बालकों का भावनात्मक निर्माण

सम्मान और सद्व्यवहार

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महापुरुषों का कथन है, ‘‘जैसे व्यवहार की आशा आप दूसरों से करते हैं वैसा ही व्यवहार दूसरों से करिये’’ हम सभी लोगों की इच्छा यह होती है कि दूसरे लोग जब हमें पुकारें तो आदर सूचक शब्दों के साथ पुकारें श्री रामकुमार जी यहां आइये, सुनने में यह वाक्य कितना सुन्दर लगता है। राम कुमार जी हम से प्रसन्न हो जायेंगे यदि उनका जी आपके पास आने को नहीं चाहता था, तो भी मीठी बोली और आदर सूचक शब्दों के साथ सम्बोधन को सुनकर वे आपकी ओर खिचेंगे। लेकिन मान लीजिए कि रामकुमार जी आपके मित्र ही हैं मगर यदि आप राम शुक्ला इधर कहकर उन्हें बुलाइये तो आने की चाह रखते हुए भी वे आपके पास आयेंगे और सम्भव है आपसे बुरा मानकर झगड़ा कर बैठें।

अपनी बोली वाणी से आदमी बड़े-बड़े काम बना लेता है, बिगड़ी बना लेता है और बड़े-बड़े संकटों से बच जाता है।

फिर दूसरों को अच्छे शब्दों से पुकारने की महिमा अपार है। यह आदत भी बच्चे को प्रारम्भ से ही डालने की आवश्यकता है। आप लोग ध्यान से देखेंबच्चे प्रायः अपने साथियों को तूकहकर बुलाते हैं। रमेशवा आओ चलें खेलें। वे ऐसा इसीलिये करते हैं क्योंकि माता-पिता शुद्ध नाम से उच्चारण करने की उपयोगिता बच्चे को नहीं समझाते और आदत ही डालते हैं। यही बच्चे आगे बढ़कर बदजबान बनते हैं। बदजबानी से बड़े बड़े झगड़े मोल लेते रहते हैं। क्या यह मालूम नहीं कि महाभारत जैसा महान् युद्ध बदजबानी के कारण ही लड़ा गया था, द्रोपदी ने इन्द्रप्रस्थ में राजसूय यज्ञ सम्पन्न होने के बाद सभास्थल का निरीक्षण करते हुए दुर्योधन से कहा था अन्धे के अन्धे ही होते हैंइसी वाक्य ने महाभारत खड़ा कर दिया और अगणित मनुष्यों के प्राणों का संहार करवा दिया।

यह तो प्राचीन युग की बात ठहरी। अब तो हम आये दिन ऐसे व्यक्तियों को देखते हैं। हमारे एक भाई साहब थे, उनकी आदत बन गई थी दूसरों को तू कह कर बुलाने की। चाहे जैसा व्यक्ति क्यों हो, वह उसे तू कहकर ही पुकारेंगे। यद्यपि मैं उन से छोटा था अतः मुझे तूकहकर बुलाते ही थे। उनकी आवाज सुनकर उनके प्रति मेरे हृदय में बड़ा क्रोध उठता था। जी चाहता था यदि मैं इनके जीतने वाला होता तो अभी लड़ बैठता। कभी कभी उनका विरोध कर ही बैठता हूं।

जो लोग दूसरों को अपमान सूचक शब्दों से सम्बोधित करते हैं प्रायः उन्हें दूसरों से घृणा, द्वेष और अपमान एवं उपेक्षा ही मिलती है, और मान सूचक शब्दों से दूसरों को सम्बोधन करने वालों को प्रेम, सम्मान और स्नेह ही मिलता है। ऐसे लोग सहज ही में बहुतों को अपने स्वजन, प्रेमी और प्रशंसक बना लेते हैं। उक्ति है कि

तुलसी मीठे वचन से सुख उपजत चहुंओर

वशीकरण एक मन्त्र है तज दे वचन कठोर ।।

अपने बच्चों में मीठी बोली की आदत डालिए। उन्हें यह सिखाइये कि जब कभी वे दूसरों को नाम लेकर पुकारें तो उसके अन्त में जी अवश्य लगावें। जैसे शोभाराम जीरमेशचन्द्र जी आदि, अधूरे नामों से कभी किसी को सम्बोधित करें। यह नियम अपने साथियों के लिए लागू रहना चाहिए। अपने से बड़ों को कभी नाम लेकर पुकारें। सदैव रिश्ते के शब्दों से पुकारें। चाचा, काका, दादा, मामा, ताऊ, भैया आदि। इसी प्रकार छोटों को, अपने से छोटी आयु वालों को बुलाना हो तो भी उनके नाम के अन्त में जी अवश्य लगाइये। जैसे लल्लू जी यहां आइये। एक दूसरी बात है तुम और आपका सम्बोधन। इस छोटी सी भूल और उपेक्षा से लोग नहीं समझते कि कितनी बड़ी क्षति उठानी पड़ती है। बच्चों में आदत डालनी चाहिए कि वे दूसरों को आप कहें कि तुम, तुम यहां आओ नहीं वरन् आप यहां आइये कहना चाहिए।

हम देखते हैं कि ग्रामीण जीवन में तो सम्बोधन के शब्दों पर कोई ध्यान नहीं दिया जाता। दूसरों को तुम कहकर और गालियां देकर ही पुकारना फैशन अथवा बड़प्पन की निशानी समझते हैं। देहात के तथाकथित बड़े लोग अपने नौकरों को या गांव के पिछड़ी जाति अथवा हरिजन जाति के लोगों को बहुत ही अपमान सूचक शब्दों से पुकारते हैं। उनकी वही आदतें उनके बच्चों में पड़ती हैं। मेरे यहां रिश्तेदारी का एक बच्चा आया था, वह अपनी बहन, चाची चचेरे भाइयों तथा साथियों को इतने अपमान से पुकारता था जैसे कोई बूढ़ा पुकार रहा हो। तोते की तरह टांय टांय करके बोली बोलता था, स्वर से हुकुमिया भाव प्रकट होता था। यह आदत उस में अपने मां बाप से पड़ी थी। मां-बाप जैसी बोली बोलते थे उसी की नकल वह भी करता था। चूंकि उन्हें स्वयं उच्चारण दोषपूर्ण नहीं मालूम होता था तो फिर बच्चे को बरजने की बात कैसे सोचते? भले मानुष परिवारों में बातचीत का ढंग बड़ा ही अच्छा होता है, आप उनके बच्चों से बातें कीजिए जी प्रसन्न हो जायेगा। मजाल नहीं कि उनके मुंह से व्यर्थ या अश्लील शब्द निकले।

गाली देना जंगलीपन इसी प्रकार एक दूसरी बुरी लत जो बच्चों में पड़ जाती है वह है गाली बकने की। बच्चे बड़ों की सुनकर एक दूसरे को गाली देते रहते हैं। यह आदत भी उनमें बड़ों की देखा देखी पड़ती है। आजकल गाली तो वेद वाक्य ही बनता जाता है। किसी को बुलावेंगे तो बिना गाली दिये नहीं, किसी की चर्चा करेंगे तो गाली के साथ। गाय, भैंस और बैलों को भी गाली दिये बिना नहीं छोड़ते, ऐसी बुरी-बुरी गालियां देते हैं कि सुनने में शर्म मालूम होती है। मां बहनों और बड़ी-बूढ़ी स्त्रियों के सामने भी अश्लील शब्दों गालियों का उच्चारण करने में शर्म नहीं आती। समाज के अधिकांश लोग अब मर्यादाहीन और निर्लज्ज होते जा रहे हैं। गाड़ियों में आप यात्रा कीजिए, लोगों के अश्लील शब्द सुनते-सुनते जी ऊब जायेगा। प्रातःकाल ब्रह्म-मुहूर्त में गाड़ीवान अपनी गाड़ियां हांकते चले जा रहे हैं, आपस में बातें करते हैं, इतनी बुरी-बुरी गालियां सार्वजनिक रूप से बकते जाते हैं कि क्या कहा जाय। वे नहीं समझते कि ये बुरे शब्द विष के समान हैं और कितनी बड़ी क्षति समाज की बहू-बेटियों, मां-बहनों को पहुंचाते हैं। निर्लज्जता, चरित्रहीनता, भ्रष्टाचार के काण्ड इसीलिए अधिक होने लगे हैं। आर्य कहलाने वाली जाति की वर्तमान दशा देखकर कौन कहेगा कि हमारा प्राचीन इतिहास गौरवशाली था?

मेरा तो यहां तक विचार है और आज के युग में आवश्यक है कि सार्वजनिक रूप से गाली बकने, अश्लील शब्द उच्चारण करने के विरुद्ध आचार-संहिता बनाकर दण्ड देना सरकार का काम है। संसद एवं विधान मण्डल में इसके लिए कानून बनने चाहिये।

बच्चों के अभिभावकों को ही नहीं वरन् समाज के हर पढ़े लिखे अथवा अपने को भला आदमी कहलाने की इच्छा रखने वाले व्यक्ति का यह कर्तव्य है कि मार्ग चलते, गाड़ी में यात्रा करते, बाजार में टहलते या चौराहों पर बातचीत करते समय यदि कहीं भी किसी बच्चे को गाली बकते सुनें तो उसे टोकें अवश्य। अपने घरों में गाली बन्द कर देने का अभियान चलाया जा सकता है, दीवारों पर नाना प्रकार के पोस्टर लगे होते हैं, दवाइयों के विज्ञापनों से आजकल शहरों की दीवारें रंगी पड़ी हैं, दीवारों पर गाली बकना पाप है।’ ‘गाली बकना मानवता का अपमान है।’ ‘गाली नहीं बकनी चाहिए।गाली बकने वाले समाज के शत्रु हैं आदि वाक्य लिख देना एक सच्ची समाज सेवा होगी। इन सब प्रयासों से जन-साधारण में चेतना उत्पन्न होती है, जनमत जागरूक होता है। प्रबल जनमत ही किसी बुराई को रोक सकता है, तभी सरकारी कानून सफल हो सकता है।

बच्चों में भ्रातृ-भावना लाने के लिये उपर्युक्त वर्णित छोटे छोटे उपाय देखने में तो कोई बड़े महत्व के नहीं प्रतीत होते परन्तु जब यह बच्चों में आदत के रूप में जाते हैं तो उसकी स्वाभाविक सुन्दरता में चार चांद लगा देते हैं। यह बात अच्छी प्रकार समझ लेने की है, ज्ञान, उपदेश उस समय तक उपयोगी नहीं हैं जब तक हमारी आदतों में उनका प्रवेश हो। अच्छी आदतें ही अच्छे व्यक्ति का निर्माण कर सकती हैं।  

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