बालकों का भावनात्मक निर्माण

सेवा धर्म की महत्ता

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रामचरित-मानस में भरतजी ने रामचन्द्रजी से पूछा—‘‘महाराज धर्म क्या है और अधर्म क्या है, सब हमें बताइये।’’ बहुत संक्षेप में जो उत्तर श्री रामचन्द्र जी ने भरत को दिया, वह हमारे भी समझने के लिए है। उन्होंने कहा

‘‘परहित सरिस धर्म नहीं भाई पर पीड़ा सम नहिं अधमाई ।।

बरनत सकल पुरान वेदकर कहहुं तात जानहि कोविद नर ।।’’

अर्थात्दूसरों की भलाई करने के समान कोई धर्म नहीं और दूसरों को कष्ट पहुंचाने के समान कोई अधर्म नहीं। यह वेद और पुराणों का निर्णय है, मेरी ही बात नहीं। इस रहस्य को विद्वान् लोग ही समझते हैं।

कितनी बड़ी बात भगवान् ने समझा दी। धर्म के ऊंचे-ऊंचे सिद्धान्तों पर तर्क-वितर्क करना उनकी दुरूह गुत्थियों की शास्त्रीय विवेचना करना धर्म नहीं है, सर्वश्रेष्ठ धर्म है दूसरों की सेवा करना।

सेवाजैसी अमूल्य निधि से बच्चों को वंचित रखना उनके साथ भारी अन्याय करना है। मां-बाप को बच्चे के सेवा-भावों को विकसित करने का प्रयास करना चाहिए।

व्यक्तिगत स्वार्थ ही सब कुछ नहीं है। केवल व्यक्तिगत स्वार्थों की पूर्ति से ही हमारा कुछ हित होने वाला नहीं है। यह सहकारिता का युग है। हमें समाज में प्रत्येक व्यक्ति के साथ कदम से कदम मिलाकर चलना होगा। इसी में हमारा और समाज का हित है। हर व्यक्ति को यदि पुल बनाकर नदी पार करनी पड़े तो उसका सारा जीवन केवल पुल बनाने के साधन जुटाने में ही लग सकता है। लेकिन जब नदी पर पहले से पुल बंधा हो तो हर आने-जाने वाला उससे पार उतरता है। मनुष्य ही नहीं पशु-पक्षी और लघु जीव-जन्तु भी उससे पार उतरते हैं। हमें केवल सामाजिक कार्यों तक ही सीमित रहना चाहिए। हमें अपने पूर्वजों, संस्कृतियों में सामंजस्य स्थापित करना चाहिये। यह भी सेवा ही है। सेवा ही नहीं, कर्त्तव्य भी है।

सेवावृत्ति अपनाने के लिए इस कर्त्तव्य का पालन करने के बहुत से तरीके हो सकते हैं। बचपन से सच्ची सेवा की ओर बाल हृदय को मोड़ना चाहिए। इसके लिए निम्न लिखित उपाय किये जा सकते हैं।

(1) स्काउटिंग की दस प्रतिज्ञाओं में से एक प्रतिज्ञा यह भी है कि हर विद्यार्थी को नित्य एक सेवा कार्य करना चाहिए। किसी प्यासे जानवर को पानी पिलाना, किसी प्यासे राही को एक लोटा जल पिलाकर तृप्त करना, मार्ग में कांटा पड़ा हुआ हो तो उसे उठाकर फेंक देना भी सेवा का ही रूप है। पता नहीं, अंधेरे में चलते समय किसी के वह कांटा गढ़ जाए। लोग केले खाकर सड़कों पर ही केले के छिलके फेंक देते हैं। सड़क पर चलने वाला कोई व्यक्ति उस छिलके से फिसल कर गिर सकता है। उसकी टांग टूट सकती है। हमारी थोड़ी लापरवाही के कारण कितनी बड़ी हानि दूसरे व्यक्ति को हो सकती है। यह भी एक सेवा कार्य है कि आप इधर-उधर यदि सड़कों पर छिलके देखें तो उन्हें उठाकर एक ओर फेंक दें। जो लोग ऐसा करते हुए दीखें उन्हें आप मना भी कर दें तो समझिए आप समाज की सेवा कर रहे हैं।

(2) आज सबसे बड़ी कमी जो हम लोगों में है वह यह कि सार्वजनिक सम्पत्ति को हम अपनी चीज नहीं समझते। इसलिये उसे नष्ट करने, तोड़ने-फोड़ने अथवा गन्दी करने में हमें तनिक भी हिचक नहीं मालूम होती है। लोग अपना द्वार तो बुहारेंगे लेकिन उसका कूड़ा उठाकर सामने की सड़क पर फेंक देंगे। अपने दरवाजे पर खड़े-खड़े सड़क पर थूक देंगे। पान की पीकें तो आपको सर्वत्र ही दिखाई पड़ेंगी। अपने खेत में पानी ले जाने के लिये किसान सड़क खोदकर पानी की नाली बना लेगा। लेकिन पानी खींचने के बाद उस नाली को पाटकर ठीक कर देना वह अपना कार्य नहीं मानता। जाने कितने चलने वाले उसमें गिरकर टांग तोड़ते हैं, बैलगाड़ियां फंसती हैं स्वयं वह किसान भी चाहे उस नाली में कई बार गिर जाय फिर भी उसे इस बात का ध्यान नहीं आता कि अपने खोदी नाली को पाट देना चाहिये। यह सब सेवाएं ऐसी हैं जो बच्चों के वश की हैं। यदि उनका ध्यान इस ओर आकर्षित किया जाय तो वे बड़ी उपयोगी सेवा में हंसते-हंसते कर सकते हैं।

(3) हम ऊंची-ऊंची अध्यात्म की बातें तो करते हैं लेकिन प्रतिदिन के जीवन में सफाई एवं स्वच्छता के साधारण नियमों का पालन तक नहीं करते। अपने बच्चों से सड़क पर ट्टी फिरवाना, पेशाब करवाना, नाक छिनककर, थूककर अपने चारों ओर गन्दगी का वातावरण हम उपस्थित करते रहते हैं। माता-पिता को चाहिए कि वे स्वयं इस गन्दी आदतों से बचें और अपने बच्चों को भी इन आदतों से बचावें।

(4) सबसे बड़ी सेवा अपने को प्रसन्न रखना है। जो बच्चा अथवा जवान हर समय प्रसन्न चित्त रहता है, संकट में भी चेहरे पर उदासी लाने अथवा रोने और गिड़गिड़ाने की आदत नहीं डालता, समझना चाहिए कि वह समाज की बहुमूल्य सेवा करता है। हंसमुख बालक घर की प्रसन्नता का केन्द्र बिंदु बन जाता है। वह दस उदासों से मनोरंजक बातें कहकर उनके कष्टों को दूर करता है। रोनी सूरत वाला बच्चा दस लोगों की उदासी का कारण बनता है। अतः माता-पिता को ऐसी परिस्थितियां उत्पन्न करनी चाहिये और अपने बच्चों को प्रारम्भ से ही हंसमुख रहने की शिक्षा देनी चाहिए। मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीरामचन्द्र जी का उदाहरण हमारे सामने है। उनके ऊपर कितनी ही कठिनाइयां आईं मगर वे सदैव प्रसन्नचित्त रहे। ‘‘प्रसन्न वदनं रामं’’ ऐसा वाल्मीकि जी ने उनके गुणों का बखान किया है। हंसमुख बालक का स्वास्थ्य अच्छा रहता है। महात्मा आनन्द स्वामी जी कहा करते हैं कि हर व्यक्ति को नित्य एक बार खूब खिलखिलाकर हंसना चाहिये। खिलखिलाकर हंसने से हमारे सभी नाड़ी तन्तुओं में तनाव आता है जिससे शारीरिक और मानसिक आरोग्य का मार्ग प्रशस्त होता है।

(5) क्रिया द्वारा जितनी दूसरों की सहायता की जा सकती है उससे कहीं अधिक मीठे वचनों द्वारा हो सकती है। जो बच्चे समाज सेवा की अभिलाषा रखते हैं अथवा जो माता-पिता अपने बच्चों को समाज सेवा का पाठ पढ़ाना चाहते हैं, उन्हें चाहिए कि अपने बच्चों को प्रिय बोली बोलने का अभ्यास करायें। बच्चों की आदत होती है कि जिनसे वे भय खाते हैं उनके सामने बड़ी विनम्रता से बातें करेंगे। बोली की परख सभा सोसायटी में नहीं, चलते-फिरते समय किसी अपरिचित द्वारा कुछ पूछने पर आपके बात करने के ढंग से होती हैं। दूसरे एक कष्टों से पीड़ित नैराश्य हृदय का व्यक्ति आपके पास आकर अपना दुःख कहे तो यदि आप अपने मीठे और आशापूर्ण वचनों द्वारा उसके कष्ट पर मरहम पट्टी कर देते हैं, ढांढस बंधा देते हैं, तो समझना चाहिये कि एक डूबती नौका को आपने बचाकर कई लोगों की जान बचाई। पता नहीं कि जो निराश व्यक्ति आपके पास आया था, यदि कटु और निराशापूर्ण शब्दों से आपने उसके कष्टों को और बढ़ा दिया होता तो सम्भव है कि वह अपने जीवन से निराश होकर कहीं जाकर पानी में डूब जाता अथवा फांसी लगाकर अपनी जिन्दगी खो देता। ऐसी घटनाएं आये दिन हुआ भी करती हैं। यदि लोग निराशाजनक बातें करना छोड़ दें, यदि बेमतलब की बातें करके दूसरों को चिढ़ाने, उलझाने ताव देने, लज्जित करने अथवा पीड़ा पहुंचाने की आदतों को छोड़ दें तो संसार से आधे झगड़े झंझट और कष्ट दूर हो सकते हैं। जिस शांति को साकार रूप देने में बड़े-बड़े शासनाध्यक्ष सफल नहीं हो पा रहे हैं, उस शान्ति को वाणी पर संयम लाकर लाया जा सकता है।

हमें मीठी और आशाजनक बातें करना सीखना चाहिए ऐसा करके हर व्यक्ति अपने लिए सौभाग्य को निमन्त्रण देता है। भावी उन्नतिशील भारत को तो विश्व का नेतृत्व करना है। उसे जगद् गुरु बनना है, फिर यदि बहुसंख्यक नागरिकों में यह गुण नहीं आयेंगे तो यह भविष्यवाणी कैसे साकार होगी? हम और आप अपने बच्चों के बातचीत के ढंग पर विशेष ध्यान दें। हमें, चाहे अपने परम विरोधी से ही क्यों बात करनी हो मगर अपनी मर्यादा को त्यागना चाहिये। इस बात को सदैव जानने का प्रयत्न करना चाहिये कि बच्चा किस ढंग से बात करता है। चलते-फिरते उसके बात करने का तरीका देखना चाहिए। समय-समय पर उसे किन्हीं बातों का प्रसंग उठाकर आप समझा भी सकते हैं। आशापूर्ण ढंग से बात करने के उदाहरण प्रस्तुत करके आप उसकी महत्ता का भी प्रतिपादन कर सकते हैं।

(6) परिवार तथा पड़ोसी के घरों के छोटे-छोटे काम कर देना भी सेवा के रूप हैं। मान लीजिये कि आप के पड़ौसी के घर के पुरुष किसी काम से बाहर चले गये हैं, घर में केवल स्त्रियां हैं, उन्हें बाहर से कुछ सामान मंगाने की जरूरत पड़ती है, वे दरवाजे से आपके बच्चे को पुकारती हैं, आप तुरन्त अपने बच्चे को वहां भेजकर उनके काम को ठीक ढंग से कर देने के लिये कह दें।

इस प्रकार छोटे-छोटे काम करके बच्चे सेवा के बड़े-बड़े पाठ पढ़ सकते हैं। अभिभावक अपने बच्चों को नित्य सेवा कार्य करने के लिये उत्साहित करें। समय-समय पर बातचीत के दौरान उसकी भी छानबीन करलें कि आज उसने कौन-सा सेवा कार्य किया? यह सेवा चाहे कितनी भी छोटी क्यों हो, लेकिन इसकी आदत पड़ जाने से आपका बच्चा महत्ता के सोपानों पर चढ़ने के लिये सक्षम बनता जाएगा। 

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