बालकों का भावनात्मक निर्माण

बच्चों की जिज्ञासायें और उनका समाधान

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बच्चे किस प्रकार के प्रश्न किस अवस्था में पूछते हैं इससे यह पता चलता है कि उनमें विचारों का विकास कैसे होता है? प्रायः तीसरे वर्ष की अवस्था से ही बच्चे अपने निकट की वस्तुओं और घटनाओं के सम्बन्ध में भांति भांति के प्रश्न पूछने लगते हैं। कुछ प्रश्न तो बच्चे अपनी ओर केवल दूसरों के ध्यान को आकर्षित करने के लिये करते हैं। उनके कुछ प्रश्न सच्ची जिज्ञासा को शांत करने के लिये होते रहते हैं जिससे वे अपने अनुभवों के अर्थ को ठीक-ठीक समझ सकें। जब तक इन प्रश्नों द्वारा उसकी जिज्ञासा शान्त होगी तब तक वह विभिन्न प्रश्नों को पूछता रहेगा। हरलाक कहता है कि प्रश्न करने का काल तीसरे वर्ष से प्रारम्भ होकर प्रायः छठे वर्ष तक चलता है।

बच्चों के भाषा-विकास के अध्ययन से उनके प्रश्नों के स्वरूप अथवा प्रत्यय का कुछ अनुमान लगाया जा सकता है। रगने अपने अध्ययन में देखा कि किण्डर गार्डन के बच्चों की बातों का दस प्रतिशत प्रश्न थे। फिशर ने नर्सरी स्कूल के बच्चों के अपने अध्ययन में देखा कि 1।। से 2 वर्ष के लगभग उनकी बातों में दो प्रतिशत प्रश्न थे, परन्तु तीसरे वर्ष की अवस्था पर उनका प्रतिशत 15 हो गया।

मनोवैज्ञानिकों के लिए अभी तक यह जानना संभव नहीं हो सका है कि विभिन्न विकासावस्था पर बच्चों को किन-किन साधारण बातों का ज्ञान रहता है। अतः किसी भी उम्र के लिये अभी तक इस सम्बन्ध में कोई प्रतिमान नहीं निश्चित किया जा सका है। इसका कारण यह भी हो सकता है कि बच्चे विभिन्न वातावरण से आते हैं और उनके अनुभवों में बड़ा अन्तर होता है।

दिशा और दूरी का ज्ञान बच्चे अपने आप नहीं सीख पाते। किसी दूरी का अनुमान करने के लिये वह उसकी उस परिचित वस्तु और व्यक्ति से तुलना करते हैं जिसे बहुधा तय किया करते हैं। स्थान दिशा और दूरी के अनुमान के लिये वे दृष्टि सम्बन्धी तथा गति सम्बन्धी संवेदनाओं का सहारा लेते हैं। जब बच्चा रेंगना प्रारम्भ करता है तभी से वह अनुभव करने लगता है। जब वह गाड़ी, तीन पहिये की साइकिल तथा गेंद इत्यादि से खेलना प्रारम्भ कर देता है तो दूरी और दिशा का उसका ज्ञान कुछ शुद्धतर होने लगता है। जिस लम्बी दूरी को बालक तय नहीं कर सकता उसके सम्बन्ध में वह अन्धकार में ही रहता है। स्कूल में स्केल, गज, फीट और इंच से दूरी और बांट से तौल नापने से उसे स्थान और दूरी को समझने में अथवा प्रत्यय पाने में बड़ी सहायता मिलती है।

बच्चे ज्यों ही बातचीत करने की कुछ योग्यता प्राप्त कर लेते हैं वे कुछ संख्याओं को भी गिनने लगते हैं। यह ठीक-ठीक कहना कठिन है कि संख्या के प्रयोग की योग्यता उनमें कब प्रारम्भ होती है, परन्तु दूसरे या तीसरे वर्ष से वे कुछ संख्याओं के नाम अवश्य लेते हैं। किन्डर गार्डन के साढ़े चार वर्ष की अवस्था के बच्चों के अध्ययन से इगलसको ज्ञात हुआ कि उनमें कुछ में संख्याओं के प्रयोग करने की योग्यता है। इस कार्ड पर कुछ बिन्दुओं को बनाकर उनसे उनकी संख्या पूछी गई। यह देखा गया कि इस उम्र में बच्चों का 1 और 2 का ठीक ठीक ज्ञान है, 3 का ज्ञान नहीं है, 4 का ज्ञान काम चलाऊ है, और 5 से 10 तक का संख्या का उनका ज्ञान बहुत ही अस्पष्ट था बड़े बच्चे बड़ी संख्याओं का प्रयोग अधिक कुशलता से करते थे और छोटों को इसमें कुछ कठिनाई होती थी। इगलस ने निष्कर्ष निकाला है कि बच्चों का संख्या प्रत्यय उनकी उम्र तथा शिक्षण के अनुसार बढ़ता है।

छोटे बच्चों में समय की अवधि को समझने की योग्यता बड़े ही धीरे-धीरे विकसित होती है। यदि कुछ काम करता है तो उसके लिये यह कहना बड़ा ही कठिन होता है कि वह कितने समय तक करता रहा। जब किसी काम को वह बड़े मन से करता है तो उसे जान पड़ता है कि समय बड़ी जल्दी बीत गया और जब बेकार रहता है तो समय जल्दी बीतते नहीं जान पड़ता। स्कूल में पहुंचने में देर करना तथा किसी पूर्व निश्चय के अनुसार किसी स्थान पर ठीक समय से पहुंचना उसके समय की अवधि को समझाने की असमर्थता का द्योतक है। सुबह की क्रियाशीलताएं शाम से भिन्न होती हैं। दिन में कुछ और काम किया जाता है और रात को कुछ और ही इसलिये लगभग 2।। या 3 वर्ष का बच्चा सुबह और शाम अथवा दिन और रात के भेद को समझ सकता है। चार वर्ष के बच्चे प्रायः यह बतला सकते हैं कि आज मंगल है या बुधवार परन्तु महीने या ऋतु का ज्ञान उन्हें एक साल बाद ही आता है।

बच्चों को आकार और स्वरूप का ज्ञान जल्दी होता है क्योंकि सन्दूक, खिलौना, बिस्तर, मेज तथा कुर्सी इत्यादि वस्तुओं के अन्तर को समझे में उन्हें देर नहीं लगती। तीसरे वर्ष की उम्र में बच्चे इन सबके अन्तर को समझने लगते हैं। विभिन्न परीक्षणों से यह स्पष्ट है कि उम्र और अनुभव के बढ़ने के साथ आकार और स्वरूप को समझ सकने की योग्यता बच्चों में बढ़ती रहती है।

दूसरों को समझने के पूर्व बच्चा अपने को कुछ समझ लेता है। अपने विषय में जो वह प्रत्यय बनाता है उसी के अनुसार वह दूसरों को समझने का प्रयत्न करता है। दर्पण में देखने तथा अपने हाथ से विभिन्न अंगों को छूने से वह अपने शरीर के विभिन्न अंगों को समझता है। उसकी यह क्रिया चौथे से पांचवे महीने से ही प्रारम्भ हो जाती है।

बच्चे को अपने में बड़ी रुचि होती है। इसलिये अपने विषय में उसके प्रत्यय का विकास बड़ा शीघ्र आरम्भ हो जाता है।

बच्चे प्रायः अपने आत्म प्रत्यय के विकास में दो प्रकार के प्रत्ययों का विकास करते हैं। एक प्रकार का प्रत्यय तो बाह्य व्यक्तियों के सम्पर्क के प्रभाव स्वरूप विकसित होता है। जब बालक स्कूल जाना प्रारम्भ करता है तो उसके आत्मका दूसरा स्वरूप विकसित होता है। वह स्वरूप उसके विचारों, भावनाओं और संवेगात्मक अनुभवों पर आधारित रहता है। इन दोनों प्रकार के आत्मका वह एकीकरण नहीं कर पाता। अतः वह अपने को बहुधा दो व्यक्तित्व वाला व्यक्ति समझता है। किशोर अवस्था में पहुंचने में उसके आत्मके ये दोनों स्वरूप आपस में मिल जाते हैं। तब बच्चे एक समन्वित व्यक्ति की तरह व्यवहार दिखलाने में समर्थ होते हैं।

दूसरों के व्यवहार तथा संवेगात्मक प्रतिक्रियाओं के निरीक्षण से व्यक्ति में सामाजिक प्रत्यय आता है। ध्वनि का प्रत्यय बच्चा बहुत पहले ही कर लेता है। आवाज से ही वह परिचित अथवा अपरिचित अथवा प्रेम भरी आवाज की पहचान वह एक वर्ष की उम्र में प्रायः करने लगता है।

अन्वेषणों के आधार पर व्यूहलरका कहना है कि तीन महीने की उम्र में बच्चे को क्रोध अथवा प्रेम भरे शब्दों की पहचान नहीं रहती। वह दोनों को समान समझता है। पांच महीने की अवस्था में वह क्रोध के भाव को समझने लगता है। जब कोई व्यक्ति उससे क्रोध दिखलाता है तो वह रोने लगता है। उसकी धारणा है कि आठवें महीने पर बच्चा दूसरों के चेहरे के भाव को समझने में असमर्थ होता है।

अच्छे वातावरण के बच्चों का साधारण वातावरण के बच्चों की अपेक्षा सामाजिक प्रत्यय अच्छा होता है। व्यक्ति के सौन्दर्य की भावना उसके विभिन्न सम्बन्धों पर निर्भर करती है। सुखद भावना के पाने पर वह सोचता है कि सम्बन्धित व्यक्ति या वस्तुएं सुन्दर हैं और दुखद भावना पाने पर उन्हें वह असुन्दर मानता है। वस्तुतः कोई वस्तु अपने में सुन्दर है और असुन्दर, उसे सुन्दर अथवा असुन्दर मानना तो अनुभव करने वाले व्यक्ति के तात्कालिक भाव पर निर्भर करता है। बच्चा जिसे पसन्द करता है उसे वह सुन्दर मानता है, और जिसे वह पसन्द नहीं करता उसे वह असुन्दर कहता है। जिन व्यक्तियों को वह चाहता है, उसे वह सुन्दर ही समझता है, चाहे वह दूसरों की दृष्टि में असुंदर ही क्यों हों। इस बात की पुष्टि टरमनद्वारा निर्धारित प्रश्नावली से होती है। जब पांच वर्ष के बच्चे को कुछ स्त्रियों के चित्र दिखलाये गये तो उन्होंने सुन्दरतम के स्थान पर सबसे भद्दे चित्रों को पसन्द किया। पूछने पर उन्होंने उत्तर दिया कि ये चित्र उसकी दादीकी तरह लगते हैं अथवा आयाके समान हैं।

गहरे रंग के चित्र जिनमें व्यक्तियों अथवा मशीन की गतियों का चित्रण रहता है बच्चों को अच्छे लगते हैं। कोई चित्र जिसमें लोग कुछ काम करते हुए चित्रित रहते हैं बच्चों को बड़े ही अच्छे लगते हैं। प्राकृतिक दृश्य बच्चों को तब तक अच्छे नहीं लगते जब तक उनमें कुछ क्रियाशील व्यक्तियों का अथवा पशुओं का चित्रण हो।

बच्चा किस वस्तु को सुन्दर मानेगा और किसे असुन्दर यह उसके सांस्कृतिक वातावरण पर भी कुछ हद तक निर्भर करता है। प्रौढ़ व्यक्तियों के साथ रहने के कारण बच्चे प्रायः सौन्दर्य सम्बन्धी उन्हीं की भावनाओं को अपना लेते हैं। अपने लिए अच्छा समझते हुए ऐसी स्थिति में बालक उन वस्तुओं को सुन्दर मान बैठता है जिन्हें प्रौढ़ लोग सुन्दर मानते हैं। जिसे माता-पिता या शिक्षक सुन्दर मानते हैं उन्हें बच्चे भी सुन्दर मान बैठते हैं। ज्यों-ज्यों बच्चे बड़े होते हैं। वे प्रौढ़ों के सौंदर्य सम्बन्धी मापदण्ड को स्वीकार करने लगते हैं।

प्रायः यह सब का अनुभव है कि एक छोटा शिशु भी संगीत को पसंद करता है। जब धीरे-धीरे गाया या गुनगुनाया जाता है तो उसे नींद जाती है। एक वर्ष की अवस्था के पूर्व संगीत सुनने की रुचि बच्चों में स्पष्टतः देखी जाती है। यदि बच्चे को कहीं कुछ कष्ट हो रहा है तो संगीत की ध्वनि से उसे कुछ शांत किया जा सकता है। बच्चे को लय बड़ी अच्छी लगती है। और वातावरण के अनुसार उसमें एक विशिष्ट प्रकार के स्वर के लिये रुचि भी उत्पन्न हो जाती है। तीन वर्ष की अवस्था पर बच्चा प्रायः यह कह देता है कि वह कौन-सा गाना या ग्रामोफोन का रिकार्ड सुनना पसन्द करेगा। अपने प्रिय गाने को बच्चा जितनी बार सुनता है वह गाना उसके लिए उतना ही प्रिय बन जाता है। संगीत की रसानुभूति के लिये उसके अर्थ को भी समझना आवश्यक है। छः या सात वर्ष की अवस्था में बच्चे स्वर की गहनता और ऊंचाई को कुछ-कुछ समझ सकते हैं। दूसरों के स्वर को सुनने से उसकी गहनता और ऊंचाई का वे कुछ हद तक अनुकरण भी करते हैं।

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