बालकों का भावनात्मक निर्माण

पुरुषार्थ और परिश्रम

<<   |   <   | |   >   |   >>


पिछले अध्याय में यह बताया गया है कि युग के अनुसार मान्यताएं एवं धारणायेंपरिवर्तित होती रहती हैं। कालचक्र हर अच्छे बुरे को फलने-फूलने का अवसर देता रहता है। आज से कई वर्ष पूर्व परमहंस बाबा राघवदास जी भूदान-पदयात्रा में हमारे जन-पद में आये थे। अपने प्रवचन में उन्होंने भी इसी मत का प्रतिपादन करते हुए कहाकि प्राचीन काल में वह व्यक्ति समाज का आदर्श माना जाता था, जो धनुर्विद्या में सर्वश्रेष्ठ होता था। मध्यकाल में तलवार का धनी व्यक्ति श्रेष्ठ माना जाता रहा। अंग्रेजी शासन काल में हमारी मान्यता ने फिर करवट ली। तो धनुर्धारियों की महिमा रह गई और तलवार धारियों की, वरन् जो भाषण देने की कला में प्रवीण हो, वह श्रेष्ठ माना जाने लगा। दूसरे इस काल में बाबूगीरी को प्रोत्साहन मिला समाज का बड़ा आदमी वह बना जो अपने हाथों से कोई काम करे। जिसके यहां कोई खिदमतगार सेवा के लिये लगा हो, जो अपने हाथ से एक तिनका भी छुए। इस मर्यादा ने सब पर अपना प्रभाव डाला। बच्चों का पालन-पोषण भी इसी दृष्टि से होने लगा, वे अधिक से अधिक नाजुक बदन बनाए जाने लगे। अक्षरज्ञान में प्रवीणता की ओर अधिक ध्यान दिया जाने लगा और रचनात्मक प्रतिभा अथवा कामकाज करने की ओर कम। खेती, वाणिज्य, व्यवसाय आदि पेशे निम्न कोटि के माने जाने लगे। इनको करने वाले, छोटे किसान और व्यापारी सर्विस पेशा वालों के सामने नीचे माने जाने लगे। लेकिन युग तो करवट लेता रहता है। मान्यताएं बदलती रहती हैं एक के गर्भ से दूसरे का जन्म होता रहता है। स्वतन्त्र भारत के साथ कुछ नयी मान्यताएं बनीं। अब श्रम और सेवाका युग आया है। जो व्यक्ति अपने हाथों अधिक से अधिक काम करता है वह समाज में आदर्श पुरुष माना जाने लगा है और जिसने समाज की सेवा में अपने व्यक्तिगत सुख और सम्पन्नता का परित्याग किया, उन्हें समाज ने श्रेष्ठता की उपाधि से विभूषित किया।

अधिक बोलने वालों की महिमा अब धीरे-धीरे कम हो रही है। जनता यह स्वीकार करने लग गई है कि वे केवल वाचालहैं। नित्य-प्रति देखते हैं कि जिस प्रकार आज से दस वर्ष पूर्व नेताओं की मीटिंगों में भीड़ इकट्ठी होती रहती थी, अब नहीं होती। बड़े-बड़े नेता आते हैं परन्तु जनता में कोई उत्साह नहीं होता। लोग मीटिंगों और सभाओं से ऊब गये हैं। अब उन लोगों की प्रतिष्ठा बढ़ने लगी है जो रचनात्मक प्रतिभा अपने में रखते हैं और जन-साधारण की सच्ची सेवा करके उनके स्तर को उठाने की ओर कार्यरत हैं। वह समय लद गया, जब काम करने वाले और दूसरों पर अधिकाधिक आश्रित रहने वाले ऊंचे माने जाते थे। ऐसे राजाओं, महाराजाओं के लड़के अब बाजारों में इधर-उधर घूमा करते हैं, कोई उन्हें आदर की दृष्टि से नहीं देखता। अब युग आया है कि अपने हाथों काम करने वाले और स्वावलम्बी जीवन बिताने वाले समाज के श्रेष्ठ पुरुष माने जाते हैं। यह निश्चित है कि स्वतन्त्र भारत के विकास के साथ इस मान्यता की अधिकाधिक पुष्टि होगी।

घर का धन्धा भी देखें बच्चों को इसी मान्यता के अनुसार ढालने की जरूरत है। इसके लिए सबसे बड़ा काम यह है कि शुरू से ही बच्चों में काम करने की आदत डालें। जिसके यहां जो पेशा होता हो, अपने बच्चों को उसमें लगाने की चेष्टा करनी चाहिये। 14-15 वर्ष का बच्चा इस योग्य होता है कि मां-बाप के काम में कुछ हाथ बंटा सके। मेरे यहां एक अच्छे कृषक पाण्डेय जी का बच्चा पढ़ता है। जब भी हमें उनके घर जाने का अवसर मिला, हमने यही देखा कि कहीं वह लड़का भैंस बांध रहा है, कहीं बैलों को चारा दे रहा है तो कहीं खेत में सिंचाई कर रहा है। पढ़ाई के समय के बाद नित्य सवेरे शाम वह अपने गृहस्थी के कामों में हाथ बटाता है। उसकी यह आदत हमें बहुत अच्छी लगी। इसके विपरीत ऐसे भी युवक मिले हैं जिनके मां-बाप आर्थिक दृष्टि से अधिक सम्पन्न नहीं हैं बेचारे शाम तक कड़ी मेहनत करके अपनी जीविका चलाते हैं, पेट काट कर किसी प्रकार बच्चे को ऊंची शिक्षा दिलवाने में प्रयत्नशील हैं लेकिन उनके बच्चे के मन में यह धारणा बैठ गई है कि अब तो वह बी.. में पहुंच गया। बड़ा आदमी बन गया है। अपने हाथों काम करने में उसके मित्र उस की हंसी उड़ायेंगे। इसी मिथ्या धारणा में वे छुट्टियों के दिन घर पर पड़े-पड़े सोया करेंगे, या गांव में इधर-उधर मटरगस्ती में अपना समय काट डालेंगे। उनकी आंखों के सामने ही घर के अन्य लोग बेचारे मेहनत करते रहेंगे लेकिन वे उनके कामों में तनिक भी हिस्सा बटाने की इच्छा तक प्रकट करेंगे। उनके इस दोष के कारण घर वाले भी उन्हें सम्मान अथवा प्यार की दृष्टि से नहीं देखते, गांव के भी सभ्य लोग इस बात को अच्छा नहीं समझते। इसलिए मां-बाप को बचपन से ही इस ओर ध्यान देना चाहिए। पढ़ाई कोई कोल्हू के बैल जैसी तो है नहीं कि उससे छूटने के बाद बैल से कोई काम लिया जाय। सरकार भी अब इस ओर अधिक ध्यान दे रही है। स्कूलों में प्रसार योजनाएं चालू की गईं हैं। कुछ कुछ कृषि की शिक्षा हर स्कूलों के साथ इसीलिए लगाई गई है ताकि भारत का मुख्य पेशा कृषि की ओर बच्चों का ध्यान आकर्षित किया जाय। अब तरह-तरह के उद्योग खोलकर बच्चों को उसमें लगाया जाता है। गांधी जी के बेसिक शिक्षा के सिद्धान्त कर्म द्वारा शिक्षाको सबसे यही स्वीकार किया है और उसके अनुसार स्कूलों में थोड़ा बहुत परिवर्तन हुआ भी है।

1—सरकारी प्रयास तभी कुछ सफलीभूत हो सकता है जब अभिभावकों का पूरा-पूरा सहयोग उसे मिले और अभिभावकों का सबसे बड़ा सहयोग यह है कि बच्चों को अपने व्यवसाय एवं गृहस्थी के कामों में अवश्य लगायें। स्कूल से सवेरे शाम मिलाकर चार-पांच घण्टे का समय मिलता है, इसमें से बच्चों के विश्राम एवं मनोरंजन खेलकूद के लिए भी समय दिया जाना चाहिये लेकिन कम से कम एक दो घण्टा तो नित्य उन्हें कृषि, गो-सेवा दुकानदारी अथवा कला कौशल के कामों में लगाना ही चाहिए। इस बात की सतर्कता मां-बाप अवश्य बरतें कि उनके निर्बल कन्धों पर कोई भारी बोझ डालदें। जैसेकृषक अपने बच्चों से बोझ ढोने अथवा सिर के ऊपर कोई वजनदार चीज लाने ले जाने का काम सौंपें। सिर पर बोझा ढोने का प्रभाव मस्तिष्क पर पड़ता है, जिससे उसका विकास अवरुद्ध होता है और परिणामतः बच्चा बन्द-बुद्धि हो जाता है। दूसरे भारी काम करने से बच्चे की रुचि भी उस ओर से हटने लगती है।

2—बच्चों में अपने पैतृक पेशे के प्रति रुचि भी पैदा करनी चाहिए बच्चों को ही तो थोड़े समय बाद अपने पिता की सारी जिम्मेदारी सम्भालना है। यदि वह प्रारम्भ से उसमें रुचि नहीं लेता और ठीक प्रकार की जानकारी नहीं रखता तो थोड़े समय बाद सहसा पिता की मृत्यु अथवा किसी अन्य कारण से अचानक कोई संकट आने पर हाथ-पांव ढीले हो जाते हैं। वह हताश हो जाता है और कुछ कर नहीं पाता। इसलिए पिता को चाहिए कि वह अपने बच्चे को सब कुछ सिखाता जाए। कृषक के लड़के को पिता के साथ खेतों को देखने जाना चाहिए, पैदावार की जानकारी रखनी चाहिए। अपने गाय, बैल, भैंसों आदि की संख्या तथा उनकी अच्छाई-बुराई को समझना चाहिए। तात्पर्य यह है कि गृहस्थी के दिन प्रतिदिन के समस्त कामों का साधारण ज्ञान बच्चे को धीरे-धीरे अवश्य कर देना चाहिये ताकि वह भावी जिम्मेदारी को सम्भालने के लिये सक्षम बन सके।

3—धन और परिवार की आर्थिक परिस्थिति कितनी भी अच्छी क्यों हो और घर में चाहे कई नौकर काम के लिए लगे हों, पुत्र इकलौता होने के कारण बड़ा दुलारा हो, लेकिन समझदार माता-पिता को यही चाहिये कि बच्चे को अपने निज के सब काम करने को प्रोत्साहित करें। जैसे स्नान के बाद धोती धोने का काम नौकर को नहीं, बच्चे को स्वयं करना चाहिए। हाथ-मुंह धोने तथा नहाने के लिए पानी नल अथवा कुंए से उसे स्वयं निकालना चाहिए। अपना बिस्तर स्वयं बिछाना चाहिये। अपने छोटे-छोटे काम बच्चे को स्वयं करने रहने की आदत पड़े। इससे उनमें स्वावलम्बन की भावना आती है, बच्चा परमुखापेक्षी नहीं होता। आगे चलकर आज की यह छोटी आदतें उसके बड़े काम की सिद्धि होती हैं। जो माता-पिता दुलार की अधिकता के कारण बच्चों को तो कुछ नहीं करने देते और स्वयं उसके सब कामों को करके उसके प्रति स्नेह-भाव का प्रदर्शन करते हैं, वे स्वयं जानबूझ कर बच्चे के पैर में कुल्हाड़ी मारते हैं। उसके भावी जीवन को सुख और शान्तिमय बनाने के लिये उसे स्वावलम्बी बनना आवश्यक होता है।

4—बच्चे के दृष्टिकोण को बदलना चाहिए- श्रम के प्रति जो उपेक्षा भाव आज व्याप्त है, लोग उसे नीची निगाह से देखते हैं, यह हीन भावना बदलनी चाहिये। अपने बड़प्पन की कसौटी अब काहिली नहीं कर्मठताहोनी चाहिये। जो आदमी बड़ा काहिल, अपने हाथों अपना कोई भी काम कर सकने में असमर्थ, वह बड़ा नहीं, वरन् दो कौड़ी का है, यह विचार अच्छी तरह बच्चे के हृदय में बिठा देने चाहिए। चलते समय, अपने छोटे-छोटे सामान अपने हाथों उठा ले जाने में युवकों को श्रम और संकोच करने की अब जरूरत नहीं है और उनकी प्रतिष्ठा पर किसी प्रकार की आंच आती है।

ईश्वरचन्द्र विद्यासागर के जीवन से आज के युवकों को शिक्षा लेनी चाहिए। वे विद्या के सागर थे मगर सदैव साधारण वेष-भूषा में रहना उन्हें प्रिय था। प्रथम साक्षात्कार में देखने मात्र से उनकी योग्यता एवं महानता का परिचय लगाना कठिन था। वे एक दिन ट्रेन से किसी बड़े शहर को जा रहे थे। जब गाड़ी रुकने पर वे वहां उतरे तो क्या देखा कि एक युवक भी उसी गाड़ी से उतरा है, उसके पास एक अटैची है जिसे स्टेशन से थोड़ी दूर आगे तक ले जाने के लिये वह कुली की खोज कर रहा है। युवक द्वारा थोड़ी देर तक प्लेट फार्म पर जोर-जोर से पुकारने पर भी कोई कुली मिल सका। युवक बेचारा बड़ा निराश सा लगने लगा था। इतने में ईश्वरचन्द्र जी उसके सामने आये और उसकी अटैची उठाकर अपने कन्धों पर रखकर युवक से चलने का संकेत किया। युवक ने समझा कि कोई कुली होगा। वह आगे-आगे चलने लगा और पीछे-पीछे अटैची लिए हुए विद्यासागर जी। जब युवक अपने गन्तव्य स्थान पर पहुंचा तो अटैची उतरवा ली और वह विद्यासागर जी को पैसे देने लगा लेकिन उन्होंने लिये। दूसरे दिन उसी शहर में विद्यासागर जी का भाषण होने वाला था ईश्वरचन्द्र विद्यासागर जी के नाम तथा योग्यता से सभी पढ़ा-लिखा समुदाय परिचित था। वह युवक भी उनके भाषण को सुनने के लिए गया। अपार भीड़ थी उनके दर्शनों के लिए। जब विद्यासागर जी मंच पर आये तो जहां हजारों ने उन्हें देखकर करतल ध्वनि की, उस युवक बेचारे के आश्चर्य का ठिकाना रहा। उसने देखा कि यह तो वही कुली है जो कल मेरी अटैची लाया था। शर्म के मारे वह बेचारा धरती में गड़ गया। जब सभा समाप्त हुई तो वह अपने हृदय की भारी वेदना लिये हुए जाकर विद्यासागर जी के चरणों पर गिर गया। विद्यासागर जी ने पहचान कर उसे गले लगाया और कहा—‘बेटा, तुम राष्ट्र के भावी कर्णधार हो, तुम्हारे ऊपर ही देश की भारी जिम्मेदारियां आने वाली हैं। यदि तुम अटैची का हलका बोझ अपने कन्धों पर नहीं उठा सकते तो देश की भावी जिम्मेदारियों का बोझ कैसे उठा सकोगे? युवक ने सब कुछ समझ लिया। उस दिन से उसने अपना सारा काम स्वयं करने का संकल्प किया जिससे उसकी योग्यता तथा प्रतिभा में भी निखार आया।

आज के युवकों को भी विद्यासागर जी के आदर्श से प्रेरणा लेनी है। आज दासता वाला युग लद गया। एक समय था, जब हम अपनी सारी कठिनाइयों के लिए अंग्रेजी सरकार का मुंह ताका करते थे। उसे ही दोष भी दिया करते थे। अब तो देश स्वतन्त्र है, हम अपने भाग्य के निर्माता स्वयं हैं। अपनी सारी परेशानियों, कष्टों, अभावों को स्वयं ही तो दूर करना है। अपने ही पैरों पर खड़ा होने से अपनी मंजिल तय होगी। अपने ही हाथों करने से अपने कार्य पूरे होंगे, अपने ही सोचने और समझने से बुद्धिमानी का मार्ग प्रशस्त होगा, फिर क्यों भावी भारत की सुन्दर कल्पना के लिए हम अपने युवकों को उस दिशा में समुचित प्रेरणा दें। 

<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:







Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118