बालकों का भावनात्मक निर्माण

सत्य एवं शील

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बाल मनोविज्ञान के प्रसिद्ध यूरोपीय विशेषज्ञ डॉक्टर नील ने अपनी पुस्तक बाल समस्या में एक मनोरंजक घटना का वर्णन किया है। वह लिखते हैं कि एक व्यक्ति अपने बच्चे को मेरे पास लाया और कहने लगा कि इसे चोरी करने का दुर्व्यसन लग गया है आप इसका सुधार करें। मैंने बच्चे के अध्ययन के लिये उसे अपने पास ठहरा लिया। मुझे मालूम हुआ कि बच्चे की आयु 13 वर्ष की थी। इसके बावजूद उसके पिता ने उसके लिए आधी टिकिट खरीदी। और रेलवे को जानबूझ कर धोखा दिया। यह खिलते हुए नील प्रश्न करता है कि जो बाप स्वयं अपने बच्चे के सामने झूठ बोल कर पूरे के बजाय आधी टिकट खरीदता है और रेलवे को धोखा देकर हानि पहुंचाता है वह अपने बच्चे से यह गलत आशा क्यों करता है कि वह चोरी की आदत छोड़ दे।

हम यदि अपने दैनिक जीवन पर दृष्टिपात करें तो पता चलेगा कि हम स्वयं ही जानबूझ कर या अनजाने में अपने बच्चे को झूठ बोलने की शिक्षा देते हैं। उदाहरण के तौर पर जब कोई ऐसा व्यक्ति हमारे घर आए जिससे हम मिलना नहीं चाहते तो हम किसी बच्चे के मुंह से कहलवा देते हैं कि घर नहीं हैंयद्यपि हम उस समय घर ही ही होते हैं। या कभी कोई व्यक्ति कोई वस्तु मांगने आता है तो हम उसे कह देते हैं ‘‘यह तो अमुक व्यक्ति मांग कर ले गया है।’’ ऐसे अवसर पर हम यह नहीं सोचते कि घर में जितने बच्चे हैं वे सब हमारे व्यवहार से झूठ बोलना सीख रहे हैं। मजे की बात तो यह कि हम दूसरों से नहीं स्वयं अपने बच्चों से भी झूठ बोलते हैं। झूठे वायदे करते हैं और इस प्रकार उनके मन में यह बात बिठा देते हैं कि सत्य का कोई महत्व नहीं।

परन्तु यह हमें समझ लेना चाहिये कि आज का बच्चा ही कल का प्रौढ़ है और किसी व्यक्ति को सफलता इसी बात से नहीं मिल जाती कि उसने अपने स्वभाव के अनुकूल पेशा चुन लिया है। काम में प्रवीणता प्राप्त कर ली है। प्रत्येक व्यवसाय के कुछ विशेष नियम और ढंग होते हैं यदि उनका ध्यान रखा जाए तो प्राकृतिक सुझाव और प्रवीणता आदि गुण कुछ सहायता नहीं कर सकते। बहुत सम्भव है कि इन गुणों के बावजूद भी असफलता का मुंह देखना पड़े और सारा जीवन दयनीय दशा में बीते। संसार केवल यह नहीं देखता कि कोई व्यक्ति अपने काम के विषय में कितनी निपुणता प्राप्त किये हुए हैं वह यह भी देखता है कि वह अपने पेशे के व्यावहारिक नियमों से भी परिचित है अथवा नहीं।

कोई भी व्यवसाय हो उसे व्यापार से भिन्न नहीं समझा जा सकता। एक टोकरी उठाने वाला मजदूर भी वास्तव में एक व्यापारी है। वह अपना शारीरिक श्रम बेच कर जीवन यापन करता है। दफ्तर में काम करने वाला क्लर्क भी एक व्यापारी है। वह अपने मानसिक परिश्रम का बदला लेता है। और दुकानदार तो व्यापारी है ही। वह अपना माल देता और दाम पाता है। इसी प्रकार वकील, डॉक्टर, इंजीनियर सभी व्यापारी हैं। प्रत्येक व्यक्ति संसार की मण्डी में अपना माल बेचकर अपना पेट पाल रहा है। अतः यह कहना गलत नहीं कि व्यापार के नियम प्रत्येक पेशे के आधार भूत नियम होने चाहिए। किसी पेशे को इन नियमों से मुक्त नहीं कहा जा सकता।

ईमानदारी सर्वोपरि व्यवसाय के व्यवहारिक नियमों के जिक्र में सर्वप्रथम स्थान ईमानदारी का है। इसलिए नहीं कि यह एक धार्मिक आज्ञा है, और सभी धर्मों ने इसको बहुत महत्व दिया है, वेद शास्त्रों और धार्मिक ग्रन्थों में सत्य की बड़ी महिमा गाई है, वरन् इसलिए कि ईमानदारी सर्वोत्तम नीति है। इसे ठोस और दृढ़ परिणाम निकलते हैं। इसमें उन्नति का रहस्य छिपा हुआ है। ईमानदारी से अच्छा कोई विज्ञापन नहीं। इससे अच्छी कोई साख नहीं। यह मनुष्य के मानसिक और भौतिक विकास का अमूल्य नियम है।

संसार में ईमानदार व्यापारियों और कर्मचारियों की सदा मांग रही है। वह फर्म, वह दुकान, वह क्लर्क और वह मजदूर बड़ा भाग्यवान है जिसके साथ बरतने वाले लोग इसे ईमानदार समझते हैं। असफलता अधिकतर उन्हीं लोगों के हिस्से में आती है जो लेन देन के खरे नहीं होते। जो अपने असामियों, ग्राहकों और मालिकों को धोखा देते हैं। जो समय में, धन में, माल में बेईमानी को अपना स्वभाव बना लेते हैं।

कारोबार या पेशे का उद्देश्य लोगों को बुद्धू बना कर अपना उल्लू सीधा करना नहीं। यह ठीक है कि कुछ लोग चालाकी और धोखे से भी सफल हो जाते हैं। परन्तु उनकी सफलता वास्तव में कोई सफलता नहीं। एक पुरानी लोकोक्ति है और उसके ठीक होने में कोई सन्देह नहीं है कि ‘‘काठ की हांडी बार-बार ही चढ़ती।’’ बेईमानी और धोखे का भांडा एक एक दिन अवश्य फूटता है।

एक वृद्ध व्यापारी को मैं वर्षों से जानता हूं। उनका देहान्त हो चुका है। ईमानदारी उनके कारोबार का आधार भूत नियम था। वह अपने कारखाने में बढ़िया से बढ़िया माल तैयार करते थे। उनके पास जो ग्राहक आता वह बच्चा हो या बूढ़ा, अज्ञात व्यक्ति हो या अपना सम्बन्धी, सबके साथ समान व्यवहार करते। ऐसा कभी नहीं हुआ है कि कोई प्रियजन उनके निश्चित दामों में कोई कमी करवाने में सफल हो सका हो। ऐसा भी कभी नहीं हुआ कि किसी अनजाने व्यक्ति से उन्होंने कभी अधिक दाम लिये हों।

लोगों को उनके तैयार किये हुये माल और उनके लगाए दामों पर पूरा भरोसा था। उनका प्रत्येक ग्राहक उनका चलता फिरता विज्ञापन था। दूर-दूर से व्यापारी उनसे माल खरीदने के लिये आया करते थे और वह केवल इसलिए कि उनकी ईमानदारी प्रसिद्ध थी।

ईमानदारी मित्र बनाने में सहायता करती है और मित्र सफलता का मुख्य आधार समझे गये हैं। एक बार मेरे एक मित्र ने बताया कि वे एक बार एक पुस्तक विक्रेता की दुकान पर गये, उससे कुछ पुस्तकें खरीदीं। वापस आते समय वे अपना बहुमूल्य कलम उसकी दुकान पर भूल आये। उन्हें याद भी रहा कि कलम कहां रख कर भूल गये हैं। कई सप्ताह बाद उन्हें फिर उस दुकान पर जाने का अवसर हुआ। दुकानदार ने उन्हें देखते ही मेज की दराज खोली और कलम निकाल कर उनके हवाले कर दिया। मेरे मित्र के मन पर उस की ईमानदारी का गहरा प्रभाव पड़ना स्वाभाविक था। इस घटना को कई वर्ष बीत गये परन्तु वे इसे आज तक भी नहीं भूले और कभी भूल सकते हैं। साथ ही वे उस दुकानदार के स्थायी ग्राहक बन गये।

हम देखते हैं कि अंग्रेजी, जर्मनी तथा अमेरिकन माल की बाजार में बड़ी मांग रहती है। उनका मूल्य चाहे अधिक हो लेकिन भारतवासी भी उसी को खरीदना पसन्द करेंगे। इसका एक मात्र उत्तर यही है कि उनके माल में सच्चाई है। जो कुछ लिखा रहता है माल उसी तरह का होता है। इसके विपरीत हमारे देश की कम्पनियों में प्रायः अधिकांश धोखे पर अपने व्यापार को आधारित करती हैं। दियासलाई जैसी छोटी वस्तु से लेकर बड़ी-बड़ी वस्तुओं में, दवाओं में, खाद्य पदार्थ आदि सब में मिलावट ज्यादा दिखती है। यही कारण है कि अपने कारोबार को तो ख्याति दे पाते हैं उससे स्थायी रूप से धन ही कमा पाते हैं।

बच्चे सत्यनिष्ठ कैसे बनें यह बात भी विश्वास करने योग्य है कि सदा ही सत्य और असत्य कठिन होता है झूठ बोलने में, बेईमानी करने में, ठगने में, चोरी करने में, व्यभिचार में, चालाकी में, चतुराई में, होशियारी और पेशबन्दी की बड़ी आवश्यकता है। इसके विपरीत सच बोलने में पूरा तौलने में, ईमानदारी बरतने में, सदाचारी रहने में किसी खट खट की जरूरत नहीं। लेकिन संचित संस्कारों, पुरानी आदतों और वातावरण के दुष्प्रभावों के कारण सन्मार्ग पर चलते-चलते पैर फिर जाता है, आदमी सत्य के विपरीत झूठ का अवलंबन लेता है। इसलिये आवश्यक है कि बचपन से ही सत्य बोलने की आदत डाली जाए।

(1) बच्चे में सत्य बोलने की आदत डालने हेतु जो सबसे बड़ा प्रयास करना है वह यही कि मां-बाप स्वयं सच बोलें। झूठे मां-बाप अपने बच्चे में सत्य के प्रति आस्था पैदा ही नहीं कर सकते। महात्मा गांधी ने सत्य का पाठ अपने पिता से पढ़ा था। उनके पिता राजकोट रियासत के दीवान थे परन्तु सदैव सत्यता के मार्ग पर चलना उन्हें पसन्द था। एक बार सत्य बोलने के लिए उन्हें राजा का कोप भोजन भी होना पड़ा और वे जेल तक भेज दिये गये। परन्तु उन्हें छोड़ दिया गया उनकी स्थायी ख्याति हो गई। व्यक्तिगत उदाहरण सबसे महत्वशाली और प्रभावकारी माना गया है। बच्चा चाहे हजार पुस्तकों में सत्य की महिमा का प्रतिपादन करने वाले श्लोक, चौपाइयां और दोहे क्यों पढ़ ले लेकिन यदि कोई व्यक्ति अथवा उसका वातावरण सत्य की महिमा को स्वीकार नहीं करता, तो वह भी सत्य के प्रति आस्थावान नहीं बन सकेगा। मां-बाप के ज्वलन्त उदाहरण ने बालक मोहनदास करमचन्द गांधी में सत्य के प्रति निष्ठा पैदा करदी। पाठशाला में जब निरीक्षक आया तो अपने मास्टर के संकेत करने पर भी उन्होंने अपने साथी विद्यार्थी की कापी से देख कर स्पेलिंगठीक नहीं किया। यह केवल उनके माता पिता का प्रभाव था।

(2) सत्य के लिए वातावरण चाहिए। माता-पिता के उदाहरण के साथ-साथ परिवार एवं बच्चे के साथियों को भी ऐसा होना चाहिए जो सचाई को जीवन नीति समझते हों। धार्मिक भाषा में इसी को सत्संगशब्द से सम्बोधित किया गया है। जिन बच्चों को आदर्श व्यक्तियों के सम्पर्क में आने का सुअवसर बचपन से मिल जाता है, उनका चरित्र हीरे के समान चमकदार बनता जाता है। यद्यपि आज सच बोलने वालों की तुलना में झूठे लोगों की बहुतायत है फिर भी ऐसा नहीं माना जा सकता कि सच्चे लोग हैं ही नहीं। हर क्षेत्र, और हर गांव में ऐसे लोग होते हैं। मां-बाप को चाहिए कि गांव, मुहल्ले अथवा नगर के ऐसे लोगों, जिनको वह भली भांति जानते हों, उनके पास लड़के को कभी-कभी ले जोकर परिचय करादें। बच्चे के दिल में उनके प्रति आस्था पैदा करके उन्हें यह उपदेश भी दे दें कि कभी-कभी इनके पास अवश्य आया करें, ताकि उनके सम्पर्क से उसे बहुत कुछ शिक्षा मिले। दूर रहने वाले सत्यवादी और आदर्श लोगों से बच्चे का पत्र सम्बन्ध कराना चाहिए। दो चार लोगों के नाम पते यदि पिता अपने बच्चे को बताकर किसी तात्कालिक समस्या पर अपने से उनको पत्र लिखा दे तो उत्तर आने से बच्चे में स्वयं उन लोगों के प्रति रुचि पैदा होगी। तब वह उनको पत्र लिखना आरम्भ करेगा और धीरे धीरे उनके चरित्र का प्रभाव बच्चे पर पड़ता रहेगा।

(3) बच्चे के संगी साथी ऐसे होने चाहिए जैसा कि आप अपने बच्चे को बनाना चाहते हैं। लोफर, गुण्डे या फैशन परस्त, लड़कों के साथ उठने बैठने अथवा खेलने या टहलने की अनुमति आप बच्चे को कदापि दें चाहे आपको कुछ कड़ाई ही क्यों बरतनी पड़े। आप बच्चे की मुंह देखी कर उसे बुरे लड़कों के साथ सम्पर्क रखने से मना करें।

साधारणतया 14, 15 वर्ष की अवस्था होती है जब बच्चे के अन्दर उमंग होती है। वह हर अच्छाई बुराई का मजा चखने की चेष्टा करता है। सभी के सम्पर्क में आने की चेष्टा करता है। इसमें उसे कोई दोष नहीं मालूम होता। जब मां-बाप उसे किसी विशेष सोसायटी में जाने से रोकते हैं, सिनेमा अथवा नाटक देखने से रोकते हैं तो वह तरह तरह के तर्क देकर अपनी श्रेष्ठता एवं दुर्भावना को सिद्ध करने की चेष्टा करता है। मां-बाप के निर्देशों के औचित्य का अपने तर्कों से खंडन करके अपनी बात को सही सिद्ध करता है। इस आयु में बच्चों की तर्क शक्ति बढ़ जाती है। ऊंची शिक्षा और अनुभव वाले व्यक्ति तो अपने बच्चों पर तार्किक दृष्टि के प्रभाव से सफल हो जाते हैं लेकिन साधारण योग्यता वाले मां-बाप बच्चे के प्रभाव में जाते हैं। इसलिये इस अवस्था में चाहे थोड़ी कड़ाई करना पड़े मगर बच्चे को बुरी सोसायटी में उठने बैठने, खेलने आदि की अनुमति दी जानी चाहिए। उसे खेलने, घूमने, टहलने तथा मनोरंजन का अवसर दिया जाए लेकिन बुरी सोसायटी के साथ नहीं।

(4) सत्यता के मार्ग पर चल कर कठिनाइयों पर विजय प्राप्त कर सफलता पाने वाले भूत तथा वर्तमान कालीन व्यक्तियों के उदाहरण भी बच्चे के सामने रखने चाहिए। ऐसे लोगों के जीवन चरित्र पढ़ने के लिये बच्चों को पुस्तकें भी उपलब्ध करनी चाहिए तथा उन्हें उत्साहित भी करना चाहिये।

(5) सत्य बात कहने, सत्य आचरण करने अथवा सत्यता का कोई उदाहरण प्रस्तुत करने पर बच्चे की प्रशंसा करने से कभी भी चूकना चाहिए। यदि किसी समय बच्चे ने सत्य का उदाहरण प्रस्तुत किया है तो उसकी पीठ ठोंकिए, सार्वजनिक रूप से उसकी प्रशंसा कीजिए और उसे उपयोगी वस्तुएं पुरस्कार भी दीजिये।

बच्चे प्रायः भय के कारण झूठ बोलने का आश्रय लेते हैं। बच्चों से भूलें तो हो ही जाती हैं। मान लीजिये अनजाने में उन्होंने कोई वस्तु तोड़ डाली। उनके मन में भय पैदा होगा कि पिताजी अथवा माताजी को जब मालूम होगा तो वे सजा देंगी। इसी भय के कारण वे तुरन्त इंकार कर देंगे कि उनसे अमुक वस्तु नहीं टूटी है। मैंने बचपन में एक दिन सहसा बाहर से आकर एक बड़े पत्थर से घर की सिलको तोड़ डाला। यद्यपि मैं उसे तोड़ना नहीं चाहता था परन्तु अनजाने में वह पत्थर उस सिल पर इतनी जोर से पड़ा कि उसके दो टुकड़े हो गये। मैंने उठाकर एक कोने में खड़ी कर दिया और स्वयं बाहर बाग में चला गया। शाम को जब वापस आया तब तक सिल टूटने की बात प्रकट हो चुकी थी और मैं मुजरिम भी घोषित हो चुका था। मुझ से जब पूछा गया तो साफ इंकार कर दिया। लेकिन अन्त में पकड़ा गया। इस प्रकार बच्चे भय के कारण झूठ बोलते हैं। मां-बाप यदि उन्हें भय रहित करें और प्रोत्साहित करें कि कोई भूल होने पर भी वे यदि सत्य बोलेंगे तो उन्हें सजा नहीं मिलेगी तो बच्चों को सत्य बोलने पर, बच्चे को भयभीत करने के बजाय उसके साथ सहानुभूति दिखायें तो बच्चे के मन में सत्य के प्रति आस्था पैदा होगी।

गोस्वामी जी ने सत्य को ध्वज, तो शील को पताका की उपमा दी है। पताका के सहारे ही ध्वज लहराता है। बिना पताका का ध्वज रखा हुआ साधारण वस्त्र मात्र है। इसी प्रकार सत्य की शोभा शील से होती है, अंगूठी में नग जिस प्रकार अंगूठी की शोभा बढ़ाता है, शील सत्य की शोभा बढ़ाता है। दोनों एक दूसरे पर अन्योन्याश्रित हैं।

केवल सत्य भाषी के हृदय में अहंकार उत्पन्न होता है सत्यभाषी यदि शील का सहारा ले तो वह अहंकारी हो जाता है। नग्न सत्य प्रायः कटु होता है इस प्रकार सत्य भाषी को श्रेय मार्ग पर ले जाने के बजाय उसे नाना प्रकार के कलहों में फंसा देता है। वह व्यक्ति अपने पास-पड़ोस वालों की आंखों में खटकने लगता है। सभी लोग उसके विरुद्ध एक मोर्चा बना लेते हैं। फिर उसका सारा समय आपसी प्रतिद्वन्दिता में ही लगने लगता है और सत्य भाषण का पूरा-पूरा लाभ नहीं मिल पाता। इसीलिये कहा गया है कि ‘‘सत्यम् ब्रूयात प्रियम् ब्रूयात् ’’

‘‘सत्य बोलो लेकिन प्रिय बोलो ऐसा सत्य बोलो जो प्रिय हो ’’

महात्मा गांधी का सत्य शील से ओत-प्रोत रहता था। जीवन भर उन्होंने सत्य और अहिंसा का प्रचार किया लेकिन दोनों को प्रेम पर ही आश्रित किया। वे अपनी सत्यता पर हिमालय के समान दृढ़ और अचल रहते थे, भारी से भारी विपत्तियां भी उन्हें अपने मार्ग से विचलित कर नहीं सकती थीं। परन्तु व्यवहार में वे अपने विरोधी से भी रुई के समान मुलायम थे। कभी भी उन्होंने रूखेपन से बात नहीं की। वार्ता के समय सदैव उनके होठों पर प्रसन्नता नाचती रहती थी। वे अपनी बात को इस प्रकार कहते थे कि सुनने वाले को कर्णकटु लगे, वरन् वह उसकी वास्तविकता को हृदय से स्वीकार करें, दूसरे शब्दों में यों कहा जा सकता है कि मीठी वाणी से वे अपने विरोधी के हृदय तक अपनी बात को उतार देने में सफल हो जाते थे।

सद्व्यवहार और शालीनता ठीक इसी प्रकार हमें अपने बच्चों को अभ्यास कराना चाहिये। एक सबसे बड़ी कमी जो हमें अपने समाज में देखने को मिलती है वह यही है कि अधिकांश लोग बातचीत का ढंग नहीं जानते। बच्चे तो इससे और भी अनभिज्ञ हैं। कोई बात कहेंगे तो आधी बात अपने मुंह में रख लेंगे, जल्दी-जल्दी इस प्रकार अपनी बात कह डालेंगे कि सुनने वाला समझ ही नहीं पायेगा कि यह व्यक्ति कह क्या रहा है। हाई स्कूल एवं इन्टर पास विद्यार्थियों को आप देखें उन्हें अपनी बात ढंग से प्रकट करने की योग्यता नहीं होती। बी.. में पहुंचते-पहुंचते अभिमान की टोपी उनके सिर पर लग जाती है। चलेंगे तो अकड़ कर इधर-उधर कपड़ों को देखते हुये, बातें करें तो अकड़ कर, मानो वे बहुत बड़े उच्चाधिकार के पद पर पहुंच गये हों। अपने अध्यापकों के सामने तो हर वाक्य के साथ जीजोड़ेंगे मगर किसी बाहर वाले से उनकी बात सुनिये तो इतना बहक कर अकड़ कर उच्छृंखल बातें करेंगे मानो जमीन आसमान का कुलावा मिला देने की क्षमता उनमें आ गई हो।

ठीक ढंग से बातचीत करने का प्रभाव अपार है। बात का मर्म जानने वाले को किसी जादूगर से कम नहीं समझना चाहिए। वह हर एक से अपना काम बना लेता है हमारे विद्यालय में एक लड़का है वैसे तो वह काम करने में अधिक सक्रिय नहीं है लेकिन बातचीत करने का ढंग उसे मालूम है सत्य भाषी भी है। मीठी-मीठी बोली बोल कर अपना काम बना लेने की कला में निपुण। एक बार उसे एक अन्य स्कूल से टी.सी. लानी पड़ी। जब वह वहां गया तो लिपिक ने तीन दिन के बाद ‘‘टी.सी.’’ देने को कहा। वास्तव में नियम भी यही है और वह उस समय कार्य व्यस्त भी था। परन्तु कुछ देर चुप बैठने के बाद इस लड़के ने अपनी बात का जादू ‘‘लिपिक’’ पर चढ़ाना शुरू किया। वह इससे इतना प्रसन्न हो गया कि स्कूल बन्द होते होते टी.सी. बनवा कर प्रधानाचार्य के हस्ताक्षर कराकर इसे दे ही दिया।

बात तलवान से भी अधिक शक्तिशाली होती है। जिसे बात करने की कला का ज्ञान हो गया, उसकी शक्ति राजा की शक्ति से भी बड़ी माननी चाहिये।

यह बात आती है शीलके अभ्यास से। बचपन से ही आप बच्चे को ठीक ढंग से बातचीत करने का अभ्यासी बनाएं। शील का प्रत्यक्ष प्रदर्शन विनम्रता से होता है। शीलवान व्यक्ति विनम्र होता है, वह जब भी अपनी बात कहेगा, विनम्रता से कहेगा क्रोध के अवसर पर भी अकड़ कर अपनी बात कहना विनम्रता है।

महात्मा गांधी अपनी सत्य बातों को कहते समय दूसरों की सुनते भी थे और बड़े तरीके से सब की बातों का उत्तर देते थे।

मधुर भाषण कैसे सिखायें? — बच्चों को आप जहां सत्य भाषी बनाने का अभ्यासी बनाएं वहां उन्हें ठीक ढंग से बात करने का तरीका भी बताएं जिसे आप निम्नलिखित उपायों से कर सकते हैं।

(1) ‘शीलकी बात शीलसे ही समझाना चाहिये। कभी-कभी जब मां-बाप को अपने व्यस्त जीवन में अवकाश मिले, सायंकाल का समय इसके लिए अधिक उपयुक्त हो सकता है, तब अपने बच्चों को एक साथ बिठाकर उससे बातचीत करना चाहिए। इसी बातचीत के दौरान में उन्हें विनम्रता पूर्वक बात करने का तरीका समझाना चाहिये। उदाहरण द्वारा उन्हें समझाना चाहिये और जीवन में उसकी उपयोगिता भी बतानी चाहिये। यह क्रम एक ही दो बार चले वरन् महीने में दो एक बार जिस दिन आपको भी अवकाश हो और बच्चे के स्कूल में छुट्टी हो तभी होना चाहिए। सायंकाल आप अपने बच्चों को लेकर टहलने जाएं, घर भर का मनोरंजन भी होगा और बातों-बातों में उन्हें आप बात करने का ढंग सिखायेंगे।

(2) आप स्वयं उनसे कोमलता पूर्वक हंस-हंस कर बातें कीजिये। जिस समय आप उन्हें सिखा रहे हैं अथवा अन्य अवसरों पर भी आप के बात करने का तरीका बहुत ही सुधरा हुआ होना चाहिए। उसकी कसौटी यह है कि बात करते समय आपका चेहरा प्रसन्न रहे, ऐसा कभी प्रकट हो कि आप क्रोधावस्था में बातें कर रहे हैं। दूसरी बात यह है कि आपकी बात से आत्मीयता, सहानुभूति एवं सच्चाई की झलक आती हो। यह तीनों गुण ऐसे हैं जो स्वयं श्रोता पर अपना प्रभाव डाल देते हैं। यदि आपकी बात में यह तीनों बातें हैं तो यह हो नहीं सकता कि उसका प्रभाव पड़े। बच्चे का हृदय भी खुलेगा और वह घुल मिलकर आपसे बात करना प्रारम्भ करेगा। तब आप देखते रहें कि बच्चे के बात करने में क्या दोष है? उन दोषों को भी आप धीरे-धीरे समझा बुझाकर ठीक करें।

(3) बात करने में किन शब्दों पर अधिक जोर दिया जाना चाहिये किन पर कम, किस समय क्या बात कहनी चाहिये? श्रोता के ‘‘मूड’’ को देख कर उसी के अनुसार बातें करनी चाहिए। इन रहस्यों को भी आप क्रियात्मक रूप से बच्चे को सिखाते रहें।

(4) आपके घर में जब मेहमान आवें, अथवा कोई भी मिलने जुलने वाले आवें, आप कहीं अपने बच्चों को लेकर जाएं, ट्रेन में यात्रा करें अथवा किसी भोज आदि में जायें, तो ऐसे स्थानों पर आप ज्यादा से ज्यादा अपने बच्चे को बात करने का अवसर दें। आप कम बोलें अथवा अपनी समान आयु वाले से चाहे आप ज्यादा बात करें लेकिन बच्चे को बात का अवसर अधिक दें। घर पर आने वालों को नाश्ता करने, खिलाने, कोई चीज लेने देने का अधिकांश कार्य आप बच्चे से लें। जिस प्रकार राजा अपने बड़े पुत्र को युवराज बनाकर राजकार्य में उसे हिस्सा बांट देता है, प्रजा से सम्बन्ध स्थापित करना, सेना संचालन प्रशासकीय कर्त्तव्यों में उसका विधिवत् सक्रिय सहयोग लेता है, उसी प्रकार आपका 15 वर्षीय पुत्र आपका उत्तराधिकारी है, अपने घर के आप राजा हैं तो वह युवराज है। उसे अपने सब कर्त्तव्यों को सिखाइये। जब आपके सामने वह गृहस्थी के कामों में हिस्सा बटाने लगेगा तो उसका अनुभव बढ़ेगा और जिम्मेदारी आवेगी।

कर्त्तव्य को निभाने में सब से बड़ी बात जो बच्चे को सिखानी है, वह है सच्चाई के साथ बातचीत करके दूसरों की सहानुभूति प्राप्त कर लेना। यदि आप का बच्चा अपनी बातों से दूसरों को मित्र बनाने और बड़ों की सहानुभूति प्राप्त करने में सफल होने लगे तो आप निश्चिन्त हो जाइये और इस बात पर विश्वास कर लीजिये कि वह आपका योग्य उत्तराधिकारी निकलेगा।

(5) घर में अपने साथियों से, बहनों से तथा मां से घर की अन्य स्त्रियों से वह किस प्रकार बातें करता है इस पर भी आपको ध्यान रखना है। प्रायः यह भी होता है कि बच्चों की जिन से पटती है, या जिन लोगों से वह अपनत्व अनुभव करता है, उनसे तो उसके बात करने का तरीका दूसरे ढंग का होता है और जिनसे उसकी पटती नहीं है, उनसे वह अकड़-अकड़ कर तैश में आकर बातें करता है आप इन बातों को चुपके-चुपके देखते रहें। और फिर बच्चे को समय पाकर प्रेम से समझायें कि उसे हर एक से ठीक ढंग से, सलीके से बातें करनी चाहिये। चाहे उससे अपनी पटती हो या नहीं। विचार भिन्नता रखना दूसरी बात है लेकिन बेढंगे तरीके से बात करना किसी भी प्रकार शोभनीय नहीं है।

(7) इसी प्रकार आप बच्चे के बाहरी क्षेत्र की देख भार करते रहें। अब तो घर से अधिक उसका कार्य क्षेत्र बाहर है। स्कूल बाजार, मौहल्ला आदि सब में उसका आना जाना है, वह अपने मित्रों के परिवारों से भी सम्बन्ध रखता है, उनके घर आता जाता है। बाहरी दोस्तों से पत्र व्यवहार भी करता है। इन सब पर आपकी निगाह रहनी चाहिए। कभी-कभी जब आप स्कूल जायें तो शिक्षकों और बच्चे के सहपाठियों से पता लगायें कि उसका आपसी व्यवहार कैसा है। यदि वह सत्य और शील को अपने आचरण में अपनाये है तो निश्चित जानिये कि उसके शिक्षक, सहपाठी सभी उससे प्रसन्न होंगे और उसके प्रति उनकी सहानुभूति होगी इसी प्रकार बाजार मुहल्ला अथवा गांव में भी आप जानकारी रखें। एक सी.आई.डी. के समान पता लगाने का कार्य करें क्योंकि इसका पता लगने पर आपका बच्चा आपसे द्वेष भाव रख सकता है, तब आपकी किसी बात का प्रभाव उस पर पड़ेगा लेकिन वैसे ही चलते फिरते, बात-चीत करते अगर आप अपने बच्चे का जिक्र ले आते हैं तो उससे सत्य बातें प्रकाश में जाती हैं। आपको पता चल सकता है तब आप भली प्रकार सोचिये कि जो बातें आप उसे सिखा रहे हैं उस पर वह कहां तक अमल कर रहा है। यदि उसमें किसी प्रकार की कमी दीख पड़े तो उसे सुधारने की चेष्टा कीजिये।

इस प्रकार धीरे-धीरे परन्तु धैर्य पूर्वक आप अपने बच्चे को सत्य और शील रूप निधियों को उत्तराधिकार रूप में देने में यदि सफल होंगे तो आपका बच्चा भी जीवन भर सुखी रह सकता है और आपको भी सन्तोष करने का अवसर मिलेगा। एक कहावत है।

तुलसी मीठे वचन तो सुख उपजत चहुं ओर

वशीकरण एक मन्त्र है तज दे वचन कठोर ।।

मीठी बोली बोलने का अभ्यास कर बच्चा अपनी जीवन यात्रा सुख, शान्ति और प्रसन्नता पूर्वक पूर्ण करेगा। 

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