बालकों का भावनात्मक निर्माण

बल और विवेक

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सुखी बनने की क्षमता शक्तिमें है। शक्ति ही वास्तविक सम्पत्ति है। जीवन को प्रकाशित, प्रतिष्ठित एवं सम्पन्न सुस्थिर बनाने के लिए स्वस्थ शरीर और विवेक अर्थात् दूरदर्शिता पूर्ण व्यवहार की आवश्यकता है। कमजोर व्यक्ति चाहते हुए भी कुछ कर सकने में असमर्थ होते हैं। शरीर बल इसी लिये सब से बड़ा बल माना गया है कि इस के सहारे जीवन यात्रा चलती है। बचपन से ही बच्चे के शरीर को स्वस्थ रखने के लिये मां-बाप को हर संभव प्रयास करना चाहिए। वैसे तो एक समय था जब शरीर बल पर ही हमारी उन्नति-अवनति निर्भर करती थी। लेकिन आज वैसी स्थिति नहीं है। बुद्धि बल की प्रधानता होती जा रही है। परन्तु शारीरिक बल की आवश्यकता और उपयोगिता से कोई इंकार नहीं कर सकता।

अच्छे स्वास्थ्य के लिये अच्छी खुराक, व्यायाम तथा स्वच्छता की आवश्यकता होती है।

विटामिन युक्त भोजन बच्चे को दिये जाने की बात पिछले प्रसंगों में कही जा चुकी है। 14, 15 वर्ष की आयु में बाजार की चटोरी चीजें खाने की लत पड़ जाती है। बाजार में जाने पर चाट खाये बिना उनका जी नहीं मानता। इतनी चमकीली, स्वादिष्ट एवं तत्काल आनन्द देने वाली चीजों का आजकल चलन हो गया है कि उनके आकर्षण से बच्चे का बच पाना बहुत कठिन है। लेकिन यदि सतर्कता रखी जाये तो इस ओर काफी प्रयास किया जा सकता है। व्यायाम करना, टहलने जाना, स्वच्छता रखने से बच्चे का स्वास्थ्य ठीक रहता है। लेकिन सबसे बड़ी बात यह है कि मनुष्य की मानसिक स्थिति का उसके शरीर पर सीधा प्रभाव पड़ता है। यदि किसी अच्छे भले युवक को यह भ्रम हो जाये कि वह बीमार है तो उसका बीमार हो जाना सम्भव है। इसके विपरीत यदि कोई लड़का यह विश्वास करले कि वह स्वस्थ है तो उसका स्वस्थ हो जाना भी सम्भव है। विचारों की इस शक्ति के रचनात्मक ध्वंसात्मक परिणामों से कोई इंकार नहीं कर सकता।

शरीर की अपनी कोई इच्छा नहीं, कोई राय नहीं और कोई अधिकार नहीं। मस्तिष्क सारे शरीर का सम्राट है, और इस पर राज्य करता है। उदाहरणतः जब वह देखता है कि शरीर जिस सड़क पर चल रहा है, उसी सड़क पर सामने से मोटर रही है, तो तुरन्त एक ओर हट जाने की आज्ञा देता है। शरीर हट जाता है और खतरे से बच जाता है। हमारे हाथ, हमारे पांव, हमारी आंखें, हमारा सिर हर खतरे और हर दुर्घटना के समय मस्तिष्क की आज्ञाओं के पाल के लिये तैयार रहते हैं। परन्तु यदि मस्तिष्क ड्यूटी पर होयह नींद, नशे या अचेतनता की अवस्था में हो तो इसके अतिरिक्त कोई शक्ति ऐसी नहीं जो हमारे शरीर को खतरे या दुर्घटना की चेतावनी दे सके।

मानसिक स्वास्थ्य की सुरक्षा मस्तिष्क जीवन की धुरी है। वातावरण से प्रभावित होकर यह जितना निराशा, दुःख, हर्ष और आनन्द प्राप्त करेगा, उतना ही यह सब शरीर पर अच्छा या बुरा प्रभाव डालेगा। जिस युवक का मानसिक स्वास्थ्य अच्छा नहीं, वह सदा चिन्ताग्रस्त रहता है। जो जीवन को आशावादी के बजाय निराशावादी दृष्टिकोण से देखता है, अपने आप को कल्पित खतरे से घिरा समझता है और भविष्य में आने वाले कल्पित दुःखों से भयभीत रहता है, उसने एक प्रकार से जानबूझ कर अपने शरीर में कीटाणुओं को पलने दिया है जो उसे घुन की तरह खाते रहते हैं, उसके स्वस्थ रहने के विषय में कुछ विश्वासपूर्वक नहीं कहा जा सकता। जिसे अपने स्वास्थ्य से प्रेम है, उसे अवश्य ही अपनी मानसिक स्थिति बदलनी पड़ेगी।

मानव-मस्तिष्क की स्वास्थ्य बाधक बहुत सी विकार युक्त भावनाएं हैं। क्रोध का प्रभाव पेट पर बुरा पड़ता है। यह रक्त को पानी के समान पतला कर देता है। चिन्ता, घृणा, ईर्ष्या, घबराहट, निराशा, रोष, उदासी बेदिली और चिड़चिड़ापन आदि भी भय के ही घातक परिणाम हैं। इसी प्रकार चिन्ता भी शारीरिक स्वास्थ्य की शत्रु है। बहुत से लोग अपने बच्चों को अच्छा खाना खिलाते हैं, व्यायाम, आदि पर भी बल दिया करते हैं, फिर भी वे स्वस्थ नहीं रहते। चिन्ता ने उन्हें रोगी बना रखा है। ऐसी घटनाएं देखने और सुनने में आई हैं कि चिन्ता के कारण एक ही रात में सारे बाल सफेद हो गये ईर्ष्या भी मस्तिष्क की स्वास्थ्य-घातक अवस्थाओं में शामिल है। किसी ईर्ष्यालु व्यक्ति के मुंह पर कभी ताजगी और प्रसन्नता दिखाई नहीं दे सकती।

भ्रम और भय का बड़ा निकट सम्बन्ध है। ये दोनों बच्चे के जीवन के बहुत बड़े शत्रु हैं। जिस युवक को कोई भ्रम होगा, उसे कोई कोई भय अवश्य परेशान करता रहेगा। जिस लड़के ने भ्रम और भय को स्वीकार कर लिया उसकी इच्छा शक्ति और सुरक्षा शक्ति दोनों ही बेकार रह जायेंगी।

वह युवक बड़ा भाग्यवान् है जिसकी मानसिक अवस्था आशापूर्ण और स्वस्थ है। परन्तु स्मरण रखना चाहिये कि किसी भी व्यक्ति को मानसिक अवस्था उसके बाल्यकाल के शिक्षण और वातावरण से ऊंची नहीं हो सकती। जो माता पिता हर समय अपने बच्चों को डांटते-डपटते हैं, उन्हें लज्जित करते और मारते-पीटते रहते हैं, उनके नन्हे हृदयों को कटाक्षों से घायल करते रहते हैं, उन्हें देवों, परियों और जिन्नों के किस्से कहानियां सुनाकर कायर बना देते हैं, उन्हें प्रशंसा आदर और मनोरंजन से वंचित रखते हैं, उनके बच्चे मानसिक तौर पर जीवन भर बच्चे ही रहते हैं। उनके मस्तिष्क पर हर समय निराशा और उदासी की छटा छाई रहेगी। वे किसी कठिनाई, किसी दुर्घटना, और किसी रोग का बहादुरी से सामना नहीं कर सकेंगे और वे अपना सारा जीवन सहम कर ही बिताएंगे।

प्रशंसा, हर्ष और प्रोत्साहन से परिपूर्ण बचपन ही जीवन भरके दृढ़, महान्, निर्भीक विचारों और अच्छे स्वास्थ्य की आधार शिला बनता है।

अच्छे स्वास्थ्य के इच्छुक युवक को अपने विचारों की पवित्रता और शिष्टता की ओर भी अवश्य ध्यान देना पड़ेगा। उसे सभी मानसिक बुराइयों से बचना होगा। मेरा अपना अनुभव है कि झूंठ बोलने से स्वास्थ्य पर बुरा प्रभाव पड़ता है। झूठ बोलने वाले व्यक्ति को हर समय यह चिन्ता रहती है कि उसकी पोल खुल जाए। चुगली भी स्वास्थ्य की शत्रु है। चुगली करने वाले को सदा यह भय रहता है कि मैंने जिस व्यक्ति के यश पर धब्बा लगाया है, वह मेरी चुगली को जानकर मेरा शत्रु बन जायेगा। ईर्ष्या और प्रतिक्रिया की भावना बच्चे के उठते रक्त को जला डालती है। इसलिये आवश्यक है कि इन दोषों से स्वयं भी बचा जाए और अपने बच्चों को भी बचाया जाए। इसके साथ-साथ अपने मन में उच्च नैतिक विचार भरने चाहिए। प्रसन्नता, क्षमा, उपेक्षा, सत्य वादिता और ईमानदारी द्वारा अपने स्वास्थ्य की रक्षा की जानी चाहिए।

महात्मा आनन्द स्वामी ने एक स्थान पर लिखा है कि जिस युवक को स्वस्थ रहने की कामना हो उसे प्रसन्न रहना चाहिए। कठिन से कठिन घड़ियों में अपनी प्रसन्नता को त्यागना चाहिए। चेहरे पर मुस्कुराहट साजती रहे। खूब खिलखिला कर हंसना स्वास्थ्य के लिए बहुत गुणकारी होता है। कुछ भी हो प्रसन्नचित्त रहना स्वस्थ जीवन की निशानी है। संसार में दुःख-सुख, हर्ष-विषाद, आराम-तकलीफ, संयोग-वियोग, लगा ही रहता है। कौन ऐसा है जिसे इन झूलों में झूलने का अवसर मिला हो लेकिन विपरीत परिस्थितियों में भी प्रसन्नता को हाथ से जाने देना चाहिए।

स्वास्थ्य हमारी अमूल्य निधि है। स्वास्थ्य को खोकर बच्चा अपने सुख और सौभाग्य को खो बैठता है। इसलिये हर संभव तरीके से इसकी रक्षा करनी चाहिए। केवल खुराक, व्यायाम और स्वच्छता पर ही निर्भर रह कर महत्तम प्रकृति प्रदत्त शक्ति, विचार और कल्पना से भी लाभ उठाना चाहिए। अपने दैनिक जीवन की प्रत्येक क्रिया में विचार की आत्मा समानी चाहिए। सैर करने निकले तो यह समझें कि शरीर की नाड़ियों में रक्त की गति हो गई है। हरे भरे खेत और दूर-दूर तक फैले हुए दृश्यों को देखते हुये आशा रखें कि आंखें स्वस्थ हो रही हैं।

संसार सागर की यात्रा के लिए हमारा शरीर एक नाव शरीर के ऊपर हमारा पार उतरना या डूबना, बहुत कुछ निर्भर करता है। जिस तरह छिद्रयुक्त जीर्ण-शीर्ण कमजोर नाव से चंचल, गतिशील, तीव्र संघर्षयुक्त जल धारा को पार करना कठिन है उसी तरह रोगी, निर्बल और असमर्थ शरीर से जीवन-यात्रा भली प्रकार पूरी करना संभव नहीं होता। विजय, सफलता, आनन्द और उल्लास मय जीवन बहुत कुछ स्वस्थ एवं बलवान शरीर पर निर्भर करता है। शरीर मनुष्य के लिए एक ऐसी ईश्वरीय देन है जिस के अभाव की पूर्ति संसार में अन्य कोई भी वस्तु नहीं कर सकती। दुर्बल आंख की क्षतिपूर्ति चश्मा लगवाने से नहीं हो सकती। कमजोर एवं खोखले दांतों के स्थान पर नकली दांत लग तो जायेंगे परंतु वे प्रकृति दांतों की तुलना कहां कर सकते हैं? केवल मुंह को पोपला लगने से बचाये रख सकने भर की सामर्थ्य उनमें होती है।

एक महात्मा के पास एक गरीब निर्धन व्यक्ति गया। गिड़गिड़ा कर अपनी दीनता की कहानी सुनाते हुए दुःख दूर की याचना की। पैरों पर गिरकर करुण कहानी सुनाने लगा कि सायंकाल भोजन के लिए भी पैसा नहीं है, कोई साधन नहीं कि जिससे कोई रोजगार करके जीविका निर्वाह कर सकूं।महात्माजी चुपचाप सब सुनते रहे फिर बोले तू तो कई हजार का माल अपने पास रखे है फिर मेरे सामने भिखारी बनने का स्वांग क्यों करता है? गरीब बेचारा चौंका और बोला महाराज! मैं आपसे असत्य नहीं बोल रहा हूं, मेरे पास एक फूटी कौड़ी भी नहीं है।महात्मा ने कहा अच्छा सुन, तू अपने दोनों हाथ मुझे दे दे और बदले में 2 हजार रुपये नकद मुझ से ले ले।भिखारी बेचारा सोचने लगा, फिर थोड़ी देर बाद बोला, ‘नहीं, स्वामीजी दो हजार लेकर मैं अपने हाथ देकर जीवन भर के लिये लूला बनना नहीं चाहता।तब महात्माजी ने कहा अच्छा अपने दोनों पैर ही दो हजार में मेरे हाथ बेच डाल।गरीब सोच में पड़ गया, थोड़ी देर बाद उसने उत्तर दिया नहीं! स्वामीजी, दो हजार रुपये लेकर जीवन भर के लिये पंगु बनना स्वीकार नहीं है तब फिर महात्मा बोले अच्छा ले चार हजार देता हूं अपनी दोनों आंखें दे दे।भिखारी ने फिर सोच कर इंकार कर दिया। अन्धे बन कर जीवन काटना उसने किसी भी प्रकार स्वीकार नहीं किया। इसी प्रकार महात्मा ने अन्य अंगों का मूल्य लगाया लेकिन किसी पर भी वह भिखारी देने को राजी हुआ। तब अन्त में महात्मा ने कहा अरे मूर्ख! तू कई हजार का ही नहीं, कई लाख, कई करोड़ कीमती सामान रखे रह कर अपने को भिखारी कहता है। यदि तू इन सबका सदुपयोग कर, इनका मूल्य समझ ले तो अपनी गरीबी के साथ सैकड़ों की गरीबी दूर करने की सामर्थ्य तुझ में छिपी है।

वास्तव में हम अपने शरीर की कीमत नहीं करते। किसी अंग विशेष का मूल्य हमें तब मालूम होता है जब वह हमसे छिन जाता है। आंख फूटने के बाद आंख का, दांत टूटने के बाद दांत का, बेहरे होने पर कान का मूल्य हमें मालूम होता है।

‘‘अब पछताये होत का जब चिड़िया चुग गईं खेत’’

बुढ़ापे में अन्धे, बेहरे और पंगु बन कर रोने से क्या लाभ? बचपन से चेतें। अपने बच्चे को उसके हर अंग की महत्ता बताओ, उनकी उपयोगिता समझाओ और उनके सामने उन लोगों के उदाहरण रखो जिन्होंने मूर्खता में पड़ कर अपने अंगों के साथ खिलवाड़ करके उन्हें नष्ट कर डाला है कृत्रिम दांत वाले को दिखा कर आप अपने बच्चे को दांत की उपयोगिता बताइये। अंधे को दिखाकर आंखों की उपयोगिता का भान कराइये। हाथ पांव से दुर्बल व्यक्ति को दिखा कर इन अंगों को सुरक्षित रखने की तरकीब समझायें।

देख कर, सुन कर और समझ कर यदि बच्चा काठ का पुतला नहीं है तो अवश्य शिक्षा प्राप्त करेगा। अपने अंगों की सुरक्षा रखने की ओर वह सतर्क रहेगा और फिर उसे दीर्घ काल तक इनके उपयोग का आनन्द मिलेगा।

शरीर को दुर्बल होने दिया जाय शास्त्रकारों ने शरीर को ही सब धर्मों का साधन बताते हुए कहा है ‘‘शरीरमाद्यं खलु धर्म साधनम् ’’ स्वस्थ शरीर के द्वारा ही जीवन और जगत् के धर्म कर्त्तव्यों का भार वहन किया जा सकता है। वस्तुतः बिना मजबूत शरीर के हम किसी का ऋण चुका सकते हैं अपना कर्त्तव्य पूर्ण कर सकते हैं। दुर्बल शरीर से किसी की सेवा ही हो सकती है। बापू ने कहा है ‘‘शरीर आत्मा के रहने की जगह होने से तीर्थ जैसा पवित्र है।’’ आवश्यकता इस बात की है कि हम इसे तीर्थ की तरह ही स्वच्छ-सुन्दर विकार शून्य बनाने का प्रयास करें।

शरीर के माध्यम से ही जीवन और जगत् के सौंदर्य-आनन्द का लाभ उठाया जा सकता है। शरीर में जब भरपूर उछल कूद, मन में अपार उत्साह होता है तो यह संसार क्रीड़ा भूमि सा दीखता है, स्वर्ग-सा लगने लगता है। और जब शरीर असमर्थ, अयोग्य, बलहीन हो जाता है तो यह संसार नरक तुल्य जान पड़ता है। जीवन भार स्वरूप लगने लगता है। पाश्चात्य विद्वान् बीवर ने कहा है ‘‘शरीर वीणा है और आनन्द संगीत। यह जरूरी है कि यन्त्र दुरुस्त रहे।’’ आनन्द का संगीत स्वस्थ शरीर में ही स्पन्दित होता है।

शरीर का रोगी जीर्ण-शीर्ण कमजोर होना अपने आप में एक बहुत बड़ा पाप है। जार्ज बर्नार्डशा ने कहा है यदि कोई बीमार पड़ेगा तो मैं उसे जेल भेज दूंगा।’’ बीमारी सजा है प्रकृति के नियमों का उल्लंघन करने की। रोगी होना अपने आप में अपराधी होना है। रोगी होकर जहां मनुष्य अपने लिए नरक तुल्य जीवन का द्वार खोलता है वहां समाज की उन्नति में भी बाधा डालता है। क्योंकि एक ओर तो वह व्यक्ति समाज के लिये जो कुछ करता है वह रुक जाता है, दूसरे अन्य लोगों का समय, श्रम, धन रोगी के लिये लगने लगता है।

स्वस्थ बलवान् शरीर वाले बच्चे पर फटे कपड़े भी शोभा देते हैं। रोगी और निस्तेज बालक सुन्दर कपड़ों के सौन्दर्य को भी भद्दा बना देता है। उसे कितना ही सजायें वह अनाकर्षक और कुरूप ही लगेगा।

वैयक्तिक जीवन में शरीर के बाद नम्बर आता है हृदय और बुद्धि का। शरीर के साथ-साथ हृदय बुद्धि का भी अपने-अपने क्षेत्र में स्वस्थ, सतेज होना आवश्यक है। इसी को हम कहते हैं विवेकजिसका साधारण अर्थ यह हो सकता है, कि सोच समझकर काम करने की शक्ति

अक्सर देखा जाता है कि कई व्यक्ति शरीर से स्वस्थ होते हैं लेकिन उनके हृदय, बुद्धि अविकसित ही रह जाते हैं। बहुत से पहलवान कहाने वाले लोग बुद्धि के ठसऔर हृदय के प्रेम, आनन्द, निर्मलता से शून्य होते हैं। लोगों की प्रायः यह धारणा बन गई है कि जो शरीर से तगड़ा होगा बुद्धि से कमजोर होगा। जो बुद्धिमान होगा उसका शरीर दुर्बल होगा लेकिन वस्तुतः यह विश्वास गलत है।

अकबर के दरबार में दो हट्टे-कट्टे राजपूत नौकरी के लिये आये। अकबर ने कहा कि अपनी ताकत की परीक्षा दो। दोनों राजपूतों ने अपनी तलवारें एक दूसरे से मुकाबले के लिए खींच लीं। थोड़ी देर में एक ने दूसरे का सिर काट लिया और दूसरे ने पहले के पेट में तलवार भौंक दी। दोनों की लाश नदी में फेंकवा दी गईं। यह भी स्वस्थ शरीर के नमूने थे। लेकिन इनमें विवेक बुद्धि नहीं थी। स्वस्थ शरीर की पहचान है कि हृदय में उमंग हो, कुछ कर डालने को जी चाहता हो, लेकिन उसके साथ सोच समझ कर कुछ अच्छा कार्य करने की ओर शारीरिक शक्ति को लगाने की क्षमता भी बच्चे में होनी चाहिए। अन्यथा उसका शरीर अकबर के दरबार वाले क्षत्रियों जैसा हो सकेगा।

कहावत है कि जोश के साथ होश भी हो बिना होश का जोश दो कौड़ी का होता है। मध्यकालीन इतिहास के पृष्ठ होश रहित जोश के उदाहरणों से भरे पड़े हैं। आल्हा-ऊदल की लड़ाइयां होश रहित जोश के नमूने थे। अकारण दूसरे राज्यों से झगड़ा मोल ले बैठते थे। काश, उनकी शक्ति यदि देश सेवा अथवा राज्य सेवा में लगती तो वे कैसे होते? पृथ्वीराज चौहान के दरबार में उनके एक काका थे, उनके सामने यदि कोई मूछों पर हाथ फेर दे तो वे उसे बिना मार डाले छोड़ते। एक दिन पृथ्वीराज के ससुराल के लोग आये थे। दरबार में भी सभी लोग बैठे थे। अचानक उन्होंने मूछों पर हाथ फेरा, बस काका की त्यौरियां चढ़ गईं। वे अपने को संभाल सके और तलवार खींचकर उनका सिर ही काट डाला।

ऐसे स्वस्थ युवक किस काम के जिन में जोश हो लेकिन होश हो। हड़ताल करना, ट्रेनों की जंजीरें खींचना, सरकारी कर्मचारियों को मार पीट देना, आपस में हाकियां चटकाना आदि अनुशासनहीन कार्य ही उनसे बन पड़ेंगे। उठती जवानी का यह समय भारी नियन्त्रण चाहता है। शारीरिक शक्ति यदि गलत दिशा की ओर लग गई तो अग्नि दुर्घटना की तरह घर भर का सत्यानाश करके ही छोड़ेगी। अनुचित दिशा में लगी शक्ति सिनेमा, नाच, रंग, फैशनपरस्ती में शरीर को स्वाहा करती है और घर का पैसा उसमें ईंधन बनता है।

इसलिये मां-बाप का यह कर्त्तव्य है कि जहां वे बच्चे के शरीर को स्वस्थ बनाने के लिए उसके खान-पान, स्वच्छता, मनोरंजन, व्यायाम आदि पर आवश्यकतानुसार ध्यान दें, उसके शरीर को हृष्ट-पुष्ट बनावें, वहां उसके मस्तिष्क को भी परिष्कृत करने, उसमें सोच समझकर समयानुसार कार्य करने की शक्ति पैदा करें। यह एक आवश्यक कार्य है, जो एक दिन में बड़े प्रयत्न से पूरा नहीं हो सकता। आपको हमेशा कुछ कुछ करना ही पड़ेगा।

वैज्ञानिक दृष्टिकोण की आवश्यकता विचार शीघ्र बदले जा सकते हैं लेकिन जीवन का दृष्टिकोण धीरे-धीरे बनता है। उसमें परिवर्तन भी धीरे-धीरे ही हो सकता है। हर व्यक्ति बचपन से ही अपने विषय में सोचता-विचारता रहता है। उस सोचने-विचारने के ढंग के अनुसार अपने तथा समाज के विषय में उसकी एक धारणा बन जाती है। फिर उसके समस्त कार्य उसी धारणाकी धुरी से संचालित होते रहते हैं। इसलिये यह आवश्यक है कि बच्चे को शुरू से ही सही दिशा में सोचने और दृष्टिकोण बनाने में सहायता दी जाय।

समाज में अन्ध-विश्वास का बोल वाला है। बहुत-सी मिथ्या बातों का प्रचलन है। रूढ़िवाद, जाति-पांति, छुआछूत के भेदभाव के नाम पर लाखों लोग अपमान की चक्की में पिसते रहते हैं तो बहुतेरे ऐसे हैं जो इन मान्यताओं का लाभ उठाकर बिना परिश्रम किए मौज उड़ाते हैं। चूंकि हमारी निश्चित मान्यता बन गई है कि यह बातें सही हैं। इसलिये हम आंख से देखते हुए भी बुरा नहीं कहते फिर उसमें परिवर्तन कि बात कैसे सोचें?

संसार की बदली हुई परिस्थितियों में हमारी निर्जीव मान्यताएं भावी पीढ़ी को प्रगति की ओर ले जाने में सहायक नहीं होतीं। जब बच्चा घर पर तो अपनी पुरानी मान्यताओं के अनुसार कार्य करता है और स्कूल में पुस्तकों से उसमें दूसरे अन्तर्द्वन्द्व उठना स्वाभाविक है। यही अन्तर्द्वन्द्व, असन्तोष, कलह और विचार मित्रता के समय प्रकट होता है। इसलिये माता-पिता को चाहिए कि बच्चे को हर अच्छी बुरी मान्यताओं को जैसी की तैसी स्वीकार कर लेने के लिये कभी उत्साहित करें। जिस प्रकार गणित के नियम सही और खरे हैं, उनके विपरीत चलने से प्रश्न का सही उत्तर नहीं निकल सकता। ठीक उसी प्रकार हमारा धर्म भी वैज्ञानिक सिद्धान्तों पर आधारित है। उसकी हर बात को आंख मूंद कर मनवाने से क्षति ही होगी। अतः जो भी परिस्थिति सामने आये और बच्चा उसे समझने अथवा जानने की चेष्टा करे आप उसकी वास्तविकता को कभी मत छिपायें।

कोई त्यौहार क्यों मनाया जाता है? यह आप बच्चे को समझाइये। जाति प्रथा क्यों प्रचलित हुई? उससे क्या लाभ थे, यह बच्चे को बताना चाहिए। आज उसकी क्या उपयोगिता है यह भी बताइये। बदली परिस्थिति में उसमें क्या परिवर्तन लाना चाहिए? इस पर भी बच्चे को सोचने और सम्मति देने का अवसर दीजिए। विशेष रीति-रिवाज को क्या मनाया जाता है इस बारे में भी आप बच्चे को बताइये। बच्चे में विचार शक्ति और तर्क शक्ति जागृत कीजिये। हर काम को करने से पहले उसके परिणाम को सोचने विचारने के लिये कहना चाहिए। आंख मूंद कर अपनी आज्ञा को मनवाना बुद्धिमान मां बाप का काम नहीं है। यदि, आप बच्चे में हर काम के परिणाम, साधन, उपयोगिता एवं करने के ढंग के विषय में सोचने विचारने का मौका देंगे और उसे सहायता भी देंगे तो उसमें विवेकबुद्धि जागृत होगी। वह कभी ऊंची मान्यता की भित्ति से नीचे गिरने का अवसर आने देगा।

इंग्लैण्ड का प्रधान मन्त्री लार्ड डिजरायलीकहा करता था कि मेरे छः महान् शिक्षक हैं जिनसे मैंने सब ज्ञान सीखा है। वे शिक्षक कौन हैं? उसने बताया कि—(1) क्यों? (2) कैसे? (3) कब? (4) किस प्रकार? (5) कौन? (6) किसके द्वारा? यही छः तर्क उसके शिक्षक थे।

हर काम को करने से पहले यही छः प्रश्न आप अपने से पूछिये, उत्तर स्वयं निकल आवेगा। उन्हीं उत्तरों से मार्ग-दर्शित होकर आप कार्य करें। यही आदत बच्चों में डालनी चाहिये। यदि उनकी आदत इस प्रकार जानने बूझने की पड़ जायेगी तो वे समाज के आदर्श नागरिक बनेंगे।

स्वावलम्बन का लक्ष्य दूसरे, अपने व्यक्तिगत जीवन के विषय में उदारवादी और व्यावहारिक दृष्टिकोण अपनाने की सलाह दीजिये। जैसे युवकों के मन में शुरू से ही यह धारणा बनती रहती है कि पढ़ लिखकर वे नौकरी करेंगे। मां बाप भी उनकी इस धारणा को पुष्ट करते रहते हैं। वे बच्चों को बताते रहते हैं कि अगर वह पढ़ लेगा तो कहीं नौकरी मिल जायेगी, ठाठ से घूमेगा, अन्यथा खेती करते-करते घास छीलेगा, हल जोतना पड़ेगा। व्यापारी भी अपने बच्चे को इसी प्रकार से गलत दिशा में सोचने का अवसर देता है। यह बातें बच्चे के हृदय में नौकरी के प्रति ऊंची धारणा और खेती तथा व्यापार के प्रति हीन भावना उत्पन्न कर देती हैं। परिणाम यह होता है कि पढ़ने लिखने के बाद बच्चे को जब तक नौकरी मिले वह घर पर बेकार पड़ा रहना पसन्द करेगा परन्तु खेती में परिश्रम करना उसे नहीं भायेगा। हम नित्य देखते हैं कि कितने ही युवक इस मिथ्या धारणा के कारण 60 रु. मासिक वेतन पर दिन भर कार्यालय की फाइलों से जूझ-जूझ कर अपनी प्रतिभा को नष्ट करने में आत्म-सन्तोष का अनुभव करते हैं लेकिन उससे आधा परिश्रम करके ही अधिक पैसा कमाना अथवा स्वतन्त्र एवं स्वावलम्बी जीवन बिताना पसन्द नहीं करते, इससे बड़ा देश का दुर्भाग्य और क्या हो सकता है? परिस्थिति यह है कि शिल्प, उद्योग एवं कृषि की ट्रेनिंग करने वाले लोग भी उसी विभाग में नौकरी को ही जीवन का स्वर्ग समझते हैं।

बच्चों की इस मिथ्या-मान्यता को बदलना है। उन्हें यह कल्पना देनी है कि स्वावलम्बी जीवन बिताकर अपने शरीर, बल एवं बुद्धि-बल का परीक्षण करके उसके आधार पर जीविका निर्वाह करना नौकरी से कई गुना श्रेष्ठ है। नौकरी फिर नौकरी ही है चाहे वह कितनी ही बड़ी क्यों हो।

सोच, समझ एवं उचित परिणामों के आधार पर निश्चय करने का मौका दीजिये। जब बच्चे में विवेक-बुद्धि उत्पन्न हो जाती है, सत्यासत्य का निर्णय करने की शक्ति उनमें जागृत होने लगती है, तब वह धीरे-धीरे अपनी हर समस्याओं के प्रति एक सही दिशा अपनाने को सोचता है, जिससे उसमें ओजस्विता एवं स्वावलम्बन के गुण पैदा होते हैं। 

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