बालकों का भावनात्मक निर्माण

शिक्षा-स्वाध्याय

<<   |   <   | |   >   |   >>


जो बच्चा स्कूल जाता है उसका सबसे बड़ा काम क्या है? वह ज्ञान प्राप्त करने के लिए स्कूल जाता है, मूर्ख बनने के लिए नहीं। फिर उसका काम है कि वह अध्ययनशील बने। यदि उसे पुस्तकों से प्रेम नहीं है, यदि वह पढ़ने को बेगार समझता है तो अच्छा हो कि उसका नाम विद्यालय से कटाकर किसी घरेलू धन्धे में उसे लगा दिया जाए।

मां-बाप को चाहिए कि वह बच्चे की पढ़ने में रुचि पैदा करें। बातों और चतुरता से कुछ विधियों को अपना कर रुचि उत्पन्न की जा सकती है। बचपन से ही उन्हें अच्छी पुस्तकें पढ़ने को देना चाहिए। 15-16 वर्ष की आयु जिसमें बच्चे का बौद्धिक विकास होने लगता है, घर पर उसके पढ़ने का ढंग देखते रहना चाहिए। बहुतेरे बच्चों से मां बाप का यह रवैया होता है कि स्कूल से जब बच्चा पढ़कर लौटता है तो उसे घर के कामों में लगा देते हैं। जहां तक गृहस्थी के कामों में हाथ बटाने की बात है, वह तो उचित है, लेकिन सायंकाल के बाद जब वह अपनी पुस्तकें लेकर पढ़ने बैठता है तो भी उसे नाना प्रकार के अनावश्यक और व्यर्थ कामों में फंसाये रहते हैं। उदाहरणार्थ यदि आप अपनी मित्र मण्डली के साथ बाहर बैठे हैं तो हुक्का बिठाने, पान लाने, कोई सामान उठा लाने अथवा भोजन की तैयारी के बारे में घर में पूंछ आने के छोटे-छोटे कामों में बच्चे को पुकार कर दौड़ाया करते हैं, जहां पर वह बैठा पढ़ रहा है, उसी स्थान के निकट बैठकर जोर-जोर से बातें करते रहते हैं। उन्हें इस बात का तनिक भी ध्यान नहीं रहता कि बच्चे की पढ़ाई में उनकी बातों से बाधा पड़ती है।

स्कूल की पुस्तकें पढ़ना ही अध्ययनशीलता नहीं है। परीक्षा पास करने हेतु उनका स्वाध्याय तो आवश्यक है ही, अतः उस पर बच्चे को नित्य कई घण्टे अवश्य देना चाहिए। लेकिन हर बच्चे को यह भी समझना चाहिए कि यह संसार एक बड़ा विश्वविद्यालय है। पालने से लेकर कब्र तक हम सदा ईश्वर के महान् विद्यालय में रहते हैं, जहां हर चीज हमें अपना पाठ सिखाने की, अपना महान् रहस्य हमें बताने की कोशिश कर रही है।

बच्चे का सबसे पहले करने का काम यह है कि संकल्प किया जायदृढ़, जबरदस्त और पक्का संकल्पकि हमें शिक्षित बनना है, हमें अज्ञान के कारण हीन रहकर जीवन नहीं बिताना है। बहुतेरे युवक होते हैं, जिनको पढ़ने का शौक होता है, वे अपने खाली समय को व्यर्थ नहीं गंवाते हैं। ऐसे समय में पढ़ने के लिए जेब में पुस्तक रखने की आदत उनमें रहती है। जो नौजवान नये विचारों को झट पकड़ लेते हैं, और जो उत्कृष्ट मस्तिष्कों के साथ बार-बार सम्पर्क में आते हैं, उनमें प्रायः केवल व्यक्तिगत आकर्षण पैदा हो जाता है, बल्कि मानसिक शक्ति भी पैदा हो जाती है।

अपनी पंचेन्द्रियों में आंखसबसे अधिक सीखने सिखाने का काम देती है। किसी चीज को ध्यान से देखने की कला सीखकर हर युवक अपने मस्तिष्क को विकसित कर सकता है।

ऐसे एक पिता को भी हम जानते हैं, जो अपने लड़के को, ध्यान से देखने की शक्तियों का विकास करने की शिक्षा देता है। वह अपने लड़के को कुछ समय के लिये किसी अपरिचित सड़क पर भेज देता है और उसके लौटने पर यह पता लगाने के लिए उससे प्रश्न करता है कि उसने कितनी वस्तुएं ध्यान से देखीं। वह उसे बड़ी-बड़ी दुकानें, संग्रहालय और अन्य सार्वजनिक स्थान देखने को भेजता है और फिर यह देखता है कि लड़के ने जितनी चीजें देखी हैं, उनमें से कितनी चीजों का नाम और वर्णन वह घर लौटने पर कर सकता है। उस पिता का कहना है कि इस अभ्यास से लड़के को चीजों पर केवल नजर फेंकने की बजाय उन्हें देखने की आदत पड़ती है।

हारवर्ड विश्वविद्यालय के प्रोफेसर एगासिज के पास, जो एक महान् जीव शास्त्री थे, जब कोई नया छात्र आता, तब वे उसे एक मछली दे देते और उससे कहते थे कि आधे या एक घण्टे तक इसे अच्छी तरह देखो। जब छात्र यह समझता कि मैंने मछली के बारे में सब कुछ बता दिया है, तब प्रोफेसर उससे कहता है—‘‘वास्तव में तुमने अभी मछली को देखा नहीं। इसे थोड़ी देर और अच्छी तरह देखो और बताओ कि तुमने क्या देखा?’’ वह कई बार यही चीज दोहराता और अन्त में छात्र में ध्यान से देखने की शक्ति पैदा हो जाती।

यदि हम जीवन में सावधान जिज्ञासु मन लेकर हर चीज को देखते चलें और अपने बच्चों में इसी प्रकार की आदत डालें तो हम बड़ी भारी मानसिक दौलत और सारे भौतिक धन से अधिक बड़ी समझदारी जमा कर सकते हैं।

चिड़ियां, कीड़े, पशु, पेड़, नदी, पहाड़, सूर्यास्त और प्रातःकाल की लाली प्राकृतिक, दृश्य आदि सब कुछ अपनी मूक भाषा में सबको शिक्षा देते रहते हैं। जो इनसे कुछ ग्रहण करने की आदत डाल लेता है, उसे चलते-फिरते उठते-बैठते, शिक्षा प्राप्त होती रहती है। जवाहरलाल नेहरू ने जो पत्र जेल से अपनी पुत्री इन्द्रादेवीके नाम लिखे थे, उनमें उन्होंने इसी तथ्य को दर्शाया था। यदि बच्चा नदी, पहाड़ों, प्राकृतिक दृश्यों को पढ़ना सीख जाय तो वह कितना विशाल ज्ञानार्जन कर सकता है, इसकी थाह नहीं लगाई जा सकती।

दूसरों से सब तरह की जानकारी ग्रहण कर लेने की आदत बड़ी मूल्यवान् है। मनुष्य उतना ही दुर्बल और प्रभाव-हीन होता है जितना वह अपने आपको अन्य मनुष्यों से अलग रखता है। जो लोग एक दूसरे के सम्पर्क में आते हैं, उनमें जिज्ञासु मस्तिष्क होने पर शक्ति का एक निरन्तर प्रवाह चलता है, इधर से उधर बहते हुए बलों की यह धारा बहती है। हम सब लोग जब आपस में मिलते हैं, तब निरन्तर लेते देते हैं। आज की दुनियां में सफलता पाने वाले को अपने चारों ओर से सम्पर्क रखना चाहिए।

शिक्षा का अर्थ यह है कि ज्ञान को अपने अन्दर ग्रहण कर लिया गया है, और वह विद्यार्थी का हिस्सा बन गया है। मनुष्य की दक्षता और सफलता की माप इस बात से होती है कि उससे अपने भीतर मौजूद शक्ति को व्यक्त करने की ओर अपने ज्ञान को प्रकट करने की कितनी योग्यता है।

बुद्धि उन लोगों के लिए अपना दरवाजा नहीं खोलती जो आत्म-त्याग और कठोर परिश्रम रूपी कीमत नहीं चुकाना चाहते। उनके रत्नाभूषण इतने अधिक कीमती हैं कि उन्हें निकम्मे आकांक्षा शून्य लोगों के आगे नहीं बिखेरा जा सकता। हर दशा में अपने आप को अज्ञान से मुक्त करने का दृढ़ संकल्प पैदा कर देना ही बच्चे को अध्ययनशीलता की ओर बढ़ाने में पहल कदम है।

नैपोलियन ने कहा था ‘‘ईश्वर सदा सबसे अधिक ताकतवर फौज के पक्ष में रहता है।’’ वह सदा उनके पक्ष में रहता है जो सबसे अधिक तैयार सबसे अधिक कुशल, सबसे अधिक चौकन्ने, सबसे अधिक साहसी और दृढ़ निश्चयी होते हैं। यदि हम अधिकतर उन लोगों के जीवन की जांच करें जो भाग्यवान् कहलाते हैं, तो हम देखेंगे कि उनकी सफलता की जड़े बहुत पीछे अतीतकाल में हैं। शायद हम इस नतीजे पर पहुंचेंगे कि भाग्यवान् आदमी भाग्यहीन आदमी की अपेक्षा अधिक बारीकी से सोचता है, और उसकी निर्णय बुद्धि अधिक परिष्कृत है, उसमें अधिक श्रृंखला और व्यवस्था है, वह अधिक व्यावहारिक है। जीवन भाग्य का खेल है। विधाता ने हमें ऐसी जगह नहीं रख दिया है जहां हम परिस्थितियों के खिलौने होंगे।

बच्चे को समाज का सफल नागरिक बनाने के लिये उसमें सदैव सतर्क रहने की आदत डालिये। यह संसार एक युद्ध भूमि है। हर व्यक्ति यहां का एक सैनिक है। सैनिक को युद्ध में हर समय सतर्कता एवं जागरूकता की आवश्यकता होती है। उसके किंचित् मात्र असावधान होने से असफलता का मुंह देखने को मिलता है।

कुछ प्राप्त करने के लिये सदैव जागृत रहना पड़ेगा। असावधान रहनाकाहिल और आलसी, काम-चोर और निठल्ले बैठकर बाकी जमा की हुई पूंजी से मौज उड़ाने वाले अधिक दिन तक अपना धन्धा चालू नहीं रख सकते। अन्त में सब कुछ खो जाने के बाद हाथ मल-मल कर पछताना पड़ता है।

अतः माता-पिता को चाहिए कि अपने बच्चों को सतर्क बनाएं, सावधान जागरूक रखें, चैतन्य रखें। ऐसा वे स्वयं सतर्क रहकर ही कर सकते हैं। असावधान व्यक्ति भला दूसरे को सावधानी की शिक्षा कैसे दे सकता है?

<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:







Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118