बालकों का भावनात्मक निर्माण

बच्चों के प्रति हमारा कर्तव्य और जिम्मेदारी

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बच्चों की देखभाल, पालन-पोषण करने में विकसित व्यक्ति को ही अपना चातुर्य और अपनी योग्यता पर्याप्त मात्रा में लगानी पड़ती है। इसलिये छोटे बच्चों की देखभाल अल्पविकसित एवं विकासशील बड़ी आयु के बच्चे को सौंप देना बिल्कुल ही अस्वाभाविक होगा। हर बच्चे को प्रारम्भिक सहानुभूति पूर्ण समझदारी की बड़ी जरूरत होती है और यह उसे किसी अनुभवी व्यक्ति से ही मिल सकती है। मेरे विचार से किसी बच्चे पर घर को अकेला छोड़ देना या उस पर पूरा खाना बनाने का काम छोड़ देना या सारे घर की सफाई का काम उस पर डाल देना आदि कुछ ऐसी जिम्मेदारियां हैं जो उगते हुए बच्चे के लिए बहुत भारी होती है और उन पर नहीं डाली जानी चाहिए।

जब बच्चे कुछ बड़े हो चलें तो उनसे यह आशा की जा सकती है कि वे अपने कपड़े और खिलौने साफ रखें अपना हाथ मुंह अपने आप धोकर सफाई से कपड़े पहन लें। लेकिन ऐसा करने के लिए उन्हें आरम्भ से तैयार करते रहना चाहिए कि वे अपना काम आप कर लें और जहां तक हो सके बड़ों की सहायता के आसरे में रहें। बच्चे कुत्ते, बिल्ली जानवर भी बड़े चाव से पालते हैं। तो यह भी करना चाहिए कि वे अपने जानवर की देख-भाल खुद करें। ऐसा कर सकना हर छोटे बच्चे के लिए बड़ा कठिन होता है और उसे उस क्षेत्र में स्वतन्त्र बना देने के लिए यह आवश्यक है कि उसे आरम्भ में काफी मदद दी जाये। इस सम्बन्ध में सफाई करना और खाना खिलाना ये दो ही ऐसी बातें हैं जो नियमित रूप से होनी चाहिए। जब शुरू में कोई जानवर पालता है तो उसका पालन पोषण उत्साह-पूर्वक करता है लेकिन ज्यों ज्यों समय बीतता है उसका उत्साह ठण्डा पड़ता जाता है और उसे उस काम में ऊब हो जाती है।

बच्चों को क्रमशः रुपये पैसे का मूल्य और उपयोग करना भी सिखाना चाहिए। वह दुनिया में कमाने वाले व्यक्ति की हैसियत से पैदा होता है इसलिए यह बड़ा जरूरी है कि उसे इस काम का अनुभव हो। ऐसा अनुभव होने की दशा में उसे बड़ी कठिनाई होगी। बच्चे से पैसा खर्च करवाने की आदत उसे शुरू से डलवानी चाहिए। और ध्यान रखना चाहिये कि वह हर मुद्रा का उचित मूल्य समझने लगे। उससे पैसा बचाने का अभ्यास भी कराना चाहिए। आजकल बच्चों के लिये पैसा बचाने की कई सरकारी योजनाएंअल्प बचत योजना आदि चली हैं, यह सब बालकों के लिए बड़ी उपयोगी सिद्ध हुई हैं। इनमें बच्चों की रुचि प्रारम्भ से पैदा करने से यह लाभ होता है कि बच्चे फिजूल-खर्ची की आदत से बचकर पैसा बचाने की आदत डालते हैं। बचपन में बड़ी यह आदत आगे के जीवन में बड़ी सहायक सिद्ध होती है। मैंने एक बच्चे को देखा जिसके माता-पिता ने बचपन से उसे पैसा दिये जाने वाले जेब खर्च में से कुछ बचाकर पोस्ट आफिस में जमा करने की टेव डाल दी थी। तेरह-चौदह वर्ष की आयु तक वह बच्चा इतना धन इकट्ठा करने में समर्थ हो गया कि उसने अपनी जमा पूंजी से ही 400) की लागत का एक रेडियो खरीदा। लेकिन सब से बड़ी बात जो उसमें मुझे देखने को मिली वह थी कि वह बड़ा मितव्ययी बन गया है। यदि माता या पिता को कहीं फिजूल खर्ची करते देखता है तो उसे उन पर क्रोध आने लगता है। इसलिये स्वावलम्बन की भावना पैदा करने में यह अभ्यास बड़ा उपयोगी है। पैसे द्वारा बच्चे से उसके मन की चीज भी खरीदवानी चाहिए। परन्तु बच्चे से यह आशा नहीं करनी चाहिये कि वे अपनी आवश्यकता की मूल्यवान चीजें भी इसी प्रकार खरीद लेंगे।

बच्चों को यह शिक्षा तो प्रारम्भ से ही मिलनी चाहिए कि वह अपने समय का सदुपयोग किस प्रकार करें और कौन-कौन से कार्य करें। आजकल बच्चों को केवल अपनी छुट्टी के समय बल्कि स्कूल में पूरे दिन इस बात की स्वतन्त्रता दी जाने लगी है कि वे अपना काम चुन लें। यह अवसर माण्टेसरी आदि पद्धतियों के जरिये कराया जाता है। ऐसा करना बच्चे के लिए उपयोगी होता है, क्योंकि बच्चे में खेल जैसा उत्साह ही हर काम के लिए रहता है और वह शिक्षा के मामले में भी अपना उत्तरदायित्व समझने लगता है। कला संगीत, काव्य, हस्तउद्योग आदि के प्रति लोगों का सम्मान बढ़ता ही जा रहा है। इसलिए बच्चों के लिये इनमें से अपनी रुचि के किसी भी विषय में योग्यता प्राप्त करने का द्वार खुला रहता है और अन्य तरह की सुविधाएं भी बढ़ती जाती हैं।

हम बड़े बच्चों से यह आशा नहीं करते कि वे बहुत क्रोधी हों, आपस में बुरी तरह लड़े, एक दूसरे से जलें-कुढ़ें और मार पीट करें या एक दूसरे को तंग करें। हम आशा करते हैं कि वे शान्त स्वभाव के सम्मिलित मनोवृत्तियों वाले व्यवस्थित चित्त के युवक हों। हमें उनसे कभी निराशा होगी यदि हमने शुरू से ही बच्चों को अपना आचरण स्वयं निर्धारित करने का अवसर दिया हो। घर या स्कूल में सबके लाभ के लिए आवश्यक नियम उन्हीं से बनवाएं और उनको बड़ों के प्रतिबन्धों से क्रमशः छुड़ाकर स्वतन्त्र और निर्भर होने की शिक्षा दें। सम्भव है कि अपने उच्च और महत्त्वाकांक्षा पूर्ण प्रयत्नों में हमेशा सफल हों, कभी उनसे भूलें भी हों, उनमें दोष भी जाएं, वे छोटे-मोटे कामों में यहां अनुत्तीर्ण भी हो जायें लेकिन इतना निश्चित है कि वे पारस्परिक बन्धुत्व और स्नेहशीलता के द्वारा किशोरावस्था में भी कठिनाइयों के समय रास्ता निकालना सीख लेंगे।

माता-पिता के गृह कार्यों में बच्चों को भी सम्मिलित होना चाहिए। किन्तु उन पर इस प्रकार के दबाव नहीं डालना चाहिये, अपितु नम्रता और शिष्टतापूर्वक उनसे इस कार्य के लिए कहना चाहिये। ऐसा देखा जाता है कि जब हम किसी टूटी कुर्सी की मरम्मत करने लगते हैं, तो बच्चे भी स्वेच्छा से उसमें हाथ बटाना पसन्द करते हैं। जहां तक बालिकाओं का प्रश्न है वे भी माता के साथ खाना बनाने में अधिक सन्तुष्ट होती हैं बशर्ते कि मां उनसे फुसला कर काम ले और उन्हें नई वस्तुओं के तैयार करने का ढंग बतलाती रहे। हमें बालक बालिकाओं से व्यवहार करते समय समरसता का अधिक ध्यान रखना चाहिये। यदि हमारा ध्यान बालक की ओर अपेक्षाकृत अधिक है तो बालिकाएं अपने को उपेक्षणीय मानने लगती हैं। हमें इस बात का सतत् प्रयास करना चाहिए कि बालिकाओं को इस भावना का अनुभव भी हो सके। परिवार में यदि बालक-बालिकाएं दोनों हैं तो गृह कार्य का समान अंश दोनों को देना चाहिए।

हमारे देश में अधिकांश घरों में बच्चों के पालन-पोषण का स्तर बहुत निम्नकोटि का है। उसके लिये माता-पिता की आर्थिक कठिनाइयां इतनी दोषी नहीं हैं जितनी कि बच्चों के प्रति माता-पिता की उपेक्षा उनके प्रति अपने कर्त्तव्यों की अज्ञानता तथा बाल-विज्ञान से अनभिज्ञता। बच्चे का जन्म उनके लिये एक आकस्मिक घटना है मानों इसमें उनका कुछ हाथ ही नहीं है। वह उनके लिये एक पवित्र एक धरोहर होकर ईश्वर की ओर से भेजा हुआ एक खिलौना मात्र है, जिससे वे अपने ढंग से खेल सकते हैं। ऐसे माता-पिता द्वारा पाले गये बच्चे की वही दुर्दशा होती है जैसी कि एक कार की किसी अनाड़ी ड्राइवर के हाथ में पड़कर। वह स्वयं को दोष देकर कार के पुर्जों को अपने ढंग से कसता और ढीला करता है। जब कार थोड़ी दूर चलकर फिर रुक जाती है तो वह उसे एक मुसीबत समझ कर किसी प्रकार ढकेलता हुआ ले जाने को लाचार होता है।

अधिकांश स्त्रियां शारीरिक और मानसिक रूप से इस गौरवशाली भार को संभालने में असमर्थ और अयोग्य होती हैं कि वे मां बन जाती हैं। ऐसी स्थिति में उनके लिए शिशु पालन का कार्य एक आनन्द का हेतु होकर गले पड़ा ढोल बन जाता है। फलस्वरूप बच्चे की शारीरिक और मानसिक शक्तियों का विकास सुचारु रूप से नहीं हो पाता। पौधा पनपने से पहले ही अपने पाले में ही मुरझा जाता है या फिर उसकी शक्तियां बहुमुखी होकर विकसित नहीं हो पातीं। उदाहरणार्थ यहां के अशिक्षित धनी वर्ग के बच्चे अथवा सोसाइटी में तितली कहलाने वालियों के ‘‘डार्लिंग बेबी’’ को देखिये। एक ओर जहां ऐसे सेठ महाजनों के बच्चे केवल सहज बुद्धि और परम्परागत रीति-रिवाजों के अनुसार ही पाले जाते हैं तथा माताओं के आलस्य और मोह वश वे हर तरह से एक समस्या बने हैं, वहां दूसरी ओर इससे विपरीत तितली माताओं के बच्चे आया और नौकरों की बेपरवाही या आवश्यक रोक-रोक के कारण, स्वाभाविक सुविधाओं से वंचित, जन्म ही से डाक्टरों के मरीज बने हुये हैं।

बच्चों के विकास के लिये ये दोनों ही प्रकार की परिस्थितियां हानिकारक और अप्राकृतिक हैं।

पशुओं और पक्षियों के बच्चों का पालन-पोषण मनुष्य के बच्चों से कहीं अधिक प्राकृतिक ढंग से होता है। यही कारण है कि उनके बच्चों में अपनी जाति के स्वाभाविक गुण और संस्कार स्वस्थ रूप से चले रहे हैं। परन्तु मनुष्य का बच्चा अपने माता-पिता के आडम्बर, आलस्य, स्वार्थ तथा अज्ञान का शिकार बन जाता है। बहुत कम माता-पिता बच्चे की शक्ति, रुचि और योग्यता का अध्ययन करके उसके अनुरूप प्रेरणा देने और वातावरण पैदा करने की चेष्टा करते हैं। अधिकांश व्यक्ति अपने बच्चों को अपनी सुविधा, रुचि तथा जरूरत के अनुसार ढालने का प्रयत्न करते हैं। यही कारण है कि उनके बच्चे प्रतिक्रियावादी बन जाते हैं।

माता-पिता को यह बात नहीं भूल जानी चाहिए कि जिस प्रकार क्यारी का प्रत्येक पौधा विकास सम्बन्धी अपनी विशेषता रखता है, उसी प्रकार बच्चा अपनी शारीरिक और मानसिक शक्ति में एक दूसरे से भिन्न हो सकता है। यही कारण है कि कोई विशेष वस्तु या तरीका किसी बच्चे को माफिक बैठ जाता है और किसी को नहीं। कोई बच्चा जल्द दांत निकाल लेता है, छः महीने की आयु में बैठने लगता है, सालभर की आयु में चलने लगता है, और जल्दी बोलना भी सीख जाता है, जबकि कई बच्चे इन कामों को जरा देर से करते हैं। पर केवल इन्हीं बातों पर किसी बच्चे को स्वस्थ या अस्वस्थ नहीं मान लेना चाहिये तथा सफाई सम्बन्धी कुछ नियम और बच्चे की आवश्यक जरूरतों का ध्यान तो हर सूरत में रखना ही चाहिए।

प्रेम, प्रोत्साहन, सम्मान तथा सुरक्षा की गारन्टीइन बातों की आवश्यकता बड़ों से भी अधिक बच्चों को है। एक अनचाहा और उपेक्षित बच्चा सहज ही एक रोगी और समस्या-पूर्ण बच्चा बन जाता है। प्रतिकूल वातावरण के कारण कई होनहार बच्चों की शक्तियां कुण्ठित या गुमराह हो जाती हैं जबकि कई दुर्बल और अस्वाभाविक बच्चे भी अनुकूल वातावरण में पनप जाते हैं। यह अनुकूल वातावरण पैदा करना ही माता-पिता का काम है। बच्चों को हर समय नकारात्मक नियमों से जकड़ बन्द करना उचित नहीं है, बड़ों के उदाहरण ही ऐसे होने चाहिए कि उन्हें यथा समय ठीक ढंग से काम करने की प्रेरणा मिलती रहे। बच्चे का घर में रहना बड़ों के लिये एक चेतावनी है। मानो वह पुकार कर कहता है देखो सम्भलकर रहना, तुम्हारी हरकतों का मैं आइना हूं, जैसा तुम करोगे, मुझे भी वैसा ही करता पाओगे।’’

बच्चे के विकास में पिता भी बहुत बड़ा पार्ट अदा करता है। पिता के द्वारा दी गई प्रेरणा, सुझाव और सहयोग बच्चे के लिए बहुत महत्वपूर्ण हैं। माताओं की भूल के कारण अधिकांश पिता बच्चे के लिए डांटने और सजा देने वाले दरोगा मात्र बनकर रह जाते हैं ऐसी भूल करके माताएं अपना महत्त्व भी कम करती हैं।

बहुत कम घरों में सहयोग से काम होता है। अगर माता-पिता दोनों में से एक शासक है और दूसरा शासित अथवा दोनों में प्रायः मतभेद रहता है, तो इसका बच्चे पर बड़ा बुरा प्रभाव पड़ता है। दो अमली राज्य में भला कौन प्रजा सुखी हुई है? बच्चे की समझ में नहीं आता कि किसकी बात ठीक समझूं और किस की गलत। फलस्वरूप वह मनमाने ढंग से व्यवहार करने लगता है।

इसलिए विवाह करने से पहले प्रत्येक युवक और युवती के लिए यह आवश्यक है कि वे माता-पिता के कर्तव्यों को समझें। बच्चों का पालन-पोषण, बच्चों की समस्याएं, तथा बच्चों का शिक्षण इन तीन मुख्य विषयों की उन्हें अच्छी जानकारी होनी चाहिए, ताकि आगे जाकर जब उनके अपने बच्चे हों तब वे सन्तोषजनक ढंग से उनका पालन-पोषण कर अपने गृहस्थ जीवन को सुखद और सफल बना सकें। अब युग का यह तकाजा है कि कोई भी स्त्री अनचाहे बच्चे की मां बनने की गलती करे। मां-बाप बच्चे के केवल शरीर के ही अपितु उसके चरित्र के भी निर्माता हैं। इस दृष्टि से मातृ-विज्ञान कि शिक्षा प्रत्येक व्यक्ति के लिए आवश्यक होनी चाहिए।

बच्चों के संग तो प्रत्येक व्यक्ति का सम्पर्क प्रायः रहता ही है। घरों में, स्कूलों में, मोहल्लेटोलों में, सभी जगह बच्चों से वास्ता पड़ता है। बच्चों के सम्पर्क में आने वाले व्यक्ति ही उनको अपने उदाहरण और बातचीत तथा व्यवहार से प्रभावित करते हैं। जिन व्यक्तियों का बच्चों पर प्रभाव पड़ता है, अगर वे बाल मनोविज्ञान से अपरिचित हैं, तो संभव है कि वे बच्चों को अपनी हरकतों से गुमराह करदें, फिर चाहे यह प्रभाव परोक्ष रूप से पड़ता हो, चाहे प्रत्यक्ष रूप से। पालकों और अध्यापकों के असहयोग से बच्चे कि कितनी हानि होती है, इसे जब तक पालक और अध्यापक नहीं समझेंगे, बच्चों की शिक्षा सुचारु रूप से नहीं हो सकती। बच्चे को केवल स्कूल भेज देने से ही पालकों का कर्त्तव्य समाप्त नहीं हो जाता। बच्चे की रुझान उसकी अड़चनें तथा असुविधाओं को समझने की योग्यता प्रत्येक मां-बाप में होनी चाहिए अन्यथा वे अध्यापक को सहयोग नहीं दे सकते।

अधिकांश घरों में बच्चे की अनसुलझाई हुई समस्याएं, पारिवारिक सुख-शांति को नष्ट करती हैं। मां-बाप में परस्पर गलतफहमी पैदा हो जाती है। वे एक दूसरे को दोष देकर खुद बरी होना चाहते हैं। बच्चे शारीरिक और मानसिक रूप से प्रायः स्वस्थ ही जन्मते हैं। पर मां-बाप की भूलें, बेपरवाही, अत्यधिक लाड़-प्यार तथा अधीरता उन्हें बिगाड़ देती है। वे समस्यापूर्ण बन जाते हैं। वास्तव में समस्या-पूर्ण मां-बाप के बच्चे ही समस्यापूर्ण होते हैं।

केवल धन ही पारिवारिक जीवन को सुखी नहीं बनाता। असल में धन है सुसन्तान। आप कल्पना करें कि किसी धनी, मां-बाप की परेशानियों की, जोकि अपने कपूतों के कारण चिंता सागर में गोते खाते रहते हैं। अच्छे बच्चे घर के रत्न हैं। पर उन रत्नों को गढ़ने और बनाने का श्रेय माता-पिता रूपी जौहरी को ही दिया जाता है। बच्चों के प्रति अपने कर्त्तव्यों को समझने पर प्रत्येक माता-पिता अपने इन रत्नों को अधिक से अधिक सम्भाल और परख करना सीख जायेंगे। आदर्श बच्चे कोई कल्पना की चीज नहीं हैं। प्रयत्न से सभी बच्चे नेक और अच्छे बन सकते हैं।

आये दिन देश डंगे, समाज में उच्छृंखलता, स्कूल और विद्यालयों में विद्यार्थियों की उद्दण्डता तथा पारिवारिक जीवन में जो कलह बढ़ रही है, उन सबके मूल में हैं बच्चे की अनसुलझाई छोड़ी हुई समस्याएं। मनोवैज्ञानिकों का कहना है कि मनुष्य की शारीरिक और मानसिक सभी व्याधियों का सम्बन्ध बचपन की घटनाओं से होता है। बचपन के प्रारम्भिक पांच वर्षों में बच्चों के चरित्र की जो नींव पड़ती है, उसकी छाप आगे जाकर जीवन भर उनके चरित्र पर बनी रहती है। अगर घर के प्रतिकूल वातावरण के कारण बच्चा असहनशील और स्वार्थी बन गया है, तो इसका कटु अनुभव बच्चे के संगी साथियों, पत्नी तथा उस बच्चे के बच्चों तक को होगा। इसके विपरीत बच्चा अगर अपने मां बाप को परस्पर सहयोग प्रेम और समझदारी से अपनी गृहस्थी चलाते, कठिनाइयों को मिलकर सुलझाते, साथ ही अच्छे पड़ोसी और नागरिक के कर्त्तव्य निभाते देखता है, तो वह स्वयं भी अपने संगी साथियों, पत्नी बच्चों के प्रति कर्त्तव्यपरायण और सहनशील बनेगा।

इन सब बातों को समझते हुए माता-पिता और गुरु का यह कर्त्तव्य है कि बच्चों को ऐसी शिक्षा दें, उनके प्रति ऐसा व्यवहार करें और ऐसे उदाहरण पेश करें कि उनका भविष्य-जीवन सफल और सफल और सुखद बन सके।

बच्चों पर जब तक वे छोटे हैं, माता के चरित्र का बहुत प्रभाव पड़ता है। संसार में जितने महापुरुष हुए हैं उनके जीवन चरित्रों से इस बात की पुष्टि होती है कि उनकी माताओं ने बचपन में उनको स्फूर्ति और प्रेरणा दी तथा उन्हें आदर्शवादी बनाया। अधिकांश माताएं यह समझती हैं कि बच्चे को नहला धुला, खिला-पिला देना, या बीमारी में उसकी सेवा करना अथवा किसी पड़ोसी के आक्षेप करने पर उससे लड़कर अपने बच्चे को सही प्रमाणित करने की चेष्टा करना, उसके लिये धन जोड़ना, तथा बड़े होने पर उनका विवाह कर देना, बस इसी प्रकार के कुछ अन्य फर्ज पूरे करना ही उनका काम है। उनके चरित्र निर्माण में आमतौर से माताएं कुछ भी दिलचस्पी नहीं लेतीं। आरंभ में अधिक लाड़-दुलार तथा पक्षपात से जब उनके बच्चे बिगड़ कर जिद्दी रोदूं, मुंहफट, बदमिजाज तथा उद्दण्ड बन जाते हैं, तो वे उसे बाल-लीला समझकर टालने की चेष्टा करती हैं। बड़े होकर यही बच्चे मां बाप का अपमान करते हैं, तब आजकल की पढ़ाई, जमाने की हवा तथा नई सभ्यता को कोसा जाता है, या फिर बहू के सिर पर बुराई रख दी जाती है।

कई बार ऐसा देखने में आया है कि बचपन में बाप की डांट डपट से डरकर और मां के अनुरोध से पिघलकर, बच्चा बिल्कुल दबा सा रहता है। जैसे-जैसे वह बड़ा होता है अपने संगी साथियों तथा अन्य सम्बन्धी नवयुवकों की देखा−देखी वह भी आत्म निर्भर होकर कुछ स्वतन्त्रता प्राप्त करने और अपने दृष्टिकोण को प्रकट करने के लिए उतावला हो उठता है। पर डिक्टेटर पिता को उसका यह रुख असहनीय हो जाता है। वह उसकी पढ़ाई का खर्चा बन्द कर देने की धमकी देता है तथा माता की ओर से भी बच्चे पर दबाव डलवाता है, डराता, धमकाता है। ऐसे बच्चे मां के रोने धोने से पिघल कर और बाप की नाराजगी से डर कर दब्बू बने रहने में ही अपनी कुशल समझते हैं विवाह के पश्चात् इनकी स्त्री को भी दब्बूपन का अभिनय करना पड़ता है इसी पराधीन वातावरण में इनके बच्चे भी होते हैं। वे भी अपने मां-बाप को लाचार-सा पाते हैं, उनमें से कुछ उन्हीं के सदृश्य दब्बू बनकर अविकसित रह जाते हैं। कभी-कभी ऐसा भी होता है कि अपने इस दब्बूपन में बच्चों के असहयोग तथा स्त्री के प्रतिरोध करने पर बाप का पुरुषत्व चोट खाकर प्रतिक्रियावादी हो जाता है, और वह बहुत बुरी तरह से अपने मां बाप की उपेक्षा करने लगता है। यही कारण है कि आजकल बहुत से मां बाप अपने सीधे साधे दब्बू बच्चे को विवाह के पश्चात् प्रतिक्रियावादी पाते हैं पर इस बात का सारा दोष बहू पर थोप दिया जाता है।

अगर बचपन में ऐसे नेक बच्चों के प्रति समझदारी से व्यवहार किया जाय, बाप की डिक्टेटरशिप और मां की लाचारी से दबाकर अगर उनका व्यक्तित्व कुचलने दिया जाय, तो ऐसे बच्चे बड़े होकर मां-बाप के सच्चे सहयोगी और मददगार प्रमाणित हो सकते हैं।

गुटबन्दी का बुरा प्रभाव अधिकांश घरों में एक प्रकार की गुटबन्दी देखने को मिलती है। बच्चे देखते हैं कि हमारी मां, बाप से बहुत से बातें छिपाती है, उनसे छिपाकर घर में चीजें आती हैं, हिसाब किताब बढ़ा-चढ़ाकर बताया जाता है, और इस प्रकार से जो धन बचाया जाता है उसे मां, बाप से चोरी छुपे खर्च करती है। बाप अगर चार-दिन के लिए बाहर चला जाये तो मां अपने पीहर वालों को बुलवा भेजती है। सिनेमा-तमाशे तथा शॉपिंग जाने का प्रोग्राम भी बाप की अनुपस्थिति में ही बनता है और इस बात में बच्चे का सहयोग लिया जाता है। अगर छोटे बच्चे को इस स्थिति से लाभ हुआ, तो वह चिढ़कर पिताजी से सारी पोल खोल देता है। उस समय घर में जो कलह मचती है उसका पूरा-पूरा कारण नासमझ बच्चे की समझ में नहीं आता। पर वह इतना तो समझ ही जाता है कि मां ने कोई अपराध किया है। भविष्य में मां बच्चे-बच्चियों को अधिक फुसलाने की चेष्टा करती हैं और उन्हें भी बहानेबाजी करने का पाठ रटाया जाता है। इस प्रकार बच्चे बहानेबाज़ और प्रपंची बन जाते हैं।

इसके अतिरिक्त कई जगह स्थिति ऐसी भी होती है कि गृहिणी की घर में अधिक चलती है। अधीन सम्बन्धियों के बच्चे उसकी आलोचना और ईर्ष्या के पात्र बनते हैं। बहू या देवरानी से बदला लेने के लिए वह अपने बच्चों से मदद लेती है। ये छोटे बच्चे घरों में सी.आई.डी. का काम करने के लिए प्रेरणा पाते हैंभैया से भाभी ने क्या बात की? भाभी ने कहां चिट्ठी लिखी? किसके साथ घूमने गई? बाहर जाकर क्या खाया? क्या खरीदा? चाची ने अपने बच्चों को क्या दिया? चाचा ने क्या कहा? आदि खबरें लाने का काम इन्हीं बच्चों का होता है। कुसंस्कारों से ये बच्चे इतने झूठे और बदतमीज बन जाते हैं कि बड़ों-बड़ों की इज्जत धूल में मिला देते हैं। चुगलखोरी, बात बतंगड़ बनाना, ईर्ष्या, द्वेष, घृणा, ठगबाजी, झूठ, मक्कारी, मुंहजोरी आदि की शिक्षा उन्हें अनजाने में माता से ही मिलती रहती है। परन्तु तारीफ यह कि अधिकांश माताएं इस कटु सत्य को स्वीकार करना नहीं चाहती।

बड़ों की आपसी बातचीत स्त्रियां एक मूर्खता और करती हैं, जहां चार मिलकर बैठीं कि घर के झगड़े, परिजनों की आलोचना, गोपनीय बातों की चर्चा और गन्दे हास-परिहास वे छोटे-छोटे बच्चों के सामने ही करने लगती हैं। फलस्वरूप छोटी उम्र में बच्चों को बड़ों की बहुत सी पोल तथा सेक्सविषयक बातों का पता चल जाता है। उत्सुकता वश वह कच्ची उम्र में ही परस्पर उसकी चर्चा करते हैं और ऐसे भी प्रमाण मिलते हैं कि वे क्रिया रूप में भी उसका अनुभव प्राप्त करने को उत्सुक रहते हैं। अपरिपक्व आयु में सेक्सकी उत्सुकता को जाग्रत करने का दोष भी माता-पिता को ही है। बच्चों को नासमझ जानकर उनकी उपस्थिति में अशिष्ट हरकतें कभी भूलकर भी नहीं करनी चाहिए। प्रेम की उच्चता और पवित्रता का अनुभव बच्चों का मां बाप के व्यवहारों से ही होता है। बच्चा बड़ों के व्यवहार को चाहे पूर्ण रूप से समझ सकता हो, परन्तु इतना वह अवश्य ताड़ जाता है कि अमुक व्यवहार बुरा है और उससे छिपाने की चेष्टा की जा रही है। बड़े होकर बाल्यकाल की वह स्मृति फिर जाती हो जाती है और तब बच्चा अपने बड़ों की हरकतों की व्याख्या करके, उन्हें निकृष्ट समझने लगता है।

बच्चों से इस प्रकार के प्रश्न भी नहीं पूछना चाहिए जिससे उनकी सेक्ससम्बन्धी उत्सुकता जागे यथा तुम कहां सोते हो? तुम्हारी मां कहां सोती है? तुम्हारे पिताजी तुम्हें प्यार करते हैं?’ काफी उम्र तक बच्चे परिचित स्त्री-पुरुष को देखते हैं, उन्हें या तो वे अपने मित्र या चाचा-चाची समझते हैं। एक बार एक छोटी लड़की अपनी मां से बोली मां आपके पीछे कोई मिलने आये थे।नाम पूछने पर उसने बताया एक थी ममी, एक थे डेडी और साथ में था एक प्यारा सा बेबी।इससे अधिक परिचय प्राप्त करने की आवश्यकता नहीं समझी।

कुछ अशिक्षित माताएं बच्चों को प्यार करते हुए कहती हैं, ‘हमारे बच्चे को दुलहन मिलेगी, गुड़िया सी, भैया दुलहन को प्यार करेगा, मैं कल परसों ही इसका ब्याह करूंगी।आदि खेल-खेल में प्यार में अन्धेपन में मूर्खता से हम बच्चे को तमाम बुरी बातें सिखा देते हैं। मां या बाप का कोई रिश्तेदार जैसे बहनोई, साला आदि आते हैं तो अपने बच्चे से उनको गाली दिलवाते हैं। कितनी जहरीली ये बातें हैं।

पक्षपात पूर्ण व्यवहार का बुरा परिणाम कभी-कभी व्यक्तिगत लाभ के लिए बड़े बच्चों के चरित्र का खून कर देते हैं। किसी से बदला लेने के लिए या किसी को बुरा भला कहलाने के लिए मां या बड़े बहन-भाई बच्चों को अपना गवाह बनाकर अपनी बात को पुष्ट करने का पाठ रटा देते हैं। ऐसे तमाशे सार्वजनिक पार्कों में आम तरीके से देखने को मिल जाते हैं।

एक बार एक सेठ जी का बच्चा आंख मिचौनी खेलते समय ग्राउन्ड के आस-पास खिंची हुई तार में से निकल करके भागने लगा तार से उसकी जंघा में लम्बी सी खरोंच गई। दूसरे दिन जब सब बच्चे खेल के लिए इकट्ठे हुए तो उस सेठ वाले बच्चे की मां अपनी देवरानी के लड़के रामू को पकड़ कर लाई और बोली, ‘बहन जीमैं इसे मारे बिना नहीं छोड़ूंगी, इसने कल मेरे बच्चे की जंघा में बड़े जोर से काट खाया था। सेठ जी ने इसे खूब पीटा है और कहलवाया है कि आप इसे क्लब से निकाल दें।

कान के ऐंठे जाने से रामू का मुंह लाल हो गया था, वह डर कर रो रहा था, इंचार्ज, महिला ने लपक कर रामू को सेठानी के चंगुल से छुड़ाया और सेठ के बच्चे की ओर ताका। वह डरकर सहमा हुआ-सा एक बड़ी लड़की के पीछे छिपने की चेष्टा कर रहा था। महिला ने उसे दमदिलासा देकर सामने बुलाया और नेकर उठाकर उसकी खरोंच सेठानी जी को दिखाते हुए कहा, ‘‘बड़े अफसोस की बात है सेठानी जी आपने पूरी जांच किए बिना ही रामू को सजा दिलवाई। आपने यह तो देखा होता कि यह खरोंच है, दांत का काटा हुआ नहीं है।’’

सेठानी जी झट बात पलट कर बोली, ‘‘दांत से नहीं तो नाखून से नोचा होगा, यह रामू बड़ा पाजी है।’’

जब उस महिला ने कहा कि, ‘‘यह चोट तो कल तार से लगी है और मैंने उसी समय उस पर टिंचर भी लगा दी थी’’ तब वह बोली ‘‘खैर तार से ही सही, पर रामू ने ही धक्का दिया था’’ अब वह महिला उस सेठ के बच्चे की ओर मुड़ी ‘‘क्यों महेन्द्र! यह कैसी बात है? कल तो रामू धाई बनकर खड़ा था उसने तुम्हें किस समय धक्का दे दिया?’’

महेन्द्र ने आंखों में आंसू भरकर कहा, ‘‘मां ने कहा था कि रामू का ही नाम लगा देना, नहीं तो तुझे पीटूंगी।’’

अब तो सेठानी जी खिसयानी-सी होकर लगी महेन्द्र को झूठा, दगाबाज बनाने। सेठानी जी की झेंप को मिटाने के लिए क्लब इंचार्ज ने कहा, ‘‘आपको बच्चों की बातों में नहीं पड़ना चाहिए, खेल-खेल में चोट लग ही जाती है। ऐसी बातों का गिला नहीं किया जाता और नहीं बड़ों तक शिकायत ही करनी उचित है।’’

दूसरे दिन सुना गया कि जब रामू और महेन्द्र हाथ में हाथ डाले घर पहुंचे तो सेठानी जी ने रामू को यह कहकर दो थप्पड़ लगाये कि तेरी संगति में रहकर मेरा बच्चा बिगड़ गया है। जिस क्लब में तेरे जैसे कमीने खेलते हों वहां मैं इसे नहीं जाने दूंगी।’’

क्लब में जाना बन्द होने से महेन्द्र बड़ा छटपटाया, कुछ दिन तो वह मन मार कर रह गया, फिर उसने मां से भी एक चाल खेली बोला, ‘‘अगर तुम मुझे क्लब में नहीं जाने दोगी तो पिता जी से तुम्हारी रोज चोरी-चोरी चाट खाने की पोल खोल दूंगा।‘‘ अब सेठानी जी को दबना पड़ा।

आये दिन, इस प्रकार की घटनाएं परिवारों में होती हैं और बच्चों पर उनका बहुत बुरा प्रभाव पड़ता है। बच्चे के चरित्र की आधार शिला बाल्यकाल में ही रखी जाती है। बच्चों को आदर्श बनाने के लिए माता-पिता का चरित्र भी आदर्श होना चाहिए, साथ ही घर का वातावरण भी बहुत स्वस्थ और सुखद होना आवश्यक है। पिता के द्वारा शासित और अपमानित माता या माता के द्वारा दबाया हुआ पिता दोनों ही बच्चों के पथ प्रदर्शन बनने में असमर्थ हैं। माताएं बच्चे के डराने के लिए भी कहती हैं ‘‘ठहर जा, आने दे अपने पिताजी को आज तेरी हड्डियां तुड़वाई तो कहना, तूने तो नाकोंदम कर दिया है। ठहर, अब अगले महीने से तुझे स्कूल भेजूंगी, वहीं मास्टर साहब के डण्डे से तू सीधा हो जायेगा।’’

जो माताएं बच्चों को इस प्रकार धमकाती हैं, वे अपना महत्व तो कम करती ही हैं, क्योंकि बच्चा मां को दुर्बल समझने लगता है, साथ ही साथ वह मार से काबू में आने का आदी हो जाता है। दूसरी बात मां की धमकी से पढ़ाई और स्कूल बच्चे के लिए एक हौवा बन जायेंगे, फिर भला पढ़ाई की ओर उसकी रुचि कैसे जाग्रत होगी?

माता-पिता के अतिरिक्त अन्य परिजनों के व्यवहार का भी बच्चों पर प्रभाव पड़ता है। अगर बड़ा भाई क्रोधालु स्वभाव का है घर में उसकी धांधली चलती है, तो छोटा बच्चा भी वैसा ही होगा। अगर बड़ी जीजी झगड़ालू और काम चोर है, तो छोटी बच्ची में भी वे दोष सहज ही जायेंगे। संगी-साथियों की देखा-देखी बहानेबाजी तथा गाली गलौज करना, झूठ बोलना, परस्पर लड़ना-झगड़ना आदि बातें बच्चे भी सीख जाते हैं। घर के वातावरण की छाप बच्चों पर इतनी स्पष्ट होती है कि किसी भी बच्चे को देखकर आप उसके रहन-सहन और माता-पिता के आदर्श तथा विचारों का सहज ही पता लगा सकते हैं।

अनेक सावधानी बरतने पर भी अगर बच्चों में दोष रह जायें, तो उसके कारण को खोजकर उनकी समस्याओं को सहानुभूतिपूर्वक सुलझायें। डांट-डपट द्वारा बच्चे की बुराई चाहे कुछ समय के लिये दब भले जाये, परन्तु उसका पूरा इलाज नहीं हो पाता। यही कारण है कि बड़े होकर वह फिर अधिक भयंकर रूप में उभर आती है। बच्चे स्वयं एक खुली किताब हैं। आप उनमें दिलचस्पी लें, उनकी उलझनों को सहानुभूतिपूर्वक सुनें और धीरे-धीरे उनकी भावनाओं का विकास करते चलें तभी आज का बालक कल की एक महान प्रतिभा के रूप में व्यक्त हो सकता है। 

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