बालकों का भावनात्मक निर्माण

बालकों में अपराध और उसका उपचार

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बच्चे बहुधा बड़े प्यारे लगते हैं और प्रायः यह कहा जाता है कि वे बड़े ही अच्छे हैं और उनका जीवन बड़ा ही सुखी है; परन्तु सभी बच्चों के विषय में यह बात लागू नहीं होती। कुछ बच्चे ऐसे होते हैं जो वातावरण में अपने को व्यवस्थित नहीं कर पाते। ऐसे बच्चे प्रायः ऐसे व्यवहार दिखलाते हैं जिन्हें सामान्य नहीं कहा जा सकता। मनोवैज्ञानिक दृष्टि से यह कहा जा सकता है कि उनमें व्यक्तित्व संबंधी कुछ कठिनाइयां गई हैं। ऐसे बच्चे संवेगात्मक दृष्टि से अस्वस्थ होते हैं। यों तो कठिनाइयां और समस्याएं सभी व्यक्तियों के अनुभव की वस्तु होती हैं, चाहे वे बच्चे, प्रौढ़ या बूढ़े क्यों हों। परन्तु संवेगात्मक दृष्टि से स्वस्थ व्यक्ति अपनी समस्याओं का हल समाज द्वारा स्वीकृत साधनों के सहारे करना चाहता है। इसके विपरीत संवेगात्मक दृष्टि से अस्वस्थ व्यक्ति अपने आवेशवश किसी समय कुछ भी कर सकता है।

पुराने जमाने में अपराधी बालक के असामान्य व्यवहार का कारण किसी भूत, प्रेत अथवा शैतान को समझा जाता था। ऐसे बालकों से लोग डरा करते थे और कभी-कभी उनकी पूजा भी किया करते थे। इसके विपरीत उन्हें कभी-कभी मार डालने की भी चेष्टा की जाती थी। परन्तु अपराधी बालकों के प्रति आजकल ऐसा व्यवहार नहीं किया जाता। मनोवैज्ञानिक खोजों के फलस्वरूप अब उनके व्यवहार के कारण को समझने की उपयोगिता मानली गई है। पाश्चात्य देशों में तो अपराधी बालकों के उपचार के लिये बड़ी-बड़ी संस्थाएं संचालित की जा रही हैं और उनसे अपराधी बालकों का बड़ा ही उपकार होता है।

स्वाभाविक आवश्यकताओं की पूर्ति होना अपनी अनेक स्वाभाविक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिये बालक को दूसरों पर आश्रित रहना होता है, फलतः उसे दूसरों के अनुसार भी अपने को व्यवस्थित करने की चेष्टा करनी होती है। इन आवश्यकताओं का तीन प्रकार का वर्गीकरण किया जा सकता है (1) शारीरिकजैसे भोजन, जल नींद तथा अन्य शारीरिक सुविधाएं। (2) आत्मा-सम्बन्धीजैसे दूसरों से प्रशंसा, राय तथा अपनत्व की भावना पाने की इच्छा। (3) सामाजिकजैसे दूसरों के कार्यों में हाथ बटाने हेतु कुछ सामाजिक कौशल प्राप्त करने की इच्छा। ये स्वाभाविक आवश्यकताएं बालकों के विभिन्न व्यवहार और कार्यों के लिये अभिप्रेरणाएं हो जाती हैं। इन अभिप्रेरणाओं की क्रियाशीलता में जब कभी किसी प्रकार की बाधा उपस्थित होती है तो बालक एक तनाव में जाता है। यदि यह तनाव गहरा हुआ और यदि उसकी आवश्यकताओं की पूर्ति नहीं होती तो उसके व्यवहार अवांछित रुख लेने लगते हैं। स्पष्ट है कि व्यक्ति व्यवस्थापन इन आवश्यकताओं की समुचित पूर्ति पर निर्भर करता है। इन आवश्यकताओं की पूर्ति के प्रयास में अभिभावकों को यह भी याद रखना है कि उनकी अत्यधिक पूर्ति भी व्यक्तित्व के सन्तुलन को उसी प्रकार बिगाड़ सकती है जैसे उनका अवदमन व्यक्तित्व के स्वास्थ्य के लिए घातक होता है।

उपर्युक्त विवेचन के आधार पर यह कहा जा सकता है कि बालक का स्वस्थ विकास उसकी आवश्यकताओं की सन्तुलित-पूर्ति पर निर्भर करता है। यदि बालक की शारीरिक और मनोवैज्ञानिक आवश्यकताओं की पूर्ति नहीं होती तो बालक के व्यक्तित्व का स्वस्थ विकास होगा। उलझनों और परेशानियों का सामना तो सभी बालकों को कुछ कुछ करना ही होता है; परन्तु इनकी अवधि बहुत दीर्घ हो जाती है तो बालक अपराधी होने की ओर झुक सकता है। जैसे भोजन के मिलने से शरीर जर्जरित होने लगता है उसी प्रकार बालक का मन जर्जरित होने लगता है, और वह धैर्य खो बैठता है। यदि उसकी इन आवश्यकताओं की सदा समुचित पूर्ति होती रहे तो समाज में सुखी बालकों की संख्या बढ़ जाये और दुखी तथा अपराधी बालकों की संख्या घट जाये। परन्तु बालकों की मनोवैज्ञानिक आवश्यकताओं की पूर्ति नहीं हो पाती क्योंकि उनकी पूर्ति करने में प्रौढ़ों को थोड़ा आत्म-नियन्त्रण करना पड़ता है। और वे इस आत्म-नियन्त्रण में सफल नहीं होते। इच्छाओं के दमन का कुपरिणाम विविध बालकों पर विभिन्न प्रकार से पड़ता है। कुछ बहुत ही साधारण बातों से अव्यवस्थित हो जाते हैं और कुछ पर बड़ी गहरी गहरी बातों का भी विशेष प्रभाव पड़ता दिखाई नहीं देता। परन्तु हमें यह तो मानना ही पड़ेगा कि सभी बालक उन आवश्यकताओं की पूर्ति चाहते हैं जिनके लिये आज तक मनुष्य संघर्ष करता है। अतः जो बालकों के प्रति उत्तरदायी हैं उनका यह कर्त्तव्य हो जाता है कि बालक के साथ वैसा ही व्यवहार करें जैसा वे दूसरों से अपने लिये चाहते हैं।

अपराधी बालकों के उत्पन्न करने वाले मनोवैज्ञानिक कारणों की चर्चा के बाद हम नीचे उन कारणों पर दृष्टिपात करेंगे जो घर और बाह्य वातावरण तथा व्यक्तिगत बातों से सम्बन्ध रखते हैं।

अपराधी बालकों के होने का कोई एक ही कारण नहीं हो सकता। अतः किसी अपराधी बालक को पूर्ण रूपेण समझने के लिये उसकी विशिष्ट परिस्थिति का अध्ययन करना चाहिये। प्रत्येक बालक की अपनी अपनी परिस्थिति होती है। घर, स्कूल, साथी, पड़ौसी, कार्यकाल तथा अवकाश, समय आदि सभी बातों का बालकों के व्यक्तित्व-विकास पर प्रभाव पड़ता है। वर्तमान परिस्थितियों के आधार पर ही किसी बालक के अपराधी होने के सम्बन्ध में निर्णय कर लेना ठीक नहीं होगा; क्योंकि भूतकाल में जो हो चुका है उसका प्रभाव उसके व्यक्तित्व पर स्थायी रूप से जमा रहता है। अतः याद रखना है कि जन्म से ही बालक अपराधी नहीं होता। उसके अपराधी होने का प्रधान कारण उसकी परिस्थितियां ही होती हैं। केवल बाह्य रूप के देखने से अपराधी बालक को पहचान लेना अत्यन्त कठिन है; क्योंकि किसी सामान्य बालक और उसमें बाह्यतः कोई अन्तर नहीं दिखलाई पड़ता। किसी अपराधी बालक को समझने तथा उसके उद्धार के लिये हमें उसके वंशानुक्रम सामाजिक इतिहास तथा तात्कालिक उत्पादक परिस्थिति का अध्ययन करना चाहिये। उसके अपराधी होने में ये सभी कारण अपना-अपना योग देते हैं। स्पष्ट है कि अपराधी बालक एक सामाजिक समस्या है और समाज को दृष्टि में रखते हुए उसके सुधार के उपायों को हमें खोजना है।

अपराधी बनाने वाले घरेलू कारण प्रायः यह सोचा जाता है कि गरीबी बालक को अपराधी बना देती है बालक के अपराधी बनने में गरीबी का प्रभाव अवश्य पड़ता है; क्योंकि गरीबी के कारण उसकी बहुत-सी इच्छाओं की पूर्ति नहीं हो पाती और अपनी इच्छाओं की पूर्ति के लिये वह अनैतिक साधनों की ओर झुक सकता है। न्यायालय में जितने अपराधी बालक उपस्थित किये जाते हैं उनमें अधिकांश गरीब कुटुम्ब के होते हैं। परन्तु हमें यह भी याद रखना है कि धनी घर के अपराधी बालक न्यायालय में बहुत ही कम लाए जाते हैं, क्योंकि उनके अभिभावक स्वयं उस सम्बन्ध में अनावश्यक उपचार करने की चेष्टा करते हैं।

माता-पिता की बेकारी के कारण बच्चे प्रायः भूखे रह जाते हैं और वे अपनी साधारण शारीरिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिये भीख मांगने, चोरी करने अथवा कुछ ऐसे कार्यों को करने की ओर झुक सकते हैं जिनसे उनका नैतिक अधः पतन हो जाता है। बेकारी के कारण माता-पिता में बहुधा ऐसे झगड़े हो सकते हैं जिनसे घर का सारा वातावरण दूषित हो सकता है। ऐसी स्थिति के जाने पर लड़के घर को छोड़कर बाहर चले जाते हैं। बाहर जाकर वे घर की आर्थिक स्थिति को सुधारने का कुछ प्रयत्न करने में अनैतिक साधनों का सहारा ले सकते हैं।

यदि मां को घर में छोटे-छोटे बच्चों को छोड़कर बाहर नौकरी अथवा मजदूरी करने जाना होता है तो इसका प्रभाव नियन्त्रणहीन बालकों पर बुरा पड़ सकता है। मां की अनुपस्थिति में लड़के मनमानी करने लगते हैं और ऐसी आदतें सीख सकते हैं जो बाद में उन्हें अपराध करने की ओर अभिप्रेरित कर सकती हैं।

अपराधी बालकों के अध्ययन में देखा गया है कि पिता के कड़े नियन्त्रण में रहने वाले लड़के बहुधा अपराधी की कोटि में जाते हैं। पिता के कड़े नियन्त्रण से उनकी स्वाभाविक इच्छाओं का दमन होता है इस दमन के कुपरिणाम की ओर पिता का ध्यान नहीं जाता। दमन का प्रभाव कभी स्वस्थ कर नहीं होता। इससे व्यक्ति अपनी स्वाभाविक इच्छाओं की पूर्ति चुपके-चुपके अनैतिक साधनों के सहारे करने की ओर झुक सकता है। पिता के अधिकार का मन-ही-मन अथवा स्पष्टतः विरोध करते-करते उसमें सभी प्रकार के अधिकारियों के विरुद्ध हो जाने की प्रवृत्ति सकती है। इस प्रवृत्ति के कारण कोई अपराध कर बैठना उसके लिये सरल हो सकता है।

पति और पत्नी के आपसी झगड़े का बालक पर बुरा प्रभाव पड़ता है। जिन घरों में ऐसे झगड़े आये दिन हुआ करते हैं उनके लड़के अपने को अरक्षित समझने लगते हैं। इस अरक्षित भावना को दूर करने के लिये वे चोरी करना प्रारम्भ कर सकते हैं, क्योंकि चोरी से प्राप्त वस्तुओं से वे अपनी स्थिति मजबूत बनाना चाहते हैं। यदि माता-पिता के झगड़े के कारण उन्हें घर में शान्ति नहीं मिल सकती तो वे शान्ति तथा अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिये बाहर चले जाना अच्छा समझ सकते हैं। इस प्रकार का बाहर जाना उनके नैतिक विकास में बाधक हो सकता है बाल निर्देशन केन्द्रों को यह अनुभव है कि व्यवहार सम्बन्धी समस्याओं वाले बालकों में घरेलू वातावरण में सुधार कर देने से स्वतः बड़े सुधार जाते हैं।

घर में उपमाता तथा उपपिता की उपस्थिति का बालकों के विकास पर अवांछित प्रभाव पड़ सकता है। जब उपमाता अथवा उपपिता के कारण बालक पहले जैसा प्यार नहीं पाता तो उनमें संवेगात्मक तनाव जाता है और वह अपराध की ओर झुक सकता है।

घर के विभिन्न बालकों में कुछ कम कुछ अत्यधिक प्यार करने से बालकों में परस्पर ईर्ष्या और वैमनस्य जाती है। जब एक लड़के की दूसरे के सामने सदा प्रशंसा की जाती है अप्रशंसित बालक प्रशंसित बालक के ही नहीं वरन् प्रशंसा करने वाले का भी विरोधी हो जाता है। इस विरोध में वे कुछ ऐसी चेष्टा भी कर सकते हैं जिससे उन्हें कुछ प्रशंसा मिले। इस चेष्टा में उनका व्यवहार अनैतिक हो सकता है। जिन लड़कों को घर में यथोचित प्यार नहीं मिलता उनके मन में असामाजिक भावना-ग्रन्थियां घर करने लगती हैं। ये भावना-ग्रन्थियां साधारण से उद्दीपन के उपस्थित होने पर अवांछित व्यवहार की ओर व्यक्ति को अभिप्रेरित कर देती हैं जिन लड़कियों को घर में प्यार नहीं मिलता वे काम भावना सम्बन्धी अनैतिक व्यवहार की शिकार हुआ करती हैं। वे प्यार और सम्मान की भूखी हो जाती हैं और जो व्यक्ति उन्हें तत्कालिक प्यार और सम्मान देने को तैयार होता है उस पर वे सब कुछ निछावर करने को तैयार हो जाती हैं। साथ ही यही लड़कियां आगे चलकर तानाशाही विचार की होती हैं। घर में पति, बच्चों, ससुर, सास, सब पर अपनी हुकूमत चलाने की प्रबल इच्छा रखती हैं।

अत्यधिक लाड़-प्यार का भी परिणाम बहुधा अवांछित ही होता है। बच्चों की प्रत्येक इच्छा को पूरी करने की चेष्टा की जाती है और जिसके प्रत्येक इशारे पर नाचने के लिये सभी हर समय तैयार रहते हैं, उनकी दशा वास्तव में आगे चलकर दयनीय हो जाती है। घर में तो उनकी किसी प्रकार निभ जाती है, परन्तु उनका बाहर निभना अत्यन्त कठिन हो जाता है, क्योंकि बाहर समाज में उन्हें घर जैसा प्यार नहीं मिलता। ऐसे बच्चे किशोर अवस्था में जो ही मन में आता है उसी के अनुसार आचरण दिखलाने लगते हैं। बाल निर्देशन केन्द्रोंद्वारा अन्वेषण से पता चला है कि ऐसे लड़के बहुधा चोरी के अपराधी पाये जाते हैं।

जिन घरों में शराबखोरी, नैतिकता तथा निर्दयता का वातावरण बना रहता है उनके लड़के बहुधा विभिन्न प्रकार के अपराध करते पाये जाते हैं। यह इतनी स्पष्ट बात है कि इसके लिये उदाहरण की आवश्यकता नहीं। कुछ ऐसे गरीब, अनैतिक और निर्दयी माता-पिता होते हैं जो अपने बच्चों को भीख मांगने अथवा चोरी करने के लिये विवश किया करते हैं।

कुछ अन्य कारण प्रायः प्रत्येक शहर में कुछ ऐसे क्षेत्र होते हैं जिनमें विशेषतः ऐसे गरीब लोग रहते हैं जिनकी रहन-सहन को नैतिक नहीं कहा जा सकता। ऐसे लोगों के घरों के लड़के प्रायः अनैतिक कामों में लग जाते हैं; क्योंकि उनका वातावरण ही बड़ा अनैतिक होता है। मनोरंजन के लिये बुरे स्थान, जुआ खेलने का स्थान तथा वेश्यालय आदि उनके अनुभव के अंग होने लगते हैं; क्योंकि वातावरण में उपस्थित इन स्थानों का प्रभाव उनके चरित्र पर पड़े बिना नहीं रहता।

अपराधी बालकों के अध्ययन से पता चला है कि एक बालक दूसरों को किसी अनैतिक कार्य में लगाने के लिये उत्साहित करता है और अन्य अपराधी बालक अपना एक समूह बनाकर अनैतिक व्यवहार के भागी होते हैं। यह अनैतिक व्यवहार ऐसा होता है जिसे कदाचित कोई बालक अकेले करने का साहस करता। ऐसे अनैतिक व्यवहार में रेलगाड़ी पर पत्थर फेंकना, बिना टिकट रेलयात्रा करना, वर्जित जलाशयों में तैरना, वर्जित स्थानों में ऊधम मचाना तथा कहीं आग लगा देना आदि हो सकते हैं।

इस सामूहिक अनैतिक व्यवहार से यह जान पड़ता है कि यदि इन बालकों को अपने अवकाश काल को बिताने का समुचित और स्वास्थ्यकर साधन दिया जाता तो कदाचित वे ऐसे कार्यों में लगते। अतः समाज का यह कर्त्तव्य है कि वह बालक के अवकाश-काल के उपयोग के लिये उचित साधनों का आयोजन करें।

फैक्ट्री में काम करने वाले बालकों की भी दशा दयनीय होती है। फैक्ट्री में उन्हें मशीन की तरह काम करना होता है। उनकी सभी कोमल भावनाओं पर तुषारापात हो जाता है। फलतः वे फैक्ट्री में कार्य करने के बाद अनैतिक रूप में अपने अवकाश काल को बिताने की ओर झुकते हैं। अपने मनोरंजन के लिये वे अवांछित स्थानों, सिनेमा घर, ताड़ी खाना, वेश्यालय जुआघर को जाते हैं। इन स्थानों का उनकी नैतिकता पर बुरा प्रभाव पड़ता है।

धुआंधार जहरीले प्रचार बालकों को अनैतिकता की ओर प्रेरित करने में आज के जहरीले, गन्दे प्रचार साधनों का बहुत बड़ा हाथ है। कोई भी शहर ऐसा नहीं है जहां सैकड़ों प्रकार की बीड़ी फैक्ट्रियों, तम्बाकू कारखानों के प्रचार वाहन अश्लील गीत गाते हुए अपने माल का प्रचार करते हुये मिलें। जन साधारण का मन अपनी ओर लुभाने के लिये ये सब कुछ नैतिक-अनैतिक करने में तनिक भी संकोच नहीं करते। प्रायः यह देखा जाता है कि अपने साथ नाचने वाले लौंडे रखते हैं, वे विचित्र ढंग से अपने को सजाये रहते हैं। विचित्र प्रकार के हाव भाव दिखाकर आंखें मटका कर गन्दे और अश्लील, कामुकता उत्पादक गीत गा-गाकर प्रचार करते हैं। इन्हें देखते ही मुहल्ले के बच्चे उस जगह एकत्रित हो जाते हैं। बच्चों का कोमल हृदय उनकी अश्लीलता को शीघ्र ग्रहण करता है। कुछ रंगे रंगाये पोस्टर भी पा जाते हैं। थोड़ी देर प्रचार करके मोटर आगे बढ़ जाती है मगर उनकी छाप इन बच्चों पर पड़ती है। वे इसी ढंग से उन्हीं गीतों को दुहराते हैं। परिणाम यह होता है कि उनके विचार तो दूषित हो ही जाते हैं साथ ही वे बचपन से ही नशीली वस्तुओं का सेवन प्रारम्भ कर देते हैं। समाज की नैतिकता पर इन अनियन्त्रित प्रचार साधनों ने बड़ा घातक प्रभाव डाला है। यदि समय रहते इन्हें रोका गया तो अच्छाई की ओर ले जाने वाले सारे साधन इनके सामने निष्फल हो जायेंगे। इस ओर सबसे अधिक ध्यान देने का कार्य सरकार का है। जिस तरह अफीम के खुले व्यापार ने सारे चीन देश के निवासियों को अफीमची और काहिल बना दिया था इसी प्रकार का खुला प्रचार भारतवासियों को बीड़ी, सिगरेट तम्बाकू का अभ्यासी बना देगा। आज नगर तो नगर ही हैं गांव के 80 प्रतिशत बच्चे दस वर्ष से पहले ही नशीली वस्तुओं का सेवन प्रारम्भ कर देते हैं। बड़े-बड़े शिक्षाप्रद उपदेश क्यों निष्फल जायें जब बचपन से ही ये सीखते हैं प्यार किया तो डरना क्या’ ‘इस दिल के टुकड़े हजार हुए घर से जाते समय वह एक परचा रखती गई। बाद में घरवालों ने खोज किया तो उस परचे में लिखा था अब प्यार किया तो डरना क्या

इस प्रकार साधन में सिनेमा का हाथ सबसे अधिक है एक नगर में जितने सिनेमा होते हैं सबके नये चलचित्रों का रोज सजधज कर जुलूस निकलता है। आप देखेंगे इस जुलूस के साथ सबसे अधिक संख्या बच्चों की होती है। सिनेमा का प्रचारक आगे आगे लाउडस्पीकर से खेल की प्रशंसा करता जाता है, परचे बांटता है और बच्चे पीछे-पीछे दौड़ते जाते हैं। इनके जुलूसों को ये ही बच्चे सफल बनाते हैं इनके कोमल हृदय सूक्ष्म रूप से बुराई को ग्रहण करते रहते हैं और अनैतिकता की ओर तेजी से कदम बढ़ाते जाते हैं।

व्यक्तिगत कारण किसी शारीरिक दोष के कारण बालक का कोई अनैतिक व्यवहार दिखलाना अवश्यम्भावी नहीं। परन्तु शारीरिक दोष के कारण जो वह दूसरों का व्यंग सुना करता है उससे उसमें असामाजिक व्यवहार दिखलाने की प्रवृत्ति सकती है। उदाहरणार्थ जो बालक सदैव बीमार रहा करता है उसमें एक प्रकार की आत्महीनता की भावना सकती है और वह उन बालकों के प्रति विरोध भावना ला सकता है जो प्रायः स्वस्थतर होते हैं। ऐसे बालक अन्य बालकों के समूह आरम्भ कर सकते हैं अतः उन्हें अपने व्यवस्थापन में बड़ी कठिनाई का सामना करना होता है। दोनों को अपनी उम्र वाले बालकों से निभाना कठिन हो जाता है। मन्दगति से विकसित होने वाला बालक अपने को छोटा और तीव्र गति वाला अपने को बड़ा पाता है। ऐसी स्थिति में दोनों में एक प्रकार का ऐसा मानसिक असन्तोष उत्पन्न होता है जिससे अनैतिक व्यवहार की ओर झुकना कठिन नहीं होता। तीव्र गति से विकसित होने वाला बालक अपने से छोटे बालकों को विविध प्रकार से तंग कर सकता है, और मन्दगति वाला अपनी आत्महीन भावना के प्रति प्रक्रिया स्वरूप अनैतिक व्यवहार दिखला सकता है। बहुत से अन्वेषकों का कहना है कि दोष युक्त व्यवहार और मानसिक विकास की मन्दता में घनिष्ठ सम्बन्ध है। इस घनिष्ठ सम्बन्ध की यहां व्याख्या करना हमारे क्षेत्र से बाहर की बात है। परन्तु इस सम्बन्ध में इतना कह देना आवश्यक है कि मन्द बालक में अनैतिक प्रलोभनों से अपने को बचाने की सामान्य बालकों की अपेक्षा कम सामर्थ्य होती है। अतः समाज का यह कर्त्तव्य है कि ऐसे बालकों की रक्षा के लिये आवश्यक उपायों का आयोजन करें।

अपराधी बालकों के उपचार के सम्बन्ध में बेकर फाउण्डेशन, बोस्टन यू.एस.. ने कुछ सुझावों का प्रतिपादन किया है। इन सुझावों का नीचे संक्षेप में उल्लेख किया जा रहा है

1—बालक की रुचियों के साथ माता-पिता की सहानुभूति का भी अध्ययन करना चाहिये।

2—माता-पिता को अपने व्यवहार में अपराधी बालकों के प्रति कड़ा नहीं होना चाहिये।

3—बालक की शारीरिक और मानसिक लीलाओं को समझना चाहिये।

4—निर्दयता पूर्ण व्यवहार को बन्द करना चाहिये।

5—कोसना, तरह-तरह की बातें कहना, धिक्कारना बन्द करना चाहिये।

6—ऐसे बच्चों को हर अवसर पर कुछ रियायतें देना चाहिये।

7—माता-पिता को अपने उत्तरदायित्त्व को निभाना चाहिये।

8—बालक के अपराध को मामूली समझना चाहिये।

9—कौटुम्बिक गलत फहमी को दूर करना चाहिये।

10—काम सम्बन्धी भावनाओं के प्रति माता-पिता को मनोवैज्ञानिकी और स्वस्थ विचार रखना तथा इस सम्बन्ध में बालक और बालिकाओं की जिज्ञासा को शान्त करना चाहिये।

11—उचित घरेलू वातावरण उत्पन्न करना चाहिये।

12—कुटुम्ब के अन्य सदस्यों के अनैतिक व्यवहार को बन्द करना चाहिये।

13—कुटुम्ब के उन सम्बन्धियों को निकाल देना चाहिये जिनका बालकों पर बुरा प्रभाव पड़ता है।

बालकों की अपराध प्रवृत्ति को रोकने के लिये किसी एक ऐसे उपाय की चर्चा नहीं की जा सकती जो हर स्थिति में लागू हो, क्योंकि उनकी अपराध प्रवृत्ति के कई कारण होते हैं। इस सम्बन्ध में रुचि रखने वालों को सभी उपलब्ध साहित्य से परिचित होना चाहिए जिससे इस सम्बन्ध वाली आधुनिक विचारधारा से वे अवगत हो सकें।

अपराध प्रवृत्ति को रोकने का कार्य बालक के जन्म के पूर्व ही प्रारम्भ कर देना चाहिये। शिशु के गर्भ में जाने के बाद माता के स्वास्थ्य पर विशेष ध्यान देना चाहिये। जन्म के बाद लालन-पालन इस प्रकार का हो कि शिशु अच्छी ही आदतों को अपनाए। इस सम्बन्ध में नर्सरी स्कूलों की उपयोगिता से इन्कार नहीं किया जा सकता।

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