चरित्र क्या है — वैसे तो चरित्र दो प्रकार के हो सकते हैं। सच्चरित्र और दुश्चरित्र। परन्तु आम बोल चाल की भाषा में हम चरित्र का अर्थ लेते हैं सच्चरित्रता से ही। शिक्षा विशारदों ने अच्छी आदतों को चरित्र बताया है। एक व्यक्ति जब बढ़कर बहुत से गुणों, विशेषताओं की खान होता है, उसमें सत्य, साहस, धैर्य, उदारता, प्रेम, विनम्रता, उत्साह सौजन्यता, अभयता आदि गुण जितनी प्रचुर मात्रा में पाये जाते हैं, उतना ही उसके कार्य ठोस और संसार के लिए मंगलकारी होते हैं। वही व्यक्ति चरित्रवान कहलाता है। अभयता का पाठ उपदेश से नहीं पढ़ाया जाता। वह तो स्वाभाविक गुण है। कई विषम परिस्थितियों में कई लोग अपना धैर्य नहीं खोते, आपत्तियों का पहाड़ टूटने पर भी घबराते नहीं हैं, हंस हंस कर उसका सामना करते रहते हैं। इन्हीं को हम मर्द मैदान कहते हैं। पाण्डवों पर कितनी विपत्तियां आई। इन्द्रप्रस्थ के वैभवशाली साम्राज्य को त्याग कर दस वर्षों तक वन-वन की ठोकरें खाते रहे। भूख-प्यास सही न कोई संगी न साथी। परन्तु घबराये नहीं। राम के जीवन में ड्रामा के पटाक्षेपों की तरह कितनी घटनाएं बदलीं। सायंकाल यदि युवराज पद के उम्मीदवार, स्वागत सत्कार सभी की आंखें उनकी ओर लगीं तो दूसरे ही क्षण तपसी वेष में वन की ओर जा रहे हैं। मगर इन सारी परिस्थितियों में राम ने धैर्य नहीं खोया, साहस और आत्मविश्वास को अपने हाथों से नहीं जाने दिया। इसीलिए हम उन्हें युग-युग तक के लिए समाज का प्रेरणा-स्रोत मानते हैं। वे चरित्रवान कहलाते हैं। ऐसे भी व्यक्ति हमारे सामने हैं जो तनिक-सा कष्ट आने पर बच्चे जैसा डाढ़ मारकर रोने लगते हैं। घबरा जाते हैं, हिम्मत खो बैठते हैं।
इस प्रकार की बहुत सी विशेषताएं और दुर्गुण मनुष्य के चरित्रवान होने अथवा दुश्चरित्र होने का निर्णय करती हैं।
चरित्र की आधार शिला — बड़े होकर जिन गुणों और अवगुणों को हम खिले फूल के समान देखते हैं, उनका जन्म बचपन में होता है। चरित्र पर वंशानुक्रम और वातावरण दोनों का प्रभाव पड़ता है। जैसे साखू के बीज से साखू का वृक्ष ही तैयार होगा। यह भले ही हो कि देख-भाल से वह पौधा पहले वाले वृक्ष से अधिक मोटा हो जाये अथवा उपेक्षा से कम हो जाये। इसी प्रकार माता-पिता के रूप गुण और स्वभाव को बच्चा जन्म से ही लेकर उत्पन्न होता है। यहां तो उसका बढ़ावा मात्र होता है। माता-पिता के चरित्र की विशेषताओं की छाप उस पर अवश्य पड़ी होती है। यह दूसरी बात है कि अनुकूल या प्रतिकूल वातावरण के कारण वे अधिक विकसित हो जायें या मुरझा जायें। इसलिए इस बात की बहुत आवश्यकता है कि चरित्र की बुनियाद ऐसी मजबूत और सुन्दर डाली जाये कि आगे जाकर उसी की नींव पर चरित्र का आदर्श विकास हो सके।
घर का वातावरण, अपने बड़ों का उदाहरण, माता-पिता के संस्कार तथा संगी-साथियों और अड़ोस-पड़ोस की सिखावटें आदि का बड़ा प्रभाव पड़ता है।
माता-पिता की अधिक लापरवाही, भूल और अधिक लाड़-प्यार या कठोरता से ही छोटा बच्चा भी जिद्दी, भोंदू, चिड़चिड़ा स्वार्थी, डरपोक तथा क्रोधी बन जाता है। एक बिगड़े हुये बच्चे के कारण घर भर परेशान रहता है। पति-पत्नी के मन में मनोमालिन्य छा जाता है। बच्चा उन्हें भाररूप दीखने लगता है। विशेषकर माता सन्तान प्रेम और आलोचना इन दो पाटों के बीच में दबकर बहुत लाचार होती है। बच्चा जैसे-जैसे बढ़ता है उसकी आदत बिगड़ती है और तब माता-पिता सोचते हैं, हम क्या कर सकते हैं, हमने तो इसे नहीं बिगाड़ा है, यह तो बचपन से ही ऐसा था। पिता क्रोधित होकर बच्चे को बिगाड़ने का सारा दोष माता पर मढ़ने लगता है और माता अपने को निर्दोष साबित करके पिता पर सारा दोष लगाती है। परिणाम स्वरूप उन दोनों में बच्चे को लेकर कटुता प्रारम्भ हो जाती है। लड़ाई झगड़े होने लगते हैं और प्रेम-सूत्र में बंधी हुई गृहस्थी कलह शंका, द्वेष और चिड़चिड़ेपन का अड्डा बन जाती है।
बच्चे कारखाने के पुर्जे नहीं हैं, इसलिये एक विशेष नमूने के अनुसार उनके चरित्र को ढालने की बात सोचना उपयुक्त नहीं। हर बच्चे की जन्मजात विशेषताएं प्रत्येक दूसरे बच्चे से भिन्न होती हैं। गुण, कर्म और स्वभाव में एक बच्चा दूसरे से मिलता नहीं है। मां-बाप को चाहिये कि बच्चे की इन विशेषताओं का अध्ययन करके इस बात की चेष्टा करें कि उन्हीं के आधार पर बच्चा अपने चरित्र को इस तरह ढाले कि वह अपने घर में, समाज में एक उपयोगी प्राणी प्रमाणित हो सके तथा स्थिति और समयानुसार व्यवहार करना सीख जाये। एक उपयोगी, आदर्श नागरिक एवं परिजन बनने के लिये दया, विनम्रता, निःस्वार्थता, सहनशीलता, धीरता, दूसरे के अधिकारों के प्रति सम्मान और सहानुभूति की भावना आदि गुण आवश्यक हैं। अबोध बच्चा समाज की जिम्मेदारी को नहीं समझता। माता-पिता को दैनिक जीवन में उसे इसकी शिक्षा देनी चाहिये। जो बच्चे धांधली पसन्द हैं या दूसरे बच्चों के साथ मेल-मिलाप से खेलना, खाना नहीं जानते वह अपने साथियों से सर्वथा उपेक्षित होकर दुःखी और उदास रहते हैं और अपनी झुंझलाहट प्रकट करने के लिये गाली-गलौज और मारपीट पर उतारू हो जाते हैं। कई ऐसे बच्चों को देखा है जो अच्छे बच्चों को खेलते या प्रसन्न होते देख चुपके से जाते और उन्हें मार कर भाग जाते हैं या ढकेल देते हैं। बाद में ऐसे बच्चे घर वालों को परेशान करते हैं।
जिस घर में माता-पिता में परस्पर प्रेम और सहयोग है, अन्य बच्चे तथा परिजन आपस में सहयोग और मेल से रहते हैं, घर में व्यवस्था और शान्ति है, वहां बच्चे के चरित्र का विकास सहज रूप से होता है, परन्तु घर में जब दो-अमली राज्य होता है, घर के अन्य व्यक्तियों की अनियमित दिनचर्या होती है एवं डांवाडोल स्थिति होती है, तो इस वातावरण में बच्चों के चरित्र का विकास अधूरा रह जाना स्वाभाविक है। बच्चा अपनी सुविधा, समझ और पसन्द के अनुसार ही अपने चरित्र को ढालता है। माता-पिता के स्वभाव की भिन्नता, परस्पर विरोध, पक्षपात पूर्ण व्यवहार आदि भी बच्चे को दब्बू बना देता है। कई पिता इतनी कठोरता से घर में शासन करते हैं कि उनके घर में कदम रखते ही सारे घर का वायु मण्डल घुटा-घुटा सा हो जाता है। घर की सारी स्त्रियां उनके आते ही इधर-उधर कोनों में छिप जाती हैं। कोई चूं तक नहीं बोलता। घर के अन्य प्राणियों की यह दशा देखकर बच्चे भी सहम जाते हैं। वे बिचारी माता को डर कर घर के कसूर छिपाने के लिये बहाने गढ़ते देखते हैं कभी-कभी उन्हें भी इसमें सहयोग देना पड़ता है। बाप के क्रोध को घर में कयामत बरसाते देख बच्चे दब्बू बन जाते हैं। वे डरे-डरे और मुरझाये-मुरझाये से रहते हैं। जीवन के प्रति उनका दृष्टिकोण बहुत उदासीन-सा बन जाता है और बड़े होकर भी उन पर यह उदासीनता छायी रहती है।
मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। जन्म से लेकर मृत्यु तक उसे समाज में ही रहना होता है। समाज से भिन्न होकर उसकी दशा वैसी ही हो जाती है जैसे जल से निकली मछली की होती है। वह घर और समाज में ठीक से निभ सके, अपने सुन्दर सहयोग से अपने जीवन को सुखी बनाता हुआ आस-पास भी प्रसन्नता बिखेरे इसी में उसके जीवन की सफलता है। इसी ध्येय की प्राप्ति की दृष्टि से बच्चे का चरित्र-निर्माण करना होगा। इसीलिये उसमें निम्नलिखित गुण पैदा करने का बचपन से ही प्रयास करना चाहिये।
1. हमेशा प्रसन्न रहना — प्रसन्न बच्चे हमेशा स्वस्थ रहते हैं जबकि चिड़चिड़े बच्चे हमेशा रोगी ही दीखते हैं। अतएव जहां माता एक ओर बच्चे के स्वास्थ्य की चिन्ता करती है, वहां इस बात की चेष्टा करे और साधन जुटाये कि बच्चे के आस-पास का वातावरण और लोग खुश-मिजाज और जिन्दा दिल हों। उसको हंसायें खिलायें। हर व्यक्ति जब बच्चे को प्रसन्न दिखाई पड़ेगा तो सबको प्रसन्न देख कर वह भी चहकने लगेगा। आस-पास की उदासी की छाप बच्चे पर झट पड़ जाती है। अगर मां प्रसन्न होकर बच्चे को दूध पिलाती है या उसको रिझाये रख कर उसका नहलाना तथा खिलाना-पिलाना करती है, तो बच्चा भी अपने कार्यों में दिलचस्पी लेता है, वह मन और तन से उसमें सहयोग देता है, अन्यथा वह भी झुंझलाता है जिद करता है, काम में बाधा उत्पन्न करता है और चिढ़कर माता जब उसे झकझोरती और चपतियाती है तब वह भी अधीर होकर अपनी बदमिजाजी दिखाने लगता है। उसके उत्पातों से माता ऊब जाती है वह दुखी होकर कहती है ‘‘हाय! मुझे तो इस बच्चे ने परेशान कर दिया है, कितना बुरा है। यह संभाले नहीं सम्भलता है।’’ कभी-कभी ऐसा होता है कि क्रोध में आकर मां बच्चे को खूब ठोकती है। ताव में आकर वह ऐसा कर तो डालती है परन्तु बाद में जोश ठण्डा होने पर अपने सर को पीटने लगती है, दुखी होती है। इन प्रतिकूल अवस्थाओं का प्रभाव मां और बच्चे दोनों पर पड़ता है। माता चिड़चिड़ी और बदमिजाज हो जाती है, उसका स्वास्थ्य गिरने लगता है वह चौबीसों घंटे चिंता में डूबी रहकर सोचा करती है। गृहस्थी के कामकाज उसे बोझ जैसा लगने लगते हैं। न तो ठीक समय से झाड़ू बुहारी लगाना, न चौका बरतन और न खाना बनाना बन पड़ता है। इसके लिये उसे घर भर की फटकार सुननी पड़ती है चारों तरफ से निन्दा और उपहास सुनने के कारण आपस में द्वेष भाव बढ़ते हैं। कलह प्रारम्भ हो जाती है। महाभारत ठन जाता है। फिर ऐसी माताओं के बच्चे भला प्रसन्न चित्त कैसे रह सकते हैं। सुधार की कौन कहे, उनके चरित्र में दिन प्रति दिन, गिरावट आने लगती है। वे मां और पूरे घर के लिये अशान्ति के प्रतीक स्वरूप बन जाते हैं।
मां की अधीरता का प्रभाव बच्चे पर ऐसा पड़ता है कि वह भी बहुत नाजुक मिजाज बन जाता है। जल्द ही अधीर हो जाता है। कभी-कभी पोष्टिक भोजन तथा शुद्ध हवा और मनोरंजन के अभाव के कारण भी बच्चा अशान्त दीखने लगता है। बच्चे की ‘नर्वस-सिस्टम’ बड़ों से अधिक नाजुक होती है। दूसरों की जल्दबाजी तथा अधीरता का उन पर बहुत जल्द प्रभाव पड़ता है। अतएव जहां तक हो सके बच्चे की दिनचर्या में गड़बड़ होने न दें। उसको उत्तेजना, भीड़ भाड़ तथा शोरगुल से परे ही रखें।
2. साहस — ‘बच्चे को चुप कराने’ अथवा कहना मनवाने के लिए कई माताएं या आया काल्पनिक हौआ, जूजू अथवा भूत-प्रेत या कुत्ता, बिल्ली, भकब्बा आदि तक से डराती हैं। बच्चा कहीं रोने लगा तो चट कहने लगी ‘‘चुप-चुप परेतवा आ रहा है, अभी पकड़ ले जायेगा, वह देखो अमुक पेड़ की डाल पर बैठा है।’’ कुछ समय पूर्व देहातों में चेचक का टीका लगाने वाले भी भूत-प्रेत जैसे माने जाते थे। इन्हें हथचिरवा कहते थे। बच्चे कहीं रोने लगे चट मां ने कहा अभी हथचिरवा को बुलाती हूं तुम्हारा हाथ चिरवा दूंगी, या वह तुम्हें ले जायेगा। यह सब बातें वैसी ही हैं जैसे कुछ माताएं बच्चे के रात में रोने के भय से उसे अफीम की घुट्टी दे देती हैं ताकि वह रात भर पड़ा सोता रहे। कितना भयंकर इलाज है। बच्चे के जीवन के साथ खिलवाड़ करना, उसकी शक्तियों को नष्ट-भ्रष्ट करके उसे पंगु और बुद्धिहीन बना देने के यह सब तरीके हैं। इसी प्रकार भूत-प्रेत का भय दिखाकर बच्चे के अचेतन मन पर भय का आतंक जमा देने से वह सदैव-सदैव के लिये डरपोक बन जाता है। साहस आदि गुणों का उसमें अभाव हो जाता है। गीताकार ने दैवी प्रवृत्तियों में अभयता को सर्वप्रथम माना है। भय समस्त पापों का मूल होता है। भयभीत प्राणी सब कुछ निन्दनीय कार्य करने में संकोच नहीं करता। फिर यही भय बचपन से ही खेल-खेल में बच्चे के अन्दर भर देना, कितना पैशाचिक खिलवाड़ है, योगिनियों का नृत्य है। ऐसे भयभीत बच्चों से भला समाज के आदर्श नागरिक बनाने की कल्पना कैसे की जा सकती है?
अतः यह बहुत बुरी बात है। भय के द्वारा बच्चा उस समय चाहे आप के काबू में आ जायेगा परन्तु बाद में वह इतना डरपोक हो जायेगा कि आपके आंचल में बंधा फिरेगा। आप उसे खतरे से दूर रखें, परन्तु ऐसी सावधानी भी न बरतें कि बच्चा पंगु ही बन जाये। चलते-फिरते या पालने से खेलते हुए अगर वह कभी गिर भी जाये या बीमार पड़ जाये तो ऐसे उद्गार न प्रकट करें कि बच्चे के दिल में दहशत ही बैठ जाये या वह स्वयं को एक शहीद ही समझने लगे।
3. निःस्वार्थता — बच्चा जब तक छोटा होता है, सब लोग उसका अधिक ध्यान रखते हैं, अतएव वह इसका आदी-सा हो जाता है। नन्हा मुन्ना समझ कर आप उसकी स्वार्थ वृत्ति को तरह देती रहती हैं। उसे स्वार्थी होने में लाभ दीखता है, निःस्वार्थी होने में हानि दीखती है। निस्वार्थी होने में त्याग करना पड़ता है जो कि उसे रुचिकर नहीं लगता। ज्यों ज्यों वह बड़ा हो उसे अपने संगी साथियों और अड़ौस, पड़ौस के संग मिलकर अपने खिलौनों से खेलना सिखायें। उसके हाथ से अन्य बहन भाइयों और साथियों को मिठाई या उपहार बंटवायें। छोटे-मोटे आयोजन हों, किसी दिन घर में धार्मिक आयोजन हो जैसे रामायण, कीर्तन आदि तो अपने नन्हे बच्चे को उत्साहित करें कि वह अपने मित्रों और भाइयों, बहनों को प्रसाद स्वयं दें। एक दूसरे के दुःख में सहानुभूति प्रदर्शन करना सिखायें। सुख-दुःख में वे एक दूसरे की मदद भी करें, ये सभी सामाजिक कर्त्तव्य बच्चा अपनी आयु और समय के अनुसार ही करेगा, अभ्यास से वह इन कर्त्तव्यों को करने का आदी हो जायेगा। उससे घर के कामों में भी सहयोग लें तथा अपने छोटे कुत्ते की देखभाल, अपनी गुड़िया की अलमारी को साफ करना, अपने गेंद बल्ले को संभाल कर रखना, नौकर को बुला लाना, दरवाजा बन्द करना, चीज पकड़ाना आदि छोटे-छोटे कार्य जब वह करे, आप उसके सहयोग की प्रशंसा करें। बच्चे को इस बात का बड़ा अभिमान होता है कि वह भी घर का एक उपयोगी प्राणी बने।
भूलकर भी अपने बच्चे को स्वार्थी और मतलबी बनने का आदेश न दें। प्रायः कुछ मां-बाप कह बैठते हैं ‘हमारा बच्चा बड़ा चलता पुर्जा है वह अपना मतलब निकालना खूब जानता है। उसे भोंदू न समझो।’ बस बच्चा इस तारीफ का लाभ उठाने में कभी नहीं चूकता। वह अपने बहन-भाइयों से और बड़े होकर मां-बाप से भी चालाकी खेल जाता है। भले ही चाहे दूसरे का दुगना नुकसान हो जाये, चाहे किसी बेकसूर को हानि उठानी पड़े, पर मेरा कार्य बन जाये, यही बच्चे का ध्येय बन जाता है। चाहे बच्चे के कुछ साथी उसे दुनियादारी में होशियार समझें, परन्तु मानवता की दृष्टि से यह वृत्ति हेय है।
4. दया और सहानुभूति — कई बच्चों को लंगड़े-लूले जानवरों या मोहताज भिखमंगों को परेशान करने में आनन्द आता है। किसी पगली या अन्धी बुढ़िया को सब मिल कर परेशान करते हैं। मेरे विद्यालय के कुछ छोटे छात्र निकट में ही एक धर्मशाला में रहते हैं। वहां एक बुढ़िया बेचारी रहती है, जो एक कोने में अपना काम किया करती है। यह बच्चे उसे प्रायः परेशान करते हैं। यहां तक कि रात में टार्च लेकर उसके मुंह पर लगाते हैं। उसने एक दिन हम लोगों से शिकायत की तब उस बेचारी की जान बची। प्रायः आपने देखा होगा कि बच्चे अपनी बूढ़ी दादी को खूब परेशान करते हैं। सड़क के किनारे पड़े हुए लंगड़े कुत्ते पर ईंट पत्थर की बौछार करने में उन्हें मजा आता है, किसी चिड़िया का घोंसला उजाड़ने या लाचार जीव जन्तु को कुचलने को वह एक तमाशा समझते हैं। बच्चों की ऐसी वृत्ति को प्रोत्साहित न करना चाहिये। पशु-पक्षी पर दया करना अथवा किसी असहाय की मदद करनी उन्हें सिखायें। जिन बच्चों को जानवर या पक्षी पालने का शौक होता है, वह अधिक दयालु होते हैं। महात्मा गौतम बुद्ध की बचपन की एक घटना का हाल तो प्रायः ज्ञात ही होगा। तब वे सिद्धार्थ थे और अपने चचेरे भाई के साथ खेल रहे थे। आकाश में उड़ते हंसों के झुंड पर उसने तीर मार कर एक हंस को घायल अवस्था में गिरा दिया। वह तड़पने लगा। सिद्धार्थ से न रहा गया, वे दौड़कर उसे उठा लाये और पूरी तत्परता से उसकी रक्षा की। पशु पक्षियों के साथ दया के इसी भाव ने उन्हें आगे चलकर महात्मा गौतम बुद्ध बनाया। उन्होंने बुद्धत्व प्राप्त करने के बाद कहा, ‘स्वयं को मुक्त कर लेना हमारा ध्येय नहीं है, जब तक संसार का एक भी प्राणी बन्धन में फंसा है, मैं बार-बार जन्म लेकर उसके उद्धार का प्रयत्न करूंगा।’ प्रौढ़ावस्था का तप जयघोष, बालपन के हंस-उद्धार का केवल विकसित रूप है। निर्दयी बालक बड़े होकर ऐसा नहीं कह सकते। वे तो परम स्वार्थी, महाक्रूर बन जाते हैं। दूसरों को भूखे-नंगे तड़पते देखकर उन्हें दया नहीं आती। स्वयं थाली में माल-पुआ रख कर खा रहे हों उसमें बच भी जायेगा, परन्तु सामने खड़े एक भूखे को थोड़ा भाग देने की बात वह न करेंगे। हजारों उदाहरण ऐसे मिलेंगे। एक सज्जन हम से कहने लगे कि नेपाल राज्य में एक जमींदार हैं, उनके कई बाग हैं। बड़ा आम होता है आम की फसल में। एक दिन इन सज्जन को उन जमींदार के यहां जाने का अवसर पड़ा। उन्होंने देखा कि जमींदार साहब के कोठरी में कई हजार मन आम पड़ा हुआ सड़ रहा है। उन्होंने जमींदार साहब से कहा कि ‘इतना आम व्यर्थ में क्यों सड़ा रहे हैं, गांव वालों को बांट दीजिये, बेचारे खा लेंगे’ जमींदार साहब ने उत्तर दिया ‘अरे सड़ जाने दीजिये, बांटने का नाम न लीजियेगा। आज अगर बांट दूंगा, तो इन सबको आदत पड़ जायेगी तब बाग से उठाकर आम खायेंगे।’ एक प्रकार से यह जमींदार साहेब बड़े होशियार और दूरअन्देश भी थे। ऐसे ही बहुतेरे लोग होते हैं जिनके सैकड़ों मन अनाज सड़ जाता है मगर दूसरे गरीबों को बांट देने की बात उनके मन में आती ही नहीं। अगर कोई उन्हें सुझाव भी दे तो उसका उपहास करके उसे अनुभवहीन बतायेंगे।
यह सब बचपन में स्वार्थी मनोवृत्ति को प्रोत्साहन देने का परिणाम है।
दया और परोपकार की कहानियों का बच्चों पर बहुत अच्छा प्रभाव पड़ता है। अगर बच्चा अपने से छोटे बहन-भाई या संगी साथी के प्रति निष्ठुर है तो उससे पूंछे और अनुभव भी करने दें कि अगर इसी प्रकार का व्यवहार उसके साथ किया जाये तो उसे कैसा लगेगा? इस प्रकार सोचने से उसके मन में दूसरे के प्रति दया और सहानुभूति जाग्रत होगी। अपने माता-पिता की दया-वृत्ति का बच्चों पर बहुत गहरा प्रभाव पड़ता है। गांधी जी के सत्य अहिंसा और प्रेम की बेल को उनकी दयावान मां ने लगाया था।
5. जीवन में उत्साह और दिलचस्पी लेना सिखायें — अपनी दिनचर्या, खेल-कूद, कपड़े, खिलौने, खान-पान आदि में बच्चे दिलचस्पी लें, इसके लिये उसके प्रत्येक कार्य को मनोरंजक और आकर्षक बनायें। ‘‘आज लल्ला नहाकर धुले कपड़े पहनेगा आज खीर खायेंगे-नया फुटबाल जो आया है उसी से खेलेंगे, आज तो तुम अपने मित्रों को पार्टी दोगे।’’ इस प्रकार के उद्गारों से बच्चा अपने खाने पीने तथा खेल कूद में कुछ नवीनता और रोचकता का भास पाकर दिनचर्या में दिलचस्पी लेता है। इसके अभाव में बच्चे सुस्त पड़ जाते हैं। उनमें प्राकृतिक सजीवता और जिन्दादिली नहीं रहती। उनमें तो खिलाड़ी स्प्रिट जाग्रत करनी चाहिए।
6. आत्म-विश्वास तथा आत्म-निर्भरता — योग्यता होते हुए भी आत्मविश्वास के अभाव में बच्चा यत्न नहीं करता। अपने साथियों में वह झेंपू, चिपकू और पिछड़ा हुआ रहता है। आत्म विश्वास पैदा करने के लिये प्रोत्साहन और ठीक सुझाव की आवश्यकता है। आलोचना करने और धमकाने से बच्चा प्रगति नहीं कर सकता। अगर उसका काम अधूरा रह गया हो तो आलोचना न करें, परन्तु ढंग से सुझाव दें। जैसे उसने एक गुड़िया का चित्र बनाया पर आंख या बाल बनाना भूल गया। आप कहें ‘बच्चे! गुड़िया तो ठीक बनी है, जरा इसकी आंखें और बाल भी बना दो फिर देखो कैसी अच्छी लगेगी। और हां, घाघरा तो पहनाओ। वाह! अब तो यह खिल उठी है। हमारा बच्चा चित्र कितना सुन्दर बनाता है। अपनी बिटिया से कहिये ‘‘हां बच्ची! तुम्हारा कमरा तो बहुत सुन्दर है, पर ये बिखरे हुए खिलौने खिड़की में जरा और सजा दो, बस अब तो बहुत साफ सुथरा दीखने लगा।’
बच्चा जितना अधिक आत्म-निर्भर होगा, उसका आत्म-विश्वास बढ़ता जायेगा। प्रत्येक बच्चे में कुछ न कुछ गुण होते हैं, आप उनको समझें तथा बच्चे में विश्वासपूर्वक उन्नति करने का चाव पैदा करें, ताकि अन्य बालकों के साथ प्रतियोगिता में वह भी किसी गुण में अधिक चमकने का दावा कर सके। अगर कोई बच्चा रूप में श्रेष्ठ है तो दूसरा सुघड़ाई में बाजी मार सकता है। इसी प्रकार अगर एक पढ़ाई में आगे है, तो खिलाड़ी बच्चे को खेल के मैदान में बाजी मारना सिखायें। यह तभी सम्भव है जबकि बच्चे की योग्यता का पता चलने पर आप उसे ठीक ढंग से मार्ग-दर्शन करते हुए, उसमें आत्मविश्वास पैदा करें, उसे आत्म निर्भर बनादें।
7. अगुआ बनने या नेतृत्व करने की योग्यता — आपने देखा होगा कि बच्चा जब चलना जानता है अपना प्रभुत्व जमाकर खिलौना हथिया लेता है। अपने बच्चे में आगे बढ़कर नेतृत्व करने की भावना पैदा करें, उसे प्रोत्साहन दें। झेंपू और दब्बू बच्चे जीवन में हार खा जाते हैं। बच्चों को मार पीट कर धांधली रचाने से रोकना होगा परन्तु जहां अन्य बच्चे शर्म या दब्बूपन के कारण आगे आकर प्रदर्शन करने से डरते हों, वहां बच्चे का आगे बढ़कर या प्रतियोगिता में भाग लेना प्रशंसनीय है। बच्चे को दम्भी न होने दें, पर साथ ही साथ उसके आत्म सम्मान को आघात न पहुंचायें। अपनी योग्यता को प्रदर्शन करने का प्रोत्साहन दें, हर समय किसी का पिछलग्गू बनने से बच्चे का व्यक्तित्व छिप जाता है और तरक्की रुक जाती है।
विनम्रता, शिष्टता, सुघड़ाई तथा ईमानदारी भी चरित्र-निर्माण और व्यक्तित्व के विकास में कम महत्व नहीं रखतीं। बुरे और भले काम की पहचान बच्चे छोटी उम्र में ही सीख जाते हैं। आवश्यकता केवल इस बात की है कि बच्चे को धीरता और प्यार से सब बात सिखाई जाये। भूल को इस ढंग से सुधारे कि उसको हीनता की भावना न कचोटे। उचित और प्रशंसनीय चेष्टा करने पर उसे बढ़ावा दें।
8. सद्गुणों का विकास — बच्चे में सद्गुणों का विकास हो, वे चरित्रवान बनें इसके लिये घर के वातावरण, बड़ों के उदाहरण तथा बच्चों की प्रगति इन तीनों को विशेष महत्व देना होगा, क्योंकि ये ही बच्चे के चरित्र विकास की आधार शिला है। घर का वातावरण ऐसा हो जो बच्चे की रक्षा करे, उसकी सद्वृत्ति और गति को ठीक ओर मोड़े, ऐसा न हो कि उन्हें कुंठित कर दे। माता-पिता तथा गुरु को यह बात सर्वथा याद रखनी है कि जिस तरह एक बच्चा दूसरे बच्चे से रूप, रंग तथा आकार और बल में भिन्न है उसी प्रकार योग्यता, सामर्थ्य, विकास तथा कार्य करने की रफ्तार में भी वह दूसरे बच्चे से भिन्न हो सकता है। यही कारण है कि एक बच्चा छोटी आयु में ही चलना, बोलना सीख जाता है जबकि दूसरा बच्चा देर में सीख पाता है। एक बच्चा किसी बात को जल्द समझ जाता है दूसरा देर में।
बच्चे को कड़े नियमों से जकड़ने के बदले प्रेम से वश में करना अधिक कल्याणकारी है। दो बच्चों में यदि एक बच्चा कोई बुरा काम किसी सजा के डर से नहीं करता, दूसरा बच्चा काम इसीलिये नहीं करता कि वह सोचता है कि मेरे इस बुरे कार्य से मेरे माता-पिता को दुख होगा। इन दोनों बच्चों में दूसरा बच्चा ही अधिक प्राकृतिक और सरल है।
शरीर के विकास के साथ ही बच्चे की काम-शक्ति का भी विकास होता है। उसे माता-पिता, प्रेम, दुलार, प्रशंसा, प्रिय लगती है। थोड़े समय बाद वह अपने से भिन्न लिंग (सेक्स) के रूप और गुणों की ओर आकर्षित होता है। ये सब लक्षण इस बात के द्योतक हैं कि बच्चे की काम-वृत्ति का बहुत ही स्वस्थ विकास हो रहा है। शरीर की स्वच्छता, उत्तम विचार, स्वास्थ्य की उन्नति की चेष्टा तथा आदर्श-पूजा की भावना के स्वस्थ-विकास में विशेष सहयोग देती हैं। अब आवश्यकता इस बात की है कि बच्चे के प्रेम तथा अनुराग को ऐसे व्यक्ति में केन्द्रित किया जाय जिसके अनुकरणीय व्यवहार से, आदर्श जीवन से, उसे अपने चरित्र की उन्नति करने की प्रेरणा मिले। यह वीर या आदर्श पूजा बच्चे को अपना ध्येय निर्धारित करने में बहुत सहयोग देती है।
9. घर का वातावरण — जीवन को सुखी बनाना एक कला है। इसके लिये बच्चे में सहनशीलता, कर्त्तव्यशीलता, निस्वार्थता और सहकारिता—मिलकर काम करने की भावना का होना आवश्यक है। ये सभी गुण बच्चे माता-पिता के उदाहरण से सीखते हैं। घर, बच्चों को संसार से परिचित कराने और उनके विचारों तथा आदर्शों को गढ़ने की सब से सुन्दर पाठशाला है। इसी पाठशाला में बच्चे अनुकरण से सब सीखते हैं। बड़ों के व्यवहार का बच्चा मानो दर्पण है। अगर माता-पिता सुसंस्कारी हैं, तो बच्चा भी चरित्रवान होगा, अगर माता-पिता ही झूठ, छल, प्रपंच और ईर्ष्या के अवतार हैं तो बच्चे भी वैसे ही निकलेंगे। विनम्रता, शीलता तथा शिष्टाचार का पाठ भी बच्चों को केवल दिखाने के लिये न पढ़ाया जाये, इन गुणों का अभ्यास तो दैनिक जीवन में होना चाहिये। बच्चे की योग्यता और सद्गुणों की कसौटी है उसके चरित्र की लोच, स्वभाव में सहन-शक्ति तथा धीरता। मनुष्य की जीवन-यात्रा संघर्षपूर्ण है। उसमें सद्गुणी ही सफलता प्राप्त कर सकते हैं।
दुर्बल मनुष्य परिस्थितियों का दास बन जाता है, परन्तु कर्मशील व्यक्ति परिस्थितियों से जूझ कर, उन्हें गढ़ता और संवारता हुआ अपने लक्ष्य की ओर बढ़ता जाता है। ऐसा मनुष्य अपने साथ दस अन्य को भी तार देता है। बच्चों में इसी योग्यता को पैदा करना सच्ची शिक्षा है और इसी से उनके चरित्र में दृढ़ता आती है। मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। उसे चार अन्य के साथ मिलकर काम करना पड़ता है। एक गुणग्राही, चरित्रवान तथा निस्वार्थ व्यक्ति ही दूसरों का सहयोग प्राप्त कर सकता है। उसी को नेता बनने का अधिकार भी है। जिस घर में बड़ों का व्यवहार बच्चों को, परस्पर सहयोग से काम करने, वर्तमान को सुन्दर और सफल बनाने की चेष्टा करने तथा अनिवार्य विपत्तियों का डटकर सामना करने का पाठ पढ़ाये, वहां बच्चों में सद्गुणों का विकास होते देर नहीं लगती।
पवित्रता, स्वच्छता, व्यवस्थाप्रियता, समय पर काम करना आदि बातें भी बच्चों को बचपन से सिखाई जायें। अगर शिशुकाल से बच्चा साफ सुथरे ढंग से पाला गया है, अगर उसकी दिनचर्या नियमित रखी गई है तो संस्कारवश बड़ा होकर भी वह सफाई और व्यवस्था प्रिय होगा।
एक ओर जहां माता-पिता बच्चे के शारीरिक स्वास्थ्य की ओर सजग रहते हैं, वे उसके मानसिक स्वास्थ्य को परखने की चेष्टा नहीं करते। जिस प्रकार शारीरिक बल शारीरिक स्वास्थ्य की भित्ति पर खड़ा रहता है, उसी प्रकार चरित्र की आधार-शिला मानसिक स्वास्थ्य है। वह जितना मजबूत होगा बच्चे का चरित्र भी उतना ही दृढ़ होगा और उसमें सद्गुणों का सुन्दर विकास होगा। सन्तोषजनक विकास अनुकूल वातावरण पर भी निर्भर है और इस वातावरण पर भी निर्भर है और इस वातावरण को पैदा करने का भार माता-पिता पर है। यह तभी सम्भव हो सकता है जबकि माता-पिता ठीक रीति से बच्चों को पालन-पोषण करना तथा उनकी समस्याओं को मनोवैज्ञानिक ढंग से सुलझाना जानते हों। परन्तु शिशु-पालन और शिशु-मनोविज्ञान की जानकारी ‘थ्योरी’ (सिद्धान्त रूप) में सीखने से काम ही नहीं चलेगा क्योंकि एक बच्चा दूसरे बच्चे से शारीरिक और मानसिक रूप से भिन्न हो सकता है। अतएव प्रत्येक बच्चे की समस्याओं को सुलझाने के लिये स्वतन्त्र रूप से अध्ययन की आवश्यकता है और बच्चे के विकास के अनुकूल सुधार विधि अपनानी पड़ती है।
शिशु तथा मातृ-विज्ञान से हमें इस बात का सहयोग मिलता है कि हम बच्चों का ठीक ढंग से पालन-पोषण तथा अध्ययन करना सीख जायें। माता-पिता जब वैज्ञानिक विधि और सहज बुद्धि दोनों के आधार पर बच्चों का पालन-पोषण करें तो बच्चों का विकास बहुत सन्तोषजनक हो सकता है, इसमें कोई सन्देह नहीं।
बच्चा जैसे जैसे बड़ा होता है, उसके जीवन में पिता का प्रेम और प्रोत्साहन एक विशेष महत्त्व रखने लगता है। अगर पिता एक कटु आलोचक और डांटने वाला दरोगा न होकर बच्चों के साथ प्रेम-भाव रखने वाला और उनकी कठिनाइयों को हल करने वाला साथी प्रमाणित हो तो उसके बच्चे की कल्पना और वीर पूजा की भावना को आधार मिल जाता है। ऐसे पिता का पुत्र अपने पिता के प्रति अगाध श्रद्धा अटूट प्रेम तथा सम्मान की भावना रखने वाला होता है। उसकी दुष्प्रवृत्तियां शांत हो जाती हैं। उसे अपने जीवन से स्वाभाविक रुचि हो जाती है। छोटे-मोटे अभाव उसके विकास में कोई विशेष बाधा नहीं डालते। कन्या भी अपने पिता को आदर्श मानने लगती है।
कई बार ऐसी स्थिति आ जाती है कि बच्चे को अपने मां या बाप दोनों से एक की अथवा दोनों की संगति से वंचित होना पड़ता है—जैसे माता के नौकरी करने पर अथवा देहान्त हो जाने पर, पिता के परदेश जाने पर अथवा स्वर्गवास हो जाने पर। कभी-कभी बच्चे को किसी सम्बन्धी के पास छोड़ना पड़ता है। ऐसी दशा में जहां तक हो सके बच्चे के प्रति स्नेह भाव की पूर्ति की करने की चेष्टा करनी चाहिये।
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