॥
मानव करें वन्दना ऐसी- छूले तन, मन, प्राण को॥

जप,तप,पूजा,पाठ,साधना, जीवन की सौगात है।
तिमिर निशा के बाद सदा ही, आता सुखद प्रभात है॥

जिसका है विश्वास अलौकिक,धर्म,कर्म,ईमान में।
कर देता सर्वस्व न्यौछावर, जनहित के कल्याण में॥
जो देखे अन्तस् आँखों से, कण- कण में भगवान् को॥

बुझने देता ज्योति नहीं जो, शाश्वत् ज्ञान मशाल की।
करता है परवाह नहीं वह, काल,व्याल,विकराल की॥

बाँटा करता सारे जग को, अमर ज्ञान,सद्भाव जो।
प्रेम सुधा से भर देता है, जग के दुःखते घाव को॥
रात- रात भर जाग अकेला, लाता नये विहान को॥

विचलित होता कभी नहीं जो, आतप,वर्षा,शीत में।
जिसे आत्म सुख मिलता सच्चा, आत्मज्ञान संगीत में॥

जो करता है सतत् साधना, शांतिकुंज की छाँव में।
आत्मसुरभि भर देता क्षण में, मुरझे हुए गुलाब में॥
मुट्ठी में बाँधे फिरता जो, प्रलयंकर तूफान को॥

मुक्तक-

बिना साधना किसे भला,भगवान मिला करते हैं।
शापों में चलने से ही, वरदान मिला करते हैं॥

अम्बर भी शोभायमान है, जलते अंगारों से।
कुटिल कँटीले काँटों में ही, फूल खिला करते हैं॥
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