समाज में जितने बच्चे हैं, वे किसी न किसी पाठशाला में पढ़ने जाते हैं, उन सबकी आर्थिक दशा समान नहीं हो सकती। कुछ अति अमीर घराने के होते हैं तो बहुतेरे बच्चे ऐसे मिलेंगे जिनके माता पिता अत्यन्त गरीबी का जीवन व्यतीत कर रहे हैं। उनको शाम तक भरपेट भोजन मिलना भी कठिन रहता है। फिर अपने बच्चों को वे किस प्रकार अच्छे वस्त्र पहना कर स्कूल भेज सकते हैं?
जिस युग में हम लोग रह रहे हैं वह स्वतन्त्रता, समानता एवं भ्रातृ भाव का युग है। हमारे देश के संविधान ने अपने प्रथम अध्याय में भारत में निवास करने वाले सभी नागरिकों के लिये समानाधिकार, स्वतन्त्रता एवं समान व्यवहार प्रदान करने की घोषणा की है।
तात्पर्य यह है कि सब वाणी समान हैं, सभी ईश्वर के बन्दे हैं, अतः न तो अमीर को गरीब से घृणा करनी चाहिये और न बुद्धिमान् को बुद्धिहीन को नीची निगाह से देखना चाहिये। वरन् उन्हें अपने से नीचे वालों को सहयोग देकर सहानुभूति प्रदान कर अपनी शक्ति एवं सम्पत्ति का थोड़ा अंश देकर उन्हें भी ऊंचा उठाना कर्तव्य है। नागरिकों में यह भाव तभी जागृत हो सकते हैं जब बचपन से ही उनमें गरीबों के प्रति दया, अपने साथी के प्रति प्रेम के अंकुर का बीजारोपण किया जाय। उन्हें सिखाया जाय कि सहयोग से रहना ही जीवन जीने का सही रास्ता है। अपने साथी की हर सम्भव सहायता करने से अपनी सहायता होती है। बिना दिये कुछ मिलता भी नहीं है। लेना और देना दोनों इस संसार में साथ-साथ चलते हैं।
फिर बचपन से यह अंकुर कौन वपन करेगा? उत्तर स्पष्ट है माता-पिता और विद्यालय। यही दो संस्थाएं हैं जो हर अच्छे बुरे भाव बच्चे में भरते हैं।
बच्चों में भ्रातृ-भावना और समानता विद्यालय और माता पिता के सहयोग से ही लाई जा सकती है। प्राचीन काल की गुरुकुल शिक्षा प्रणाली में यह बात हम देखते थे। राजा रंग दोनों के बच्चे गुरु के आश्रम में भेज दिये जाते थे। वहां उन के साथ आश्रम में समान व्यवहार होता था। सान्दीपन ऋषि के आश्रम में गरीब ब्राह्मण सुदामा भी शिक्षा पाता था और मथुरा के कर्मठ युवराज कृष्ण भी वहीं शिक्षा प्राप्त करने गये थे।
वस्त्रों में सादगी और समानता — स्कूल जाने वाले बच्चों को देखने से ऐसा लगता है जैसे किसी रंग बिरंगी दुकान में विभिन्न प्रकार के गुड्डे गुड़ियों को देखते हैं। अमीर अपने बच्चों को कीमती कपड़ों से सजाते हैं। बचपन में ही उन्हें घड़ी खरीद देते हैं। रोज कपड़ा बदलवाते हैं। गरीबों के बच्चे बेचारे फटी धोती कुर्ता या कमीज पहन कर आते हैं। जूते उन्हें पहनने को नहीं मिलते। इसका एक दुष्परिणाम यह होता है कि कीमती कपड़े पहनने वाले बच्चे में अपने पास फटे या साधारण वस्त्र पहनने वाले की तुलना में मिथ्याभिमान के भाव जगते हैं, उसमें उच्चता और अहंकार के भाव पैदा होते हैं, वह समझने लगता है कि मैं अपने पड़ोसी की तुलना में अधिक धनवान् तथा बड़ा हूं। दूसरी ओर फटे पुराने वस्त्र धारण करने वाले बच्चे भी अपने को निम्न स्वीकार करने लगते हैं। उनमें हीनता के भाव पैदा होने लगते हैं। यह दोनों स्थितियां आदर्श नागरिक निर्माण के मार्ग में रुकावट हैं। आवश्यकता यह है कि विद्यालय में विद्याध्ययन करते समय सब बच्चे समान भाव से भावित हों। अहंकार विनाशकारी है और हीनता भी प्रगति में बाधक है। यही बच्चे बड़े होकर छोटे बड़े, ऊंच नीच, धनी निर्धन के भेद भाव फैलाते हैं। इन्हीं के कारण समाज में हजारों प्रकार की जातीय समस्याएं उत्पन्न होती रहती हैं।
इस ओर अमीर और गरीब दोनों प्रकार के माता-पिता के कुछ कर्तव्य हैं। अमीरों को चाहिये कि वे अपने बच्चों को सादे कपड़े पहना कर स्कूल भेजें। इस में उन्हीं का लाभ है। छोटे बच्चे जब घड़ी या सोने के कोई छोटे जेवर अथवा कीमती कपड़े पहन कर स्कूल या खेलने जाते हैं तो वे समाज के धूर्त, चोर, बदमाश लोगों की निगाह में गड़ जाते हैं। थोड़े से पैसे या वस्त्रों के लोभ में बच्चों की जान तक ले लेने में उन्हें लेशमात्र भी दया नहीं आती। बहराइच मॉडल स्कूल के प्रधानाध्यापक महोदय का इकलौता बच्चा सोने की छोटी-छोटी बालियां अपने दोनों कानों में पहने था। उन्हीं बालियों के लोभ में एक दुष्ट ने बच्चे को बहका कर और एकान्त में ले जाकर उसे मार डाला और बालियां निकाल लीं। बताइये! यह सोना, पैसा या वस्त्र बच्चे के प्राणों का घातक बना।
इसी प्रकार की घटनाएं आये दिन हुआ करती हैं। फिर हर बुद्धिमान का फर्ज है कि बच्चों को ऐसी कीमती चीजें न पहनावें। अब तो चलन मिटता जाता है लेकिन कुछ समय पहले छोटे बच्चों के हाथों और पैरों में चांदी के कड़े पहनाये जाते थे। अब भी देहातों में अहीर या कुछ अन्य जातियों में इस का प्रचलन है।
समान ड्रेस से समान भाव बनने में सहायता मिलती है। शिक्षा-विभाग की ओर से भी इस आवश्यकता का अनुभव किया जा रहा है। इसी लिए किसी किसी विद्यालय में, जिस में प्रधानाचार्य उत्साही हैं, बच्चों के लिए समान वेष-भूषा अनिवार्य कर दी है। यह एक अच्छी प्रथा है, सुविधानुसार वस्त्रों का चुनाव तो विद्यालय ही कर सकते हैं लेकिन जब अमीर और गरीब सब बच्चों के ड्रेस समान हो जाते हैं तो स्कूल में एक नया जीवन दिखाई पड़ता है, बालकों में भी एकता व समानता के भाव बनते हैं। इस लिये अभिभावकों का यह कर्तव्य है कि जब जिन स्कूलों में उनके बच्चे पढ़ते हैं, वहां यदि समान वेश भूषा की योजना लागू की जाय तो उस में उत्साह पूर्वक सहयोग देना चाहिये। इसे अतिरिक्त व्यय मानकर बोझ समझने का कोई कारण नहीं, फिजूल में खर्च होने वाले काफी पैसों की बचत हो जाती है। जहां यह योजना न लागू हो वहां भी अभिभावकों को सम्बन्धित अध्यापकों एवं प्रधानाचार्यों से कह कर उन्हें समान वेष-भूषा का अनिवार्य नियम अपने विद्यालय में लागू करना चाहिए।
इस नियम में अमीर-गरीब दोनों को ही लाभ हो जाता है। गरीबों का यह कर्तव्य है कि कितने भी कम कीमत वाले वस्त्र वह अपने बच्चों को क्यों नहीं पहनायें परन्तु उन्हें स्वच्छ और साथ रखने के नियम का तो वे पालन कर ही सकते हैं। इसमें तो धन नहीं श्रम की आवश्यकता है। धोबी से कपड़े न धुलाये जाकर रविवार के अवकाश के दिन बच्चों से ही उनके कपड़े धोने के लिये कहना कोई अनुचित बात नहीं है। सप्ताह में एक दिन का अवकाश इसलिये मिलता है ताकि बच्चे अपने वस्त्रों, सामान आदि सब को ठीक करलें। बच्चों में यदि अपने कपड़े साफ करने की आदत डाल दी जाय तो यह स्वावलम्बन और सफाई हर दृष्टि से उपयोगी आदतें होंगी। आगे चलकर वह बच्चे कभी भी अपने छोटे बड़े किसी काम के लिये दूसरों का मुंह नहीं ताकेंगे। इसलिए मां-बाप को छोटी-छोटी बातों से महानता का पाठ बच्चों को पढ़ाना चाहिए।