आम माताओं को यह कहते सुना जाता है कि हम तो बच्चों की बीमारी से तंग आ गए। उसके खाने-पीने और पालन-पोषण पर इतना खर्च किया जाता है तिस पर भी आये दिन घर में कुछ न कुछ आफत बनी रहती है। किसी बच्चे को जुकाम है तो किसी को बुखार, एक ने अपनी हड्डी तोड़ ली तो दूसरे ने चाकू से हाथ काट लिया। किसी बच्चे को दस्त आते हैं, किसी के सर में भारी दर्द है। बच्चों के टान्सलों का खराब होना तो मानों एक फैशन ही चल पड़ा है। बच्चों की दुःख-तकलीफें इतनी अधिक होती हैं कि मां-बाप को घड़ी भर आराम नहीं। कई बच्चों के मां-बाप तो मानो सर पर दुःख की गठरी लिये ही घूम रहे हैं, उनकी आर्थिक दशा कितनी भी अच्छी क्यों न हो उन्हें चैन नहीं मिलता। कमाई का बड़ा भाग डॉक्टर साहब की नजर भेंट हो जाता है।
दुर्बल स्वास्थ्य का कारण — बच्चों की जितनी भी परेशानियां हैं उनका कोई कारण अवश्य है। उचित रूप से इन्हें दूर करने के लिये इन की जड़ तक पहुंचना चाहिए। नीचे लिखे कारण इन बीमारियों के सहायक होते हैं।
1—अगर बच्चे के माता-पिता का स्वास्थ्य अच्छा नहीं है तो उस का फल बच्चों को भी भोगना पड़ेगा। अपना जीवन साथी चुनने से पहले प्रत्येक स्वस्थ व्यक्ति का यह कर्त्तव्य है कि वह इस बात को भी परखें कि अमुक व्यक्ति मेरे भावी बच्चे का बाप या मां बनने योग्य है कि नहीं? इससे उत्पन्न हुए बच्चे मानसिक और शारीरिक रूप से स्वस्थ होंगे कि नहीं? इसके खानदान में कोई ऐसी बीमारी तो नहीं है, जिसका असर आगे चलकर बच्चे में भी आने की सम्भावना हो? याद रखें कि सृजन का कार्य बहुत महत्वपूर्ण है। पारिवारिक जीवन की सफलता इसी पर स्थिर है। अगर किसी व्यक्ति के बच्चे रोगी हैं तो उसके परिवार की सुख-शान्ति बनी नहीं रह सकती। दम्पत्ति की सारी शक्ति सम्पत्ति बच्चों की बीमारी ही शोषण कर लेती है। प्रथम तो उचित यही है कि दुर्बल स्वास्थ्य वाले व्यक्तियों को विवाह नहीं करना चाहिए, अगर वे विवाह करते भी हैं तो सन्तान पैदा करने की भूल कभी न करें हमारे देश में जनसंख्या की समस्या वैसे ही एक भयंकर रूप धारण कर रही है। मनुष्य की नस्ल कुत्ते-बिल्ली से भी गई बीती बनती जा रही है। तीर्थ स्थानों और मेले ठेले में पड़े कोढ़ियों को भी देखिये कि सन्तान उत्पन्न करने के कार्य को कितनी तत्परता से कर रहे हैं। बताइये बच्चे क्या बनेंगे? भारत वर्ष में इतनी बड़ी जनसंख्या के लिए भोजन जुटाना ही एक बड़ा भारी कार्य हो गया है। इसलिये यदि नस्ल का सुधार करना है तो केवल स्वस्थ दम्पत्ति ही सन्तान पैदा करें, इस बात को समझने और व्यवहार में लाने की बड़ी आवश्यकता है। पुरानी मान्यताएं अब बदलनी चाहिए कि सन्तान के बिना पिंड दान कौन देगा।
2—बच्चा जब गर्भ में हो उस समय माता का स्वास्थ्य दुर्बल हो जाने से दिनचर्या तथा भोजन के असन्तोष जनक होने, अथवा मां के आकस्मिक बीमार होने से भी बच्चे का स्वास्थ्य चोट खा जाता है। इसके अतिरिक्त प्रसव-क्रिया के अस्वाभाविक और कष्टकर होने तथा औजार की चोट लगने या आपरेशन के समय बच्चे के अंगों या सिर में चोट लगने से भी बच्चे के शारीरिक या मानसिक विकास में बाधा पड़ती है। अतएव गर्भवती के स्वास्थ्य की रक्षा बच्चे के स्वास्थ्य की ही निगरानी समझनी चाहिए।
3—जन्म के पश्चात् मां के दूध का अभाव — आज-कल पढ़ी-लिखी फैशनपरस्त माताएं अपने बच्चे को दूध पिलाने में कतराती हैं। वे इससे उनका शारीरिक सौन्दर्य बिगड़ जायेगा या उनके सोसायटी-जीवन में बाधा पड़ेगी। ऐसी स्त्रियों ने मातृत्व की महानता को नहीं समझा है। बड़े दुख की बात है कि पढ़ी-लिखी सुसम्पन्न घराने की स्त्रियां ही इस प्रकार के विचार रखती हैं। उन्हें अपने स्वास्थ्य-रक्षा तथा बच्चे के पालन-पोषण की सभी सुविधाएं हैं। अगर वे मातृ विज्ञान के अनुसार अपने बच्चों को पालें, उन्हें अपना दूध पिलायें, तो वे सब तरह से आदर्श बच्चे बन सकते हैं। मां के दूध पर बच्चे का जन्म सिद्ध अधिकार है। वही उसका प्राकृतिक भोजन है। मां के दूध से जो जीवन शक्ति बच्चे को प्राप्त होती है वह पशु या डिब्बों के दूध से प्राप्त नहीं हो सकती। इसके अतिरिक्त उस दूध से बच्चों के शरीर में एक इम्युनिटी—रोगों को परास्त करने की शक्ति पैदा हो जाती है। अस्पतालों के आंकड़ों से पता चलता है कि जो बच्चे मां के दूध पर पले होते हैं उनकी सहन-शक्ति ऊपर के दूध पर पले बच्चों की अपेक्षा बहुत अधिक होती है। वे दांत आसानी से निकाल लेते हैं, उन्हें डायरिया, जुकाम, खांसी आदि रोग प्रायः नहीं सताते। मौसमी बीमारियों का अगर आक्रमण हो भी जाय तो वे उसे आसानी से सम्हाल लेते हैं। जब कि ऊपर के दूध पर पले बच्चों का हाजमा प्रायः खराब रहता है, वे जुकाम खांसी तथा छूत की बीमारियों के जल्द शिकार हो जाते हैं। उनके चेहरे पर वह लाली तथा अंगों में वह पुष्टता नहीं होती जो कि मां के दूध पर चले किसी बच्चे में पाई जाती है। वे दांत भी कष्ट से निकालते हैं। माता के अनेक गुणों को वे पुरी तरह ग्रहण नहीं कर पाते।
अतएव अपने बच्चे में बीमारी से लड़ने की स्वाभाविक शक्ति-इम्युनिटी पैदा करने के लिए यह जरूरी है कि मां उसे अपना दूध पिलाये। बच्चे को दूध पिलाने से मां का शारीरिक सौन्दर्य निखर जाता है। वक्षस्थल उभरता है व कमर तथा पेट पतले होते हैं। इसके अतिरिक्त ऊपर का दूध पिलाने में खर्चा अधिक होता है, बोतल और बरतन की सफाई का भी खटराग रहता है। अगर वही पैसा मां के भोजन पर खर्चा जाय तो मां और बच्चे दोनों को लाभ हो।
4—यदि जन्म के पश्चात् बच्चे की देख-भाल का कार्य ऐसे व्यक्ति ने किया हो जो कि शिशु-विज्ञान से अपरिचित है, तो भी बच्चे का स्वास्थ्य सन्तोषजनक नहीं रहता। माताएं अपनी मूर्खता से स्वस्थ बच्चे को भी रोगी बना देती हैं। देखने में आया है कि पालन-पोषण सम्बन्धी भूल करने से स्वस्थ बच्चा भी शारीरिक और मानसिक रूप से रोगी बन जाता है। हमारे देश में अधिकांश बच्चे माता की भूल के कारण शारीरिक और मानसिक रूप से समस्यापूर्ण बन जाते हैं। उनकी दिनचर्या, खानपान तथा अन्य क्रियाएं ठीक ढंग से, ठीक समय पर नियम पूर्वक न होने के कारण वे अस्वस्थ ही रहते हैं।
धनाभाव के कारण बच्चों की इतनी दुर्दशा नहीं होती जितनी कि माता की अज्ञानता या उपेक्षा से होती है। वे अपने बच्चों की जरूरतों को नहीं समझतीं और न ही उन नियमों का पालन ही करती हैं जो कि बच्चों के स्वास्थ्य विकास के लिये आवश्यक है। दूध के अतिरिक्त बच्चों के लिए कुछ और भी चाहिये। वह है—
1—अपनी आयु के अनुकूल भोजन
2—नियमित दिनचर्या
3—सूरज, हवा और पानी
4—आराम और नींद
5—सफाई
6—मनोरंजन और व्यायाम
7—अनुकूल वातावरण
भोजन और नियमित दिनचर्या के विषय में पिछले अध्यायों में विस्तार से विचार हो चुका है।
सूरज और हवा — सूरज अथवा धूप न मिलने से जिस प्रकार पौधे पीले-पीले पड़ जाते हैं उसी प्रकार बच्चे भी पीले और निस्तेज पड़ जाते हैं। सूर्य की किरणें हमारे शरीर में प्राणदायिनी शक्ति और गर्मी पैदा करती हैं। जो बच्चे तंग घरों में, जहां शुद्ध हवा और सूरज की किरणें नहीं पहुंच पातीं, रहते हैं वे कई बीमारियों का शिकार हो जाते हैं। उनके फेंफड़े कमजोर रहते हैं। आंखें कमजोर हो जाती हैं। हड्डियां नर्म होकर मुड़ जाती हैं। जो बच्चे तंग गलियों में रहते हैं, जिन के शरीर पर कभी धूप नहीं पड़ती, उन्हें प्रायः रिक्टस (हड्डियों का रोग) हो जाता है। विज्ञान के इस युग में सूरज की रोशनी का महत्त्व लोग दिन पर दिन अधिक से अधिक महसूस कर रहे हैं। गांवों में यह रिवाज अब भी है कि छोटे बच्चों के तेल की लोई मल कर मां उसे धूप में सुला देती है। इससे बच्चा चाहे थोड़ा सांवला पड़ जाता है परन्तु स्वास्थ्य के लिये सूर्य सेवन बहुत लाभप्रद है। बच्चों को जाड़ों में दोपहर को तथा अन्य ऋतुओं में सुबह के समय धूप का सेवन कराना चाहिये। कुत्ता खांसी, सर्दी, जुकाम, आंखों की कमजोरी आदि में तो प्रातः काल के समय धूप का सेवन विशेष लाभप्रद बताया गया है।
साफ हवा भी बच्चों के लिये उतनी जरूरी है जितनी कि धूप। ठण्ड से बचने के लिए बहुत से लोग रजाई से मुंह ढक कर सोते हैं, बरसात में मच्छरों से बचने के लिए भी वे चादर से मुंह लपेट लेते हैं। दूषित हवा में सांस लेने से सोकर उठने पर वे ताजगी का अनुभव नहीं करते। जो बच्चे गन्दी गलियों में तथा तंग घरों में रहते हैं, वे साफ हवा के अभाव में अनेक बीमारियों के शिकार हो जाते हैं। साफ हवा में ऑक्सीजन अधिक मात्रा में होती है, ऑक्सीजन से ही हम जीवित रहते हैं। जिन लोगों का घर गलियों में है उन्हें चाहिये कि अपने बच्चों को खुले मैदान में खेलने भेजें। जाड़ों में दोपहर का समय खुली छत पर बितायें तथा अवकाश निकाल कर माताएं दोपहर को पास के पार्क, गार्डन या किसी के खेत में बच्चों को लेकर घूमने-फिरने चली जायं। शहरों में रहने वाले व्यक्ति अगर अपनी छुट्टियां गांवों में बितायें तो उनके बच्चों का स्वास्थ्य निखर आयेगा। गांवों में खाने-पीने की सुविधा होती है, साथ ही अमूल्य धूप और साफ हवा सहज ही प्राप्त हो सकती है।
सफाई — वैसे तो कहने को हमारे घरों में छुआछूत इतनी है पर सफाई की दृष्टि से हम लोगों का रहन-सहन बहुत ही गिरा हुआ है। यह बात नहीं कि केवल गरीबी के कारण लोग गन्दे रहते हैं परन्तु हमारा स्वभाव कुछ इसी प्रकार का बन गया है कि व्यक्ति सफाई और पवित्रता का सही अर्थ नहीं समझते।
हमारे अधिकांश अशिक्षित घरों का रहन-सहन गन्दा है। कुछ लोग तो अज्ञानता तथा आलस्यवश गन्दे रहते हैं और कुछ आधुनिक ढंग की सफाई को फैशनपरस्ती में गिनते हैं और अपने को लकीर का फकीर बनाये रखने में गौरव अनुभव करते हैं। घर के रहन-सहन का प्रभाव बच्चों पर भी पड़ता है। साफ-सुथरे घर के बच्चे संवारी हुई क्यारी के सदृश्य आकर्षक तथा स्वस्थ होते हैं जब कि गन्दे घर के बच्चे अंधेरी और सूखी सड़ी जगह में उगे हुए पौधों के सदृश्य पीले और मुरझाए हुए प्रतीत होते हैं।
अब सभ्यता का यह तकाजा है कि हम सफाई और पवित्रता का महत्त्व सही अर्थ में समझें। धार्मिक ढकोसलों और छुआछूत को सफाई समझना गलत है। हमारे देश के समाज और गली-मुहल्ले तभी साफ रह सकते हैं जबकि हम अपने बच्चों को सफाई से पालें उन्हें सफाई की आदत डालें ताकि वे गन्दगी से घृणा करें। अपने शरीर, वस्त्र, निवास-स्थान तथा आस-पास की सफाई को महत्त्व दें। उनकी आदतें साफ हों, विचार पवित्र हों और उनके कार्य उजले हों। गन्दगी सब बीमारियों की जड़ है। आदतें ही बच्चों का स्वभाव बनाती हैं। जो, बच्चा नियम से नित्य शौच जाता है, रोज नहाता है, जिसके ओढ़ने बिछाने तथा पहनने के कपड़े साफ, साफ बर्तनों में सफाई से बना हुआ खाना खाता है, सफाई से अपना काम करता है और गन्दगी से दूर रहता है, उससे बीमारी अपने आप ही दूर रहेगी।
बच्चों को निम्नलिखित सफाई की आदत बचपन से ही डालनी चाहिए—
1—शरीर व वस्त्रों की सफाई का ध्यान रखना।
2—खाने से पहले और बाद में हाथ और मुंह साफ करना।
3—पेट, दांतों, बालों तथा हाथों को साफ रखना।
4—निश्चित स्थान पर मल-मूत्र त्यागना।
5—आस-पास की जगह को गन्दा न करना।
6—बाजार की बनी हुई कोई चीज न खाना।
7—मुंह, नाक, कान में उंगली नहीं डालना।
8—नाक, मुंह पोंछने के लिये रूमाल का इस्तेमाल करना तथा गंदी जगह पर न बैठना।
व्यायाम व मनोरंजन — बच्चों के लिए कोई खास तरह के व्यायाम की जरूरत नहीं है। खेल कूद में ही उनकी काफी कसरत हो जाती है। आवश्यकता इस बात की है कि ऐसी खुली जगह में जहां साफ हवा और धूप आती है, बच्चों को खेलने-कूदने की सुविधा हो। स्कूल में भी बच्चों के लिये मनोरंजक खेल ड्रिल तथा ऋतु अनुसार ‘इनडोर’ या ‘आउटडोर’ खेलों आदि की व्यवस्था की जाय। हमारे देशी खेल तथा कबड्डी आंख मिचौनी, कुत्ता-बिल्ली-खो-खो तथा अन्य खेल भी व्यायाम की दृष्टि से उपयोगी तथा मनोरंजक हैं। जिन बच्चों के जीवन में खेल-कूद तथा मनोरंजन का अभाव होता है, वे सुस्त पड़ जाते हैं, उनका मानसिक स्वास्थ्य अच्छा नहीं रहता। बाद में इस का प्रभाव उनके शारीरिक स्वास्थ्य पर भी पड़ता है। छोटा बच्चा पालने में पड़ा हुआ अपने में मस्त, गर्र-गर्र शब्द करता हुआ हाथ-पांव मारता है, नहाते समय पानी में छपक-छपक करके प्रसन्न होता है। यही उस का व्यायाम है। जब वह कुछ और बड़ा हो जाता है तो पलंग पर लोट-पोट कर खेलता है, किसी वस्तु को पकड़ कर खड़ा हो जाता है। कुछ दिन बाद जब उसे चलना आ जाता है तो घुटने-घुटने खिसक कर और ठुमुक-ठुमुक चल कर व अपना व्यायाम कर लेता है। चाल में दृढ़ता आ जाने पर दौड़ना, चढ़ना, उतरना आदि क्रियाओं को करता हुआ वह काफी कसरत कर लेता है। बच्चे को नहलाने से पहले उसे तेल मलने से भी उसकी त्वचा और अंग पुष्ट होते हैं। बच्चे की खेल के प्रति रुचि और स्वाभाविक प्रफुल्लता उसे क्रियाशील बनने की प्रेरणा देती है। अतएव व्यायाम तथा खेल-कूद की रुचि का बच्चे में विकास अत्यधिक आवश्यक है। उसके लिये अभिभावकों को पूरा-पूरा ध्यान देना चाहिये।