बालकों का भावनात्मक निर्माण

बच्चे के संगी-साथी

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मनुष्य समाज-बद्ध प्राणी है। अपने समाज से ख्याति तथा लोकप्रियता प्राप्त करने के लिये केवल बड़े ही परन्तु बच्चे भी उत्सुक रहते हैं। अगर यह कहा जाय कि बड़ों से बच्चे अधिक स्वाभाविक रूप से सामाजिक जीव हैं तो अत्युक्ति होगी। मनुष्य जब जीवन से ऊब जाता है, उसमें जब असहनशीलता तथा स्वार्थता जाग्रत हो जाती है जीवन संघर्ष से घबरा कर वह थकान अनुभव करने लगता है। तब उसे एकाकीपन अधिक भाता है। वह समाज से, अपने मित्रों से, सगे सम्बन्धियों से, मुंह चुराता है। जिससे उसका स्वार्थ नहीं सधता, उससे मिलने में उसे कुछ आनन्द नहीं। ऐसे मित्रों से वह कुछ बहानेबाजी करके छुटकारा पाने की चेष्टा करता है। कहदो कि घर पर नहीं हैंया हो, बड़े भाग्य से दर्शन हुए, क्षमा करें, समय नहीं मिला, नहीं तो मैं खुद ही हाजिर होता’, आदि उद्गार प्रकट कर वह मुंह देखे की प्रीति निभाने की चेष्टा करता है।

बड़ों की मित्रता में शिष्टाचार को ही अधिक महत्व दिया जाता है, परन्तु बच्चों की मित्रता में सहज प्रेम, और स्वाभाविकता अधिक होती है। वे अपने अड़ौस-पड़ौस, सहपाठी तथा कम उम्र के संगी-साथियों में सहज ही हिल-मिल जाते हैं। उनकी मित्रता भी सोद्देश्य ही होती है। एक साथ खेलने और एक ही स्कूल में पढ़ने वाले तथा एक ही पड़ौस में रहने वाले बच्चों में परस्पर घनिष्ठता जल्द हो जाती है। एक सी रुचि रखने वाले बच्चे किसी रुचिकर काम को करते समय एक गुट बना लेते हैं। जैसे क्रिकेट के खिलाड़ी, फुटबाल के प्रेमी, बागवानी या ललित कलाओं में दिलचस्पी रखने वाले बच्चे, उद्देश्य की सादृश्यता देखकर ही एक दूसरे की संगति को पसन्द करते हैं। परिवारों की घनिष्ठता भी बच्चों को एक दूसरों के परिवारों में मित्रता स्थापित करने में सहयोग देती है।

गरीब और अमीर बच्चों की मित्रता बच्चों में ऊंच-नीच आदि का भेद नहीं होता है। मैंने देखा है कि अफसरों के बच्चे अपने चपरासी के बच्चों के संग खेलने में संकोच नहीं करते। इस प्रकार की मित्रता से दोनों बच्चों को लाभ होता है। गरीब का बच्चा साफ-सुथरा तथा शिष्ट बनने की चेष्टा करता है, अमीर का बच्चा गरीबों के बच्चों के संग रह कर जीवन के अभावों से परिचित होता है, और तुलनात्मक रूप से अपने जीवन की सुविधाओं का मूल्य समझने लगता है। स्नेह तथा दयावश वह गरीब मित्रों की सहायता करना सीख जाता है। वह अपने पुराने कपड़े, खिलौने, पुस्तकें यहां तक कि पाकेट मनी में से भी कुछ देकर उनके अभावों को दूर करने की चेष्टा करता है। बचपन के इन दोस्तों के प्रति इतनी ममता होती है कि बड़े होकर जब धनिकों के बच्चे अच्छी पोजीशन पर होते हैं, उन्हें अपने बाल्यकाल के ये संगी साथी भूल नहीं जाते। कृष्ण-सुदामा की मित्रता बचपन में ही हुई थी और उस व्यवहार से कृष्णजी ने सुदामा को कितना धन दिया था, यह सर्व-विदित है। प्राचीन काल की शिक्षा पद्धति में अमीर गरीब का भेद नहीं था। सभी हर दशा में समान थे। आज भी अमीर-गरीब के बचपन की दोस्ती के अनेक उदाहरण मिलते हैं। ऐसे-ऐसे मित्र बने जिन्होंने अपने गरीब मित्रों को सर्वस्व दे डाला। इस काल की मित्रता स्थायी होती है। वे उनकी मदद पहुंचाते हैं, उनमें दिलचस्पी लेते हैं। अपने जीवन का सिंहावलोकन करते समय, वे इस बात का अवश्य अनुभव करते हैं कि इन्हीं सुदामा-मित्रों के साथ रहकर उन्होंने मानवता का पाठ पढ़ा है, जीवन के अभावों की कचोटन से परिचित हुए हैं। इस प्रकार उनके सामाजिक जीवन का स्वस्थ विकास बाल्यकाल में ही होता है।

इसी प्रकार जिस स्कूल में गरीब-अमीर सभी बच्चे पढ़ते हैं, जहां पर स्कूल की वेष-भूषा तथा संस्कृति में रंग कर सभी बच्चे एक से प्रतीत होने लगते हैं, गरीब अमीर का जहां भेद नहीं होता, वहां के स्वस्थ वातावरण में एक वर्ग के बच्चे दूसरे वर्ग के बच्चों की संगति से अवश्य लाभ उठाते हैं।

अमीर बच्चों को बाल्य-काल से ही सभी सुविधाएं प्राप्त होती हैं, प्रशंसा सुनने के भी वे आदी हो जाते हैं, अतएव अपनी अध्यापिका को अपने परिश्रम से प्रसन्न कर सुनाम कमाने की लालसा का उनमें अभाव होता है। खेल-खिलौने में भी उनकी दिलचस्पी नहीं होती। कारण उनके घर पर बढ़िया तथा विचित्र से विचित्र खिलौने होते हैं। फलस्वरूप वे चीजों को संभाल कर नहीं रखते, उनमें उत्सुकता कम होती है, उनकी कल्पना उड़ान नहीं भर सकती, क्योंकि उन्हें प्रत्येक वस्तु तथा सफलता को सजीव देखने की आदत सी पड़ी होती है। वे दृढ़चित्त, एकाग्र तथा परिश्रमी भी नहीं होते। नियम पालन की ओर से भी वे उदासीन रहते हैं। अवसर का लाभ उठाने की चेष्टा न करके, वे अवसर को अपनी सुविधानुसार प्राप्त करना चाहते हैं। यह स्कूल नहीं तो दूसरे में चले जायेंगे, क्लास के साथ, नहीं चल सके तो घर पर ट्यूशन लगा लेंगे हमें किस बात का अभाव है? क्या मर-मरकर पढ़ना जरूरी है ही? खेलो खाओ और मौज उड़ाओयही उनके जीवन का ध्येय है। आलस्य तथा निठल्लेपन को वह आराम कहते हैं। वे स्वार्थी और अभिमानी अधिक होते हैं, उनका पढ़ाई में मन नहीं लगता। वे रचनात्मक कार्य करके विनाशात्मक वृत्ति अपना लेते हैं। वस्तु को तोड़ने, फोड़ने, बिगाड़ने में ही उन्हें अधिक आनन्द आता है। उनकी हर एक बात में लापरवाही होती है।

परन्तु मध्य वर्ग के बच्चे इसके विपरीत होते हैं, थोड़ी-सी सुविधा मिलने पर ही, वे स्वयं को सौभाग्यशाली समझने लगते हैं, प्रत्येक वस्तु उनके लिए नवीनता लिए होती है, अवसर का वह ज्यादा लाभ उठाना चाहते हैं। उनमें मौलिकता होती है, अनुकूल वातावरण में उनका शीघ्र ही सुन्दर विकास हो जाता है। अमीरों के बच्चे जो कि अधिकतर नकलची होते हैं, मध्यम वर्ग के बच्चों के साथ रहकर बहुत कुछ सीख जाते हैं। उनकी वृत्ति भी रचनात्मक हो जाती है अपनी उद्दण्डता और अभिमान को छोड़कर वे साधारण बच्चों के समान व्यवहार करने लगते हैं।

अतः अपने बच्चों के मित्रों के चुनाव में अमीर माता-पिताओं को इस बात की चेष्टा करनी चाहिए कि मध्य वर्ग के बच्चों की संगति का उनके बच्चे लाभ उठा सकें। इस प्रकार मध्य वर्ग के बच्चों को भी रहन-सहन का स्तर उन्नत करने का बढ़ावा मिलेगा।

संगति का प्रभाव जब बच्चा बहुत छोटा होता है, उसके लिए मां-बाप तथा बहन भाई ही सब कुछ होते हैं, परन्तु पांच वर्ष की आयु का बच्चा अपने संगी-साथियों से बहुत प्रभावित होता है। मेरे मित्र इस प्रकार के कपड़े पहनते हैं, अमुक स्कूल में पढ़ते हैं, अमुक खेल खेलते हैं, अकड़-अकड़ कर चलते हैं आदि बातों का वह विशेष अध्ययन करता है। जैसा उसके मित्र करते हैं वैसा करने की उसकी प्रबल कामना होती है। यहां तक कि उनकी भाव भंगी, मुहावरे तथा खर्च की भी नकल करने लगता है। अतएव बच्चों की संगति के विषय में संरक्षकों तथा अभिभावकों अध्यापकों को विशेष जागरूक रहना चाहिए। चोरी करना, झूठ बोलना, बहानेबाजी करना, काम से जी चुराना, चटोरापन आदि बुरी आदतें बच्चे संगी-साथियों से ही जल्द सीख लेते हैं। बचपन की आदतें आगे जाकर स्वभाव बन जाती हैं। कहावत है कि पड़ौस की शकल तो नहीं पर अकल जरूर जाती है। मनुष्य अपनी संगति से पहचाना जाता है। अतएव बच्चे-बच्चियों को बचपन से ही अच्छे मित्रों तथा सहेलियों का चुनाव करना सिखायें।

यदि माता-पिता के मित्र शिष्ट हैं तो बच्चों को उसी मण्डली में से मित्र चुनने में बहुत सुविधा होगी। जब आप अपने मित्रों के घर जायें, तब इस बात का भी ध्यान रखें कि बच्चे बच्ची को भी उनके बच्चों के साथ खेलने-कूदने तथा मिलने-जुलने की सुविधा हों। अपने बच्चों के मित्रों में आप स्वयं दिलचस्पी दिखावें, उनकी कमी या भूल की मजाक उड़ावें। अगर उनमें से कोई पढ़ाई में पिछड़ा हो तो अपने बच्चों के जरिए उन्हें उन्नति का प्रोत्साहन दें। मित्रों के समझाने-बुझाने का बच्चों पर बड़ा प्रभाव पड़ता है। बच्चे अपने सखा-सहेलियों का साथ यहां तक देते हैं कि आगे पढ़ने की इच्छा या संगति सुख के लिए, आगे बढ़ते रहने के लिए यथा शक्ति चेष्टा करते हैं। हमारे साथी को सजा मिले, वह पिछड़ जाये, उसे असुविधा होइस प्रयत्न में पूरा गुट सहयोग देता है। इसी प्रकार वे प्रतियोगिता में भी मिलकर बाजी मारने की चेष्टा करते हैं। बच्चों की इस टीम-भावना को प्रोत्साहन देना चाहिए। उन्हें इसके लिए उपयुक्त मित्रों का चुनाव करना सिखायें।

कभी-कभी ऐसा होता है कि बच्चों के परिजनों में प्रोत्साहनवर्द्धक दृष्टान्तों का अभाव रहता है पर अपने सगो-साथियों का उदाहरण उन्हें उन्नति करने के लिए प्रेरणा देता रहता है। अतएव आपका बच्चा दृढ़-निश्चयी नहीं है तो ऐसे मित्र की संगति जो अधिक प्रतिभाशाली, स्थिर बुद्धि तथा सज्जन है, उसके लिए अधिक उपयोगी होगी।

मनुष्य का आकर्षण भी उसी व्यक्ति की ओर होता है जिसे वह अपना पूरक समझता है। एक खिलाड़ी बच्चे की मेधावी मित्र के संग अच्छी पटती है। एक गम्भीर प्रकृति का मित्र हंसोड़ दोस्त की संगति अधिक पसन्द करता है।

बच्चे के मान सम्मान की उसके मित्रों के सामने पूर्ण रक्षा करें, अपराध होने पर भी कभी उसकी खिल्ली उड़ावें, अन्यथा पीठ पीछे बच्चा आपके विरुद्ध अपने दिल का मलाल, मित्रों के बीच निकालेगा और इस प्रकार अपने घायल आत्मसम्मान पर मरहम लगाने की चेष्टा करेगा। अगर बच्चे के किसी मित्र का व्यवहार आपको रुचिकर नहीं है, या वह पढ़ाई के समय बच्चों को खेल में लगाने की चेष्टा करता है तो उसको रोकने का सबसे सुन्दर उपाय यही है कि आप बच्चे को मीठी झिड़की देकर कहें—‘मुन्ना! तुम्हें चाहिए कि अपने मित्र को भी पढ़ाई में लगाओ। अगर तुम्हारा दोस्त मोहन फेल हो जाएगा तो तुम्हारी मित्र मण्डली की शोभा बिगड़ जायगी। इसमें तुम्हारी भी बदनामी है। सो मोहन भैया! तुम भी इस समय पढ़ो, शाम को खेलना।तुम्हारे बच्चे और उसके साथी मोहन के लिए इतना संकेत काफी है। अगर आप मोहन को झिड़केंगे तो आपका बच्चा भी मन ही मन आपको बुरा-भला भी कहेगा और शाम को मोहन के लिए भी उलाहने सुनने पड़ेंगे।

बच्चे अपने माता-पिता, बहन-भाई तथा घराने के दोष या बुराई के कारण मित्र-मण्डली में दबे रहते हैं, अतएव अपने बच्चे के आत्मसम्मान की रक्षा के लिए आप पारिवारिक बुराइयों को दूर करने की चेष्टा करें।

दूसरों से मिलना-जुलना एक दूसरे के जन्म दिवस, तीज-त्यौहार, सुख-दुःख में हाथ बंटाना सिखायें। उन्हें अपने हाथ से बनाये हुए उपहारों का आदान-प्रदान करना सिखायें। बच्चे एक-दूसरे से व्यक्तिगत बातों की चर्चा बहुत विस्तार से करते हैं यथा माता-पिता ने हमें कौन-सा उपहार दिया? कहां घुमाने ले गये? क्या-क्या नये कपड़े तथा खिलौने दिए? त्यौहार पर क्या इनाम दिया, हमारे घर का रहन-सहन और खान-पान का क्या तरीका है? मेरी बहन ऐसी गुणवती है, भाई पढ़ने में ऐसा होशियार है, पिताजी का मैं लाड़ला हूं, मां का प्यारा हूं; मेरे माता-पिता दोनों में बड़ा मेल है; दोनों ही सुन्दर, स्वस्थ तथा शिक्षित हैं। इस प्रकार की चर्चा द्वारा वे अपनी श्रेष्ठता जताना चाहते हैं। अतएव आप अपने बच्चे के मित्रों के विचारों की उपेक्षा करें। कभी-कभी उनके खेल कूद तथा मनोरंजन में भी भाग लें। उनकी अड़चनों के प्रति सहानुभूति दिखायें, उनकी समस्याओं को सुलझाने की चेष्टा करें। प्रायः देखा गया है कि बच्चे अपने मां बाप की सलाह मान लेते हैं। अतएव इस बात को भूलिए कि आप केवल अपने बच्चे के ही नहीं वरन् उनके मित्रों के भी पथ प्रदर्शक हैं। इस विषय में एक रोचक सत्य प्रसंग देखिये

सुशीला और किरण दोनों कन्यायें एक ही स्कूल में पढ़ती थीं। एक साल सुशीला की दसवीं वर्ष गांठ पर उसकी माताजी ने सुशीला की कुछ सखियों को बुलाया। अन्य कन्यायें तो गप्प और खेल-कूद में मग्न रहीं परन्तु किरण ने सुशीला की माताजी को मेज सजाने और ट्रे आदि लगाने में सहयोग दिया। दूसरे दिन पार्टी की चर्चा चलने पर सुशीला की उन सहेलियों की भी चर्चा चल पड़ी। सुशीला की माताजी ने कहा ‘‘मुझे सब कन्याओं में किरण केवल रूप-रंग और स्वभाव में ही वरन् समझदारी में भी सबसे अच्छी प्रतीत हुई।’’

यह सुनकर सुशीला खट बोली अगर आप किरण की माताजी से मिलें तो तबियत प्रसन्न हो जाय बी.. तक पढ़ी-लिखी हैं, परन्तु घर का सब काम खुद करती हैं। किरण को भी वही पढ़ाती हैं। पिछले साल आपको मालूम ही है कि मैं परीक्षा में फेल हो गई थी परन्तु किरण की माता ने मुझे इतने प्यार से समझाया कि मेरी पढ़ाई की ओर रुचि हो गई और इस साल मैंने आरम्भ से ही परिश्रम करना शुरू किया, तो क्लास में मेरी पोजीशन भी सैकिण्ड गई। किरण हमेशा फर्स्ट आती है।

सुशीला की माताजी ने कहा बेटी तुम किरण के ही साथ रहा करो, मैं उसकी माताजी को तुम्हें प्रोत्साहन देने के लिए धन्यवाद देने अवश्य जाऊंगी।

दूसरे दिन जब किरण को सुशीला ने यह सब बातचीत सुनाई तो किरण बोली सब सुशीलामुझे अपनी माताजी पर बड़ा गौरव है वे मुझे कभी भी नहीं डाटतीं। परन्तु यह सच है कि मुझ में किसी बात की कमी या बुराई देखकर उन्हें बड़ा दुख होता है।

सुशीला—‘‘किरण, अब हम दोनों की माताएं भी परस्पर सहेली बन जायंगी, तो यह अच्छा होगा। परीक्षा के दिनों में फिर मुझे तुम्हारे यहां आकर तैयारी करने की आज्ञा मिल जायगी।

इस प्रकार किरण और उसकी समझदार माता के प्रभाव में रहकर सुशीला एक समझदार और होशियार लड़की बन गई।

बच्चों के सामाजिक जीवन का विकास बचपन में ही होना चाहिए। मित्रों के चुनाव में माता-पिता का सहयोग वांछनीय है। अपने अड़ौस-पड़ौस स्कूल तथा मुहल्ले में बच्चों को मित्र चुनने की सुविधा होती है। ऐसी स्थिति में यदि आप इस बात का ध्यान रखें कि आपके आदेश विचारों से मेल खाते हुए व्यक्तियों से आपकी घनिष्ठता बढ़े और बच्चे बच्चियों को भी उनके बच्चों के साथ मेल मिलाप करने का अवसर मिले तो बच्चों के मित्रों के सम्बन्ध में आपको कभी शिकायत होगी। आप भी उनके सखा-सहेलियों से परिचय बढ़ावें, इससे उनकी विशेषताओं को प्रोत्साहन देने तथा कमियों को दूर करने का अवसर मिलेगा। यदा कदा बच्चों के खेल-कूद तथा मित्रों में शामिल होने से, आपको उन सबका विश्वास प्राप्त करने में भी सरलता होगी। फलस्वरूप जब कोई संशय या कठिनाई पड़ेगी तो बच्चे आपको सहयोग अवश्य प्राप्त करेंगे। वे आपसे छिपाकर कोई कार्य नहीं करेंगे। जब उन्हें इस बात का भरोसा हो जायगा कि भूल करने पर हमें अमुक व्यक्ति धिक्कारेगा नहीं अपितु ऊंच नीच समझाकर सुधारने का तरीका भी बता देगा, तो आप पर भरोसा रखने लगेंगे। आपके सहयोग का मूल्य समझने लगेंगे।

एक परिचित नगर के एक मुहल्ले में एक व्यक्ति आते हैं, उनको सभी मालू काका कहते हैं। बगीचे में जितने बच्चे खेलने को आते हैं, वे लगभग सभी से परिचित हैं। क्योंकि वे उन्हें खेल खिलाते तथा कहानी सुनाते हैं। एक बार एक बंगाली और पंजाबी बच्चे में कुछ मारपीट हो गई। बाद में बंगाली बच्चों ने मिलकर अपनी अलग पार्टी बनाली। अब उन दोनों पार्टियों के बच्चों में परस्पर बड़ा द्वेष फैल गया। मालू काका को यह बात बहुत बुरी लगी। उन्होंने बाल मेला नाम से एक पार्टी स्थापित की, जिसमें खेल-कूद, दौड़ तथा कहानी के लोभ से दोनों पार्टियों के अनेक बच्चे शामिल हो गये। बाद में मालू काका को पता चला कि किस प्रकार दोनों पार्टियों के कुछ बड़े लड़कों ने अपनी-अपनी पार्टी के बच्चों में द्वेष और ईर्ष्या भरी थी। यहां तक कि लड़कों को विरोधी पार्टी के बच्चों की बहनों पर आवाजें कसनी भी सिखादी थीं। मालू काका की पार्टी का इतना स्वस्थ प्रभाव पड़ा कि धीरे-धीरे दोनों दलों के बच्चे इसी में शामिल हो गये और ईर्ष्या-द्वेष भूलकर वे मेल मिलाप से खेलने लगे।

देखा गया है कि नेक बच्चे भी कभी-कभी संगत के कारण बुरी बातों की ओर आकर्षित हो जाते हैं। स्कूल या खेल के मैदान से लौटते समय बच्चे किसी भिखारी या कुत्ते के पीछे पड़ जाते हैं और कंकड़ पत्थर तथा लाठियों से उसको खदेड़ कर परेशान करते हैं। इसी प्रकार किसी खोमचे वाले या माली को भी परेशान कर देते हैं। पागल, बहरूपिये या अंगहीन व्यक्तियों को परेशान करने में उन्हें बड़ा आनन्द आता है। इस शैतानी में कुछ दुष्ट बच्चे अगुआ होते हैं। शेष बच्चे दर्शक बनकर शामिल हो जाते हैं। पता लगाने में प्रधानाध्यापक या टीम के लीडर को चाहिए कि जो लड़के अगुआ बने थे, उन्हें उचित सजा दें, साथ ही अन्य पिछलग्गुओं को भी ऊंच-नीच समझाकर लज्जित अवश्य करें।

मित्र एक दूसरे के पूरक हैं, अतएव स्कूलों में भी इस बात की चेष्टा की जानी चाहिए कि ऐसे दो बच्चों को पास-बैठने तथा मिलकर काम करने का अवसर दिया जाय जो एक दूसरे के पूरक बन सकें। खिलाड़ी और फुर्तीले लड़के के साथ पढ़ने में मेहनती और धीर लड़के की अधिक पटेगी। खामोश और विचारशील बालक के संग, बातों में तेज और हंसोड़ बालक का जोड़ ठीक रहेगा। इस प्रकार परस्पर सहयोग द्वारा उनमें सामाजिक भावना का भी विकास होगा।

इस बात की भी सावधानी रखनी चाहिए कि बच्चा किसी दुष्ट बच्चे के प्रभाव में जाय। आमतौर पर देखने में आता है कि जो बच्चे बहुत भोले-भाले तथा व्यवहारिक बुद्धि से हीन होते हैं, उनमें लीडरशिप का अभाव रहता है। ऐसे बच्चे अपनी टोली के किसी दुष्ट और दुःसाहसी साथी की अधीनता शीघ्र ही स्वीकार कर लेते हैं और बिना सोचे विचारे उनका अनुकरण करने लगते हैं। माता-पिता या गुरु जब किसी नेक बालक को विपरीत ढंग से व्यवहार करते पायें तो उन्हें चाहिए कि उनके संगी साथियों की जांच करें। मनुष्य अपनी संगति से जाना जाता है बच्चों के विषय में तो यह उक्ति पूरी-पूरी सार्थक होती है, क्योंकि उनके चरित्र में अभी दृढ़ता नहीं पाई जाती साथ ही उनकी निर्णयात्मक बुद्धि का विकास भी नहीं हुआ होता, इस कारण वे अपने संगी साथियों की सिखावट में झट जाते हैं।

बच्चे के संगी-साथियों को परखने के लिए आप अपने बच्चों के सामाजिक जीवन में रुचि लें, उनके संग खेलें, बातों-बातों में उनके सखा-सहेलियों के विचारों और आदर्शों की जानकारी प्राप्त करें। जन्म-दिवस तथा अन्य उत्सवों पर उन्हें अपने संगी-साथियों को बुलाने का अवसर दें। आपके इस प्रकार रुचि लेने से बच्चे अपने मित्रों, सहेलियों के चुनाव के विषय में सावधान रहेंगे। अपने अच्छे मित्रों की प्रशंसा सुनकर वे इस बात का विशेष ध्यान रखेंगे कि हम ऐसे मित्रों की संगति में रहें जिनकी शोहरत अच्छी नहीं है, जो अपनी उद्दण्डता शैतानियों के कारण बदनाम हैं या पढ़ाई में कमजोर हैं, नहीं तो हम भी बदनाम हो जावेंगे।

यह संगति का प्रभाव केवल बचपन में ही पड़ता है, परन्तु बड़े होकर भी बच्चों के चरित्र पर संगी-साथियों की ही छाप स्पष्ट बनी रहती है। कॉलेजों के लड़के-लड़कियां जिस प्रकार अपने सखा-सहेलियों को करते देखती हैं उसका अनुसरण वह भी करने लगती हैं। घर गृहस्थी वाले व्यक्ति तक संगति के प्रभाव से अछूते नहीं रह सकते। इसलिए आप बच्चों को छुटपन में ही अच्छी संगति का महत्व बताना भूलें। अगर आपने उन्हें अच्छे मित्रों का चुनाव करना सिखा दिया है, वो बड़े होकर भी वे गलती नहीं करेंगे। क्योंकि बचपन के संस्कार और रुचि उन्हें बुरी संगति से दूर रहने की प्रेरणा देते रहेंगे।


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