दैवी सम्पत्तियों में से सबसे पहला गुण है ‘साहस’। साहस मनुष्य का सबसे बड़ा संबल है। साहसी व्यक्ति अन्धकार में भी अपना मार्ग ढूंढ़ लेता है। कोई उसे अपने पथ से डिगा नहीं सकता।
एक राजा था जिस के ऊपर शत्रुओं के निरन्तर आक्रमण हो रहे थे। उसे 6 बार पराजय का मुंह देखना पड़ा था। अन्त में वह निराश होकर अपनी जान बचाने के लिये, भाग कर जंगल के एक कुएं में छिप गया। वहां उसने देखा कि एक मकड़ी अपना जाला बुन रही है लेकिन बार-बार उसका जाला एक दूसरा कीड़ा तोड़ देता है लेकिन मकड़ी ने हिम्मत न हारी। एक बार बुनने पर उसका जाला जैसे टूटता कि वह बिना विलम्ब किये फिर बुनना प्रारम्भ कर देती। अन्त में वह जाला बुनने में सफल हो गई। राजा छिपे-छिपे यह देखता रहा उस के मन में भी आवाज उठी कि यदि मकड़ी कई पराजय के बाद अपने उद्देश्य में सफल हो सकती है तो क्या में सफल नहीं हो सकता? राजा कुएं से निकला और जाकर अपनी बची खुची सेना इकट्ठी की। अन्त में सातवीं बात उसे विजयश्री मिल ही गई।
जिस मनुष्य में साहस नहीं उसे हम कायर कह कर सम्बोधित करते हैं ‘‘कायर’’ किसी काम का नहीं, साहसी एक अमूल्य रत्न के समान है। उसके लिये संसार में कुछ भी दुर्लभ नहीं। सरलता-पूर्वक जीवन यापन के लिये साहस रूपी रत्न का धनी होना परमावश्यक है।
जगत् विख्यात वीर नैपोलियन तो साहस का प्रतीक था। बड़ी से बड़ी मुसीबत आ जाने पर वह कभी घबराता नहीं था। एक बार अपनी सेना की छोटी टुकड़ी लिये अंधकार पूर्ण रात्रि में आक्रमण करने जा रहा था। मार्ग में एक छोटा पुल था लेकिन दुश्मनों ने उसे तोड़ दिया था। पुल को टूटा हुआ देख कर सेना हिचकिचाई। नीचे जमीन दलदली थी। नैपोलियन ने एक मिनट भी सोचने में न लगाया। तुरंत नीचे कूदा और दलदल में आगे आगे चलने लगा। अपनी सेवा को सम्बोधित कर कहा। आओ जवानों! तुम्हारा नायक आगे आगे चल रहा है, सेना भी कूद पड़ी और थोड़ी देर में पूरी सेना उस दलदल के पार खड़ी थी।
उसके साहस की अनेक कहानियां प्रसिद्ध हैं कि जब उसने अपने साहस से पराजय को विजय में बदल दिया। अन्धकार में प्रकाश खोज लिया।
अपने अन्तिम दिनों में जब उसे पराजित करके ‘‘सेंट हेलीना’’ नामक टापू में बन्दी बना दिया गया था तब भी उसने अपने साहस का अपूर्व परिचय दिया। उसके चारों ओर कड़ा पहरा था। रात्रि में घोर तूफान आया, वर्षा होने लगी कि पहरे के सारे सैनिक इधर-उधर आत्म रक्षा के लिये छिप गये। नैपोलियन चुपके से निकल कर उसी अंधियारे में फ्रांस की ओर माल ले जाने वाले जहाज में पीछे छुप गया। इधर तूफान निकलते ही उसकी कड़ी खोज होने लगी परन्तु वह तो फ्रांस पहुंच चुका था। जहाज के किनारे लगते ही वह उतर कर चुपके से जंगलों में घुस गया। जब सवेरा हुआ सारे फ्रांस में नैपोलियन के भाग जाने का समाचार फैल चुका था। सेना सतर्क कर दी गई थी। लेकिन नैपोलियन भी तो विचित्र धातु का बना था। दिन निकलते ही पेरिस को जाने वाली सड़क पर अकेले ही चल पड़ा। मार्ग में लोग उसे मिलते-देखते मगर साहस की अपूर्व झलक का परिचय देने वाली आंखों के सामने उनका विरोध समाप्त हो जाता। दौड़ कर नैपोलियन की पीछे हो जाते। यों पेरिस के किनारे तक पहुंचते-पहुंचते उसके पीछे कई हजार लोगों की भीड़ चलने लगी। जब वह पेरिस के निकट पहुंचा तो सम्राट की सेना नैपोलियन का मुकाबला करने को खड़ी थी। वीर वेष में मार्च करता हुआ नैपोलियन आगे बढ़ रहा था। जैसे ही सेना के निकट पहुंचा तो कड़क कर कहा ‘वीरों मैं आ गया, मेरा आदेश है कि तुम पेरिस के राज्यसिंहासन पर अधिकार करो।’ यह वही सेना थी जिसने वर्षों तक नैपोलियन का आदेश माना था। सब की नसों में बिजली-सी कौंधी। नैपोलियन की वाणी सुनते ही वह सेना एक साथ पेरिस की ओर घूम गई। थोड़ी देर में नैपोलियन पुनः पेरिस के राज्य सिंहासन पर विराजमान दिखाई पड़ा। केवल साहस ने यह परिवर्तन कर दिखाया।
प्रथम महायुद्ध में हिटलर जर्मनी के सम्राट विलियम कैसर का एक साधारण सैनिक मात्र था। घमासान युद्ध हो रहा था। मोर्चे पर अचानक हिटलर अकेला पड़ गया था कि उसे शत्रुओं की एक टुकड़ी का उधर से आना सुनाई पड़ा। हिटलर को विश्वास हो गया कि तनिक भी हिचकिचाने से वह बंदी बना लिया जायेगा इस समय उसने साहस नहीं छोड़ा। एक तरकीब सोची और तुरन्त बड़ी जोर-जोर से ‘‘लैफ्ट-राईट’’ ‘‘लैफ्ट-राईट’’ ‘‘अबाउट टर्न’’ के आदेश देने लगा। स्वयं ही अपने बूटों की आवाज करता और तेज आवाज में आदेश बोलते हुए आगे बढ़ने जैसा प्रदर्शन कर रहा था। हिटलर की आवाज जब शत्रु सेना के कान में पड़ी तो उसे अनुमान हुआ कि कोई बड़ी टुकड़ी इधर ही आ रही है। हवलदार ने अपनी टुकड़ी को तुरन्त मुड़ने का आदेश दिया। और दूसरी ओर तेजी से चला गया। आगे यही सैनिक जर्मनी का भाग्य निर्माता तानाशाह बना। भले ही उसे पराजय मिली हो लेकिन उसके एक अद्वितीय वीर होने में कोई सन्देह नहीं कर सकता।
साहस के सामने हिंसक-पशु भी नतमस्तक हो जाते हैं। मनुष्य में जब कायरता उत्पन्न होती है तभी बाह्य शक्तियां उस पर आक्रमण कर सकती हैं। स्वामी दयानन्द सरस्वती जब हिमालय पर तप कर रहे थे तो एक दिन सहसा उन्हें एक शेर बिल्कुल निकट सामने ही दिखाई पड़ा। शेर को देख कर दयानन्द जी ने अपना साहस न छोड़ा। उसकी ओर आंखें किये हुए अचल भाव से खड़े रहे। थोड़ी देर तक तो शेर इनकी ओर खड़ा ताकता रहा, तत्पश्चात् हार कर जंगल में चला गया। यदि स्वामी जी भयभीत हो जाते तो निश्चय ही शेर उन पर आक्रमण कर देता।
साहस को धर्म का पहला लक्षण माना गया है। गीता ने इसे दैवी सम्पत्ति के रूप में प्रथम स्थान दिया है। तुलसीदासजी ने धर्म चक्र को पहिया माना है। गाड़ी पहिये के सहारे चलती है। इस प्रकार व्यक्ति साहस रूपी धुरी पर टिक कर संसार में अपने सभी कामों को सम्पादित करता है।
देश के उत्थान और पतन में साहस को विशेष महत्व देते हैं। जब तक देश के नागरिकों में शौर्य रहा विदेशी शक्तियां कुछ भी बिगाड़ न सकीं। बर्बर जातियों के आक्रमण हुए उन सब चोटों को वीरता पूर्वक सहन किया। गुप्त वंशीय सम्राट स्कन्दगुप्त की कहानी हमें मालूम है। सीमा पर मंगोलों के आक्रमण हो रहे थे। इस साहसी युवक ने प्रतिज्ञा कर ली कि जब तक मंगोलों से देश की रक्षा नहीं कर लूंगा भूमि शयन करूंगा, और विवाह न करूंगा। अन्त में सफल भी हुआ।
शिवाजी के पास क्या था। औरंगजेब जैसे प्रतापी मुगल सम्राट से मोर्चा लेने के लिए उनके पास न तो सेना ही थी और न युद्ध सामग्री। मगर था उसका साहस। उसी साहस ने शिवाजी को सदैव विजय दिलाई। मरहठों में जान फूंक देने का काम वे साहस के बल पर ही कर सके।
वीर छत्रसाल की मां का नाम ‘रानी सारन्धा’ था वह भी साहस और स्वाभिमान की पुतली थी तभी तो छत्रसाल जैसे पुत्र को जन्म दे सकी।
शाहजहां का जमाना था। सारन्धा के भाई बुन्देला सरदार अनिरुद्ध सिंह के पास घुड़सवारों और पियादों का एक छोटा सा, मगर सजीव दल था। इसी से वह अपने कुल और मर्यादा की रक्षा करता रहता था। श्री प्रेमचन्द्र जी अपनी कहानी में लिखते हैं कि ‘‘उसे कभी चैन से बैठना नसीब न होता था। तीन वर्ष पहले उसका विवाह शीतलादेवी से हुआ, मगर अनिरुद्ध विवाह के दिन और विलास की रात पहाड़ों पर काटता था और शीतला उसके जान की खैर मनाने में। अनिरुद्ध लड़ाई में था। अंधेरी रात में शीतलादेवी पलंग पर पड़ी करवटें बदल रही थी और उसकी नन्द सारंधा फर्श पर बैठी हुई थी।’’
इतने में द्वार खुला और एक गठे बदन के रूपवान पुरुष ने भीतर प्रवेश किया। यह अनिरुद्ध था। उसके कपड़े भीगे थे और बदन पर कोई हथियार न था। सारन्धा ने पूछा—
भैया, यह कपड़े भीगे क्यों हैं?
अनिरुद्ध—नदी तैर कर आया हूं।
सारन्धा—हथियान क्या हुए?
अनिरुद्ध—छिन गये।
सारन्धा—और साथ के आदमी?
अनिरुद्ध—सब ने वीरगति पाई।
शीतला ने दबी जबान से कहा—‘‘ईश्वर ने ही रक्षा की है। मगर सारन्धा के तेवरों पर बल पड़ गये और मुख-मण्डल गर्व से सतेज हो गया। बोली- भैया! तुम ने कुल की मर्यादा खो दी। ऐसा कभी न हुआ था।’’
सारन्धा भाई पर जान देती थी। उसके मुंह से यह धिक्कार सुनकर अनिरुद्ध लज्जा और खेद से विकल हो गया। वह विराग्नि जिसे क्षण भर के लिए अनुराग ने दबा दिया था, फिर ज्वलन्त हो गई। वह उलटे पांव लौटा और यह कह कर बाहर चला गया कि ‘‘सारन्धा! तुमने मुझे सदैव के लिए सचेत कर दिया। ये बातें मुझे कभी न भूलेंगी।’’
अनिरुद्ध किले से बाहर निकला। पल भर में नदी के उस पार जा पहुंचा और फिर अन्धकार में लुप्त हो गया।
इस घटना के तीन महीने पीछे मसरौना को विजय करके लौटा। सारन्धा के साहस पूर्ण वाक्यों ने उसकी पराजय को विजय में बदल दिया।
यही नहीं खेती बारी, व्यापार, नौकरी सब में साहस की आवश्यकता है। अर्थ शास्त्र में किसी उद्योग को सफल बनाने के लिए पांच आवश्यक तत्व बताए गए हैं। 1-पूंजी, 2-भूमि, 3-श्रम, 4-व्यवस्था, 5-और साहस, साहस के बिना ये चारों बेकार हो सकते हैं। वही व्यापारी सफल हो सकता है जिसने साहस का परिचय दिया। साहसी मारवाड़ी सुदूर प्रदेशों में पहुंच-पहुंच कर अपने व्यापार को जमाने में सफल हुए। साहसी अंग्रेज व्यापारियों ने संसार भर में दूर-दूर तक अपना झंडा फहरा दिया। मुट्ठी भर अंग्रेज आधे भूमण्डल के स्वामी बन बैठे।
14, 15 वर्ष के बच्चों की अवस्था गुणों के बीजारोपण की अनुकूल अवस्था है। इसलिए इस आयु में हर संभव उपायों से आप उनमें साहस रूपी सम्पत्ति दान करिए।
बच्चों में साहस भाव को कैसे जागृत किया जाए?—कुछ निश्चित नियमों को अपना कर बच्चों में शौर्य भाव जागृत किया जा सकता है। जैसे—
(1) बच्चों को कहानी बहुत प्रिय लगती हैं। माता-पिता साहसी वीरों की कहानियां सुनाकर उनमें साहस के भाव जगा सकते हैं। रात्रि में सोने से पूर्व उन्हें वीरों की गौरव-गाथाएं सुनानी चाहिए।
(2) बच्चे के व्यक्तित्व का आदर करना बहुत आवश्यक है। थोड़ी-थोड़ी भूलों पर उसे बहुत ज्यादा डांट फटकार बताने से अथवा बुरी तरह पीटने से बच्चों का शौर्य भाव दब जाता है। वे कायर, डरपोक और दब्बू बन जाते हैं। बच्चे को आदर की दृष्टि से देखना चाहिए। उसका उतना ही आदर होना चाहिए जितना युवराज का होता है। आप यदि उससे सम्मान पूर्वक वार्ता करेंगे, उसकी बातों को ध्यान पूर्वक सुनेंगे, उसकी उचित मांगों को यथा शक्ति पूरा करने की चेष्टा करेंगे तो वह एक साहसी बालक बनेगा।
(3) बहुत सी माताएं अथवा पिता ऐसे होते हैं जो अकारण बच्चे को अपशब्द कहा करते हैं, ‘तू नालायक है’, तुझसे कुछ भी न हो सकेगा, तूने तो खानदान का नाम डुबो दिया, घर में बैठा-बैठा मक्खी मारा करता है, आदि शब्द बच्चों को यथा शक्ति न कहना चाहिए।
(4) स्वामी विवेकानन्द जी कहते हैं कि ‘‘जो माता पिता दिन रात बच्चों के लिखने पढ़ने पर जोर देते रहते हैं, कहते हैं इसका कुछ सुधार नहीं होगा, ‘यह मूर्ख है, गधा है, आदि-आदि उनके बच्चे अधिकांश वैसे ही बन जाते हैं। बच्चों को अच्छा कहने से और प्रोत्साहन देने से, समय आने पर वे अच्छे बन जाते हैं।’’
(5) दैनिक कार्यों में बच्चों का सहयोग लीजिये, कभी-कभी उनको उनकी सामर्थ्य से अधिक का भी कुछ काम पूरा कराइये, यदि कोई कठिनाई आवे तो उससे पार निकलने की तरकीब भी बताइये, उनका मार्ग दर्शन कीजिए। जब वह काम पूरा कर लें तो उनकी पीठ ठोकिये, शाबाशी दीजिए, इससे उनका साहस बढ़ेगा। समय आने पर वह बड़े से बड़ा काम अपने हाथों में लेने से न हिचकेंगे।
(6) उनके स्वाभिमान को भूल कर भी ठोकर मत मारिए। एक एक छोटी घटना याद आती है। एक सिपाही के एक लड़का था। एक दिन वह बच्चा किसी से रूठ गया और लाठी उठा कर उसे मारने के लिए दौड़ा। वह व्यक्ति भाग रहा था। सिपाही ने जब यह देखा तो वह अपने बच्चे के पीछे-पीछे दौड़ा। उसे समझा बुझाकर वह हाथ से लाठी लेने का प्रयत्न कर रहा था। बड़ी दूर तक पीछे समझाते हुए जाने पर तब कहीं बच्चा माना। उसने रुककर लाठी अपने बाप को दे दी। लोग इस घटना को देख रहे थे, उन्होंने सिपाही से पूछा कि बच्चे की उद्दण्डता देख कर आपने उससे तुरन्त लाठी क्यों नहीं छीन ली? सिपाही ने उत्तर दिया कि ऐसा करना तो सरल था परन्तु इससे बच्चे का साहस कुचल जाता, मैं उसमें विवेक-बुद्धि उत्पन्न कर उसे बुरे कामों से रोकना चाहता हूं लेकिन उसके साहस को कुचलना नहीं चाहता।
(7) देशाटन कराने, ऐतिहासिक स्थलों को दिखाने, तथा वीर पुरुषों के सम्पर्क में लाने से बच्चे का शौर्य-भाव जागृत होता है। जब भी आपको समय मिले आप उसे अच्छे स्थानों के दिखाने के लिए ले जाइये।
सबसे बड़ा आदर्श तो आप स्वयं उपस्थित कर सकते हैं। रात में चूहे की खड़बड़ाहट से भयभीत होने वाले माता पिता भला अपने बच्चे में साहस के भाव कैसे भरेंगे?
एक सच्ची घटना याद आती है। हमारे रिश्ते के एक चाचा थे। गर्मी का महीना था। वे घर के आंगन में लेटे हुए थे, चाचीजी भी लेटी थीं और बच्चे भी थे। आधी रात के समय अचानक कोठे पर कुछ खटपट की आवाज आई। सब लोग चौंक कर उठे लेकिन किसी की हिम्मत न पड़ी कि सीढ़ियों से कोठे पर चढ़ने की पहल करें। चाचा बेचारे डर के मारे कांप रहे थे। अन्त में वहां कुछ भी न निकला तब चाचा भी जोर-जोर से बढ़-बढ़ कर बातें करने लगे। इस प्रकार की हिम्मत रखने वाले अभिभावक अपने बच्चों में साहस भरने का काम नहीं कर सकते।
(9) साहस के भाव को दृढ़ करने के लिये सफलता प्राप्त करना आवश्यक है। जब खेल में बच्चे की जीत होती जाती है तो उसका साहस बढ़ जाता है, निर्भयता आने लगती है और आत्म विश्वास बढ़ने लगता है, इसी प्रकार परीक्षा में सफलता मिलने पर, बच्चे के अन्दर से भय की भावना कम होती है, उसका साहस बढ़ने लगता है। अतः आप सदैव यह प्रयत्न करें कि खेल में उसके साथी ऐसे हों जो उसके समवयस्क हों, अर्थात् प्रतिद्वन्दिता में उसके जोड़े के हों। परीक्षा में सफल कराने के लिये आप उसकी शक्ति को तौल लें। प्रायः ऐसा होता है कि बहुत कच्ची उम्र में कुछ लोग अपने बच्चे से आशा करने लगते हैं कि वह दो-दो प्रारम्भिक कक्षाएं एक साथ पास करे। इसके लिये पैसे वाले लोग कई-कई ट्यूशन लगा कर उस पर और बोझ लादते जाते हैं। पढ़ाई का बोझ जब बच्चे पर अधिक हो जाता है तो दो तीन कक्षाओं में तो वह तेजी दिखाता है और आगे चलकर उसकी गति मन्द पड़ जाती है। वह कूचर बैल की नाईं अगली कक्षाओं का बोझ उठाने में सर्वथा असमर्थ हो जाता है। तब परीक्षा में अनुत्तीर्ण होने के अतिरिक्त और क्या चारा हो सकता है। माता पिता तब बच्चे को बुरा भला कहकर उसकी हिम्मत को पस्त करने लगते हैं। वे इस बात को नहीं समझते कि दोष तो उन्हीं का है। इसलिये यदि आप का बच्चा कक्षा में कमजोर चल रहा है तो उत्तम तो यह होगा कि आप उसे आगे की कक्षाओं में जाने से रोक कर उसकी कमजोरी को दूर करिए। शिक्षकों को लालच दिखाकर सिफारिश पहुंचा कर अथवा किन्हीं अन्य अनुचित उपायों से उसे कच्ची तरक्की दिलाना कदापि हितकारी सिद्ध न होगा। बच्चे को भी आप समझा बुझा कर यही परामर्श दीजिए कि यदि वह उसी कक्षा में जिसमें वह कमजोर है, एक वर्ष और पढ़कर अपनी पिछली कमजोरी मिटा लेगा तो फिर आगे कभी फेल होने की संभावना न रहेगी। यदि आप बच्चे से ऐसा करा लेते हैं तो उसका साहस कभी कम नहीं हो सकता।
पहले जैसी स्थिति तो अब नहीं है जिसमें वीर सैनिकों के उदाहरण काम में आयें। लेकिन खेती−बाड़ी, व्यापार, पढ़ाई, नौकरी एवं उद्योग धन्धों में जिन लोगों ने अपूर्व साहस का परिचय देकर अपने बिगड़े कारोबार को जमाया हो, ऊसर खेती को आबाद कर उसे अन्नपूर्ण बनाया हो, निर्धनता रूपी पिशाचिनी से मोर्चा लेते हुए जिन लड़कों ने अपनी पढ़ाई को जारी रखकर आखिर में सफल हुए हों, ऐसे लोगों के उदाहरण बच्चों के सामने रखने चाहिए। यदि हो सके और ऐसे लोग अपने क्षेत्र में हों तो कभी-कभी अवसर पाकर अपने बच्चों को उनसे मिलाना, उनके प्रेरणात्मक सम्पर्क में लाना हितकर होता है।
बच्चों को सामूहिक सेवा के कार्यक्रम में भाग लेने के लिए प्रोत्साहित करना चाहिए। स्काउटिंग, रेडक्रास, सेन्ट जान्स एम्बुलेंस अथवा सेवा समितियों के कार्यों में भाग लेने से कभी न रोकना चाहिए। उनको प्रोत्साहित भी करना चाहिए। स्काउटिंग बच्चों के लिए बड़ा उपयोगी साधन होता है।
(10) नदी, पहाड़, जंगल, प्राकृतिक दृश्यों का अवलोकन जहां एक ओर बच्चे में व्यवहारिक ज्ञान भरते हैं, वहां वे कल्पित धारणाओं, भयोत्पादक शंकाओं का निवारण करते हैं। अतः समय-समय पर इन स्थानों पर बच्चे को ले जाकर जानकारी करानी चाहिए।
(11) साहस के विपरीत अवगुण ‘भय’ है। भय कभी-कभी तो सत्य परिस्थितियों से पैदा होता है परन्तु अधिकांशतः शंकाओं के आधार पर उत्पन्न हो जाता है। भूत-प्रेत का भय, देवी देवताओं का भय, पुलिस और अफसर का भय, यह सब छोटे बच्चों में अपने माता-पिता, परिवार तथा गांव वालों से मिले हैं। हमारे देश में अफवाहें बहुत उड़ती हैं। लोग सत्य बात का पता कम लगाते हैं और मन गढ़न्त कपोल कल्पित बातों पर तुरन्त विश्वास कर लेते हैं। यह सारी बातें उनके हृदयों में भय उत्पन्न करती हैं। उनका साहस दब जाता है। इसलिये जहां एक ओर झूठी डींग हांक कर आप बच्चे के हृदय में अविश्वास पैदा न करें, वहां यह भी आवश्यक है कि उसके सामने कायरता की बातें न करें। भविष्य के कर्णधारों को कायर बनाना कोई बुद्धिमानी का कार्य नहीं है।
धैर्य एक महत्वपूर्ण गुण — जीवन रूपी गाड़ी का दूसरा पहिया है ‘धैर्य’। अकेला साहस उस समय तक पंगु है जब तक धैर्य का सुमिलन उसके साथ न हो।
विपत्ति के पहाड़ टूटने पर, चारों ओर से निराशापूर्ण परिस्थितियां भले ही हों लेकिन धैर्यवान् व्यक्ति उन सब का निवारण कर डालता है। महात्मा गांधी को अहिंसात्मक सत्याग्रह चलाने में कितनी बात असफलताओं का मुंह देखना पड़ा। सन् 1921, 31, 33 आदि के सभी सत्याग्रह पूर्ण सफलता नहीं दे सके। बीच में ही कुछ बाधाओं के कारण उन्हें रोकना पड़ा। सन् 1921 का सत्याग्रह बड़े वेग से चल रहा था, सब की धारणा बनती जा रही थी कि सरकार आज कल में ही उलटने वाली है लेकिन चौरी चौरा के हिंसात्मक काण्ड से विचलित होकर गांधी जी ने सत्याग्रह स्थगित कर दिया। सम्पूर्ण देश में एक निराशा एवं शिथिलता का वातावरण फैल गया। मगर क्या वह योद्धा कभी हिम्मत हार सकता था? सन् 1914 से 1947 ई. तक निरन्तर संघर्षरत रहना पड़ा। इन दिनों कितना उत्साह जगा, कितने निराश हुए लेकिन अविचल गति से परिस्थितियों का सामना करते हुए आगे बढ़ते गये अन्त में सफलता ने उनके पैर चूमे।
थोड़ी सी कठिनाई पर हिम्मत हार जाने वाले मनुष्य अच्छे नहीं माने जाते। जीवन सदा एक रस नहीं रहता। यह उस नदी की भांति है जिस में कभी तेज चढ़ाव आता है और कभी दिखावे की लहरें ही होती हैं। हमें हर दशा में इसे पार करना है। इसका पानी कम गहरा हो तो बेपरवाही के साथ हंसते हुए और मुस्कराते हुए, चढ़ाव अधिक हो तो बड़ी सावधानी, साहस और धैर्य के साथ।
पालन-पोषण की त्रुटि समझिए या मन की बनावट का दोष। हममें अनेक लोग ऐसे हैं जो हर्ष और विनोद के क्षण तो हंसी खुशी से बिता देते हैं परन्तु कष्ट और कठिनाई सहन करने की तनिक भी सामर्थ्य नहीं रखते। जैसे ही कोई दुःख या कष्ट सामने आता है, वे घबरा जाते हैं। कांटा भी चुभ जाये तो चिल्लाना शुरू कर देते हैं। कभी जमाने के रूखेपन की शिकायत और कभी साथियों की बेवफाई का रोना। भाग्य, ईश्वर की इच्छा तथा मित्रों का चलन सब में से उनको शत्रुता की दुर्गन्ध आने लगती है। मानों समस्त संसार उनका शत्रु है।
ऐसे लोगों के जीवन में वास्तविक कठिनाइयां इतनी नहीं होतीं जितनी निराधार शिकायतें। हर समय, रोना चीखना, मुख को उदासीन बनाए रखना, आत्मग्लानि ग्रस्त रहना और शिकायतों का विष उगलते रहना उनके स्वभाव और प्रकृति के अंग बन जाते हैं। जिस कार्यालय या सभा में इस प्रकार का एक भी व्यक्ति बैठा हो, वहां के द्वार, दीवार, कमरे में पड़ी प्रत्येक वस्तु और आस पास के सभी लोगों के मुंह पर निराशा की झलक दिखाई देने लगती है। एक व्यक्ति का निराश मुख आस-पास के सभी लोगों के मनोरंजन को भंग कर देता है। दर्द भरी एक ही बात सारी सभा को उदासीन कर देती है।
कई साधारण सी कठिनाइयां हमें केवल इसलिये हव्वा बनाकर डराती और हमारे जीवन को कटु बना देती हैं क्योंकि हम उनके साथ समझौता नहीं करते। अन्यथा जिस प्रकार हमारे अन्दर यह शक्ति होती है कि जीवित व्यक्तियों से समझौता करके द्वेष को मित्रता और सहृदयता में बदल देते हैं, उसी प्रकार अपने रूठे हुए दुःखों को भी मना सकते हैं। जिस दुःख के साथ समझौता कर लिया जाए वह हमारे मन में शिकायतों का विष नहीं पैदा होने देता। इसके विपरीत रूठा हुआ दुःख हमारे मन और मस्तिष्क, शरीर और स्वभाव का रक्त तो चूसता ही है, साथ-साथ हमारे साथियों की प्रसन्नता की जड़ें भी काट देता है।
अभिभावकों का कर्तव्य — अपने जीवन से ही धैर्य की शिक्षा दी जा सकती है। बात-बात में रोना, चिल्लाना, प्रकृति और दैव को दोष देने से किसी की मुसीबत कटती नहीं दीखती। संकटों और दुःखों से तो तभी छुटकारा मिल सकता है जब उससे मुक्ति पाने के लिए प्रयास किया जाए। संसार की सत्यता को समझने के प्रयास से ही यह भाव उत्पन्न होते हैं। जब हम इस तथ्य को समझ लेते हैं तो सबको दुःख-सुख के झूले में झूलना पड़ता है। कभी दुःखों का सामना करना पड़ेगा तो कभी सुख भोगना पड़ेगा। इससे कोई व्यक्ति छुटकारा नहीं पा सकता तभी मैथिलीशरण गुप्तजी की पंक्तियों पर हमें विश्वास होगा कि—
संसार की समरस्थली में धीरता धारण करो ।
चलते हुए निज इष्ट पथ पर संकटों से मत डरो ।
खेल खेल में बच्चों को कभी-कभी निरन्तर पराजय का मुंह देखना पड़ता है। कई बार लगातार हार से कई बच्चे तो हिम्मत हार बैठते हैं लेकिन कुछ उससे निराश न होकर सतत प्रयत्न में लगे रहते हैं, परिणाम यह होता है कि वह अपनी पराजय को विजय में बदलने में सफल हो जाते हैं। हमें यह देखते रहना चाहिए कि बच्चे कहां और किस अवस्था में हिम्मत हार रहे हैं। कम पढ़ाई और परीक्षा की कठिनता से इनमें दुर्बलता के भाव उठ आते हैं कभी-कभी आर्थिक तंगी, घर से फीस आदि की व्यवस्था न होने के कारण वे पढ़ने से मन मार कर बैठ जाते हैं। ऐसे अवसर पर आपके थोड़े से उत्साह वर्धक शब्द बिजली जैसा चमत्कार दिखा सकते हैं। किसी बच्चे को आप उदास देखते हैं और यदि वह आपसे अपनी विपत्ति का रोना रोता है तो उसे दुत्कारना, ठुकराना अथवा झिड़क कर उसे भगा नहीं देना चाहिए। आप उसे सहानुभूति पूर्वक अपने पास बिठा लीजिए। प्रेम से उसकी सब बातों को सुनिये। उसकी कठिनाई कितनी भी छोटी या मनगढ़न्त क्यों न हो लेकिन आपकी मुखाकृति से यह बात कदापि झलकने न पाए कि आप नकली तरीके से उसकी बातों को सुन रहे हैं। यदि इस का तनिक भी आभास बच्चे को हो गया तो या तो वह आपसे अपने दिल की बात कहेगा ही नहीं और यदि कह भी दी हो तो आपके उपदेश का उसके ऊपर किंचित मात्र भी प्रभाव न पड़ेगा। बड़ी तल्लीनता के साथ आप उसकी बात को सुनिए और तब सहानुभूति, प्रेम तथा आत्मीयता के साथ उससे छुट्टी पाने का उपाय बताइये। यदि वह निराश हो चला हो तो उसे आशा बंधाइये, धैर्य दिलाइये।
धैर्य की कसौटी दो परिस्थितियों में भिन्न रूप से होती है एक तो किसी दुर्घटना या आकस्मिक विपत्ति के समय। चलते-चलते किसी रिक्शा, तांगा से टकरा जाना, गिर पड़ने से चोट लगना अथवा मारपीट की अवस्था आ जाना। इस समय भी घर के लोग घबरा जाते हैं। इतनी बुरी तरह से हाथ पैर पीटने लगते हैं, मानों ऐसी विपत्ति उन्हीं पर पड़ी है। हिम्मत हार बैठते हैं और दुर्घटना से छुट्टी पाने के लिये जो उपाय करने चाहिए वे नहीं करते।
छोटी-छोटी टकराहट, पड़ौसी से मार पीट या उद्दण्डता के कारण कोई घटना उत्पन्न कर देना तो बालकों का स्वभाव ही होता है। उनको इसमें आनन्द मिलता है। कहते हैं ‘तरुणाई में आंखें अन्धी हो जाती हैं।’ दूसरों से छेड़छाड़ करने की ओर रुझान अधिक हो जाती है। इस अवस्था में स्कूलों में देखिये, बच्चे आपस में दो दल बनाकर अपनी शक्ति की आज़माइश करने की चेष्टा करते रहते हैं। अकारण दूसरे लड़कों अथवा राह चलने वाले लोगों को छेड़ते हैं। ऐसा करने से नई नई विपत्तियों का खड़ा हो जाना स्वाभाविक है। परन्तु इन्हीं सबके द्वारा बच्चे अपने ‘साहस’ का प्रदर्शन करते हैं। यदि उनकी इस प्रवृत्ति को अच्छाई और पुरुषार्थ की ओर मोड़ा जाए तो उसका अच्छा फल निकल सकता है। बच्चों के साहस को मेले ठेले या सार्वजनिक सभाओं में भीड़ को सुव्यवस्थित करने में, घाटों के किनारे स्नान करने वाले यात्रियों को डूबने या कुचलने से बचाने की व्यवस्था करने में लगाना चाहिए। यदि बच्चों को सार्वजनिक रचनात्मक सेवा कार्यों में लगाया जाए तो उनमें साहस और धैर्य दोनों गुणों का विकास होगा। माता पिता को चाहिए कि स्कूलों की ओर से इस प्रकार के जो आयोजन हों, उनमें तो बच्चों को शामिल करायें ही साथ ही स्वयं भी चेष्टा करके बच्चों को इन अवसरों से लाभ उठाने का अवसर दें। उन्हें क्रियात्मक और ज्ञानात्मक दोनों रूप से यह बताने की चेष्टा मां बाप को करते रहना चाहिए कि किसी आकस्मिक विपत्ति के आ जाने पर हिम्मत हार बैठना, केवल कायरता है। अधिक रोने-पीटने गिड़गिड़ाने से विपत्ति से छुटकारा नहीं मिलता। ऐसे अवसर पर अपने धैर्य को न खोकर उस विपत्ति से बचने के उपाय सोचने चाहिए। कोई भी व्यक्ति यदि विपत्ति के समय शान्त चित्त से उपाय खोजे तो बहुतेरे उपाय निकल सकते हैं।
दूसरी प्रकार की विपत्ति की अवधि लम्बी होती है। आर्थिक कठिनाई, पढ़ने में मन्दबुद्धिता, विमाता का द्वेष अथवा मातृहीन या पितृहीन होने से परिवार के अन्य सदस्यों का उपेक्षा भाव रखना इसके कारण होते हैं।
बालक ध्रुव की कहानी कौन नहीं जानता। उन जैसे हजारों बालक विमाता के अनुरोध पर पिता की गोद से पृथक राये जाते हैं। लेकिन वे अपनी दीनता को सौभाग्य में बदलने की चेष्टा नहीं करते इसलिये जीवन भर उसी का रोना रोने के अतिरिक्त उन्हें कुछ नहीं मिलता। ध्रुव ने अपने साहस का परिचय दिया।
भक्त प्रहलाद की कहानी भी तो हमें यही शिक्षा देती है। पिता हिरण्यकशिपु बालक के विचारों से क्रुद्ध हो जाते हैं। वे चाहते हैं कि मेरा पुत्र प्रहलाद मुझको ईश्वर माने, वह ईश्वर की भक्ति न करे, मगर प्रहलाद ने सत्य मार्ग को न छोड़ा। कितनी ही विपत्तियां उसके ऊपर ढहाई गईं। परन्तु क्या प्रहलाद मरा? नहीं, उसने हिम्मत न हारी। अन्त में उनको ऐसी विजय मिली जैसी विरलों को ही मिलती है। नरसिंह रूप में भगवान् को आकर उनकी रक्षा करनी पड़ी।
बहुत दूर हम न जायें। शिवाजी ने बचपन ही से तो अपने धैर्य का परिचय दिया। एक छोटा बालक बीजापुर जैसी शक्ति का विरोध करने की तैयारी करे वह भी कुछ जंगली बच्चों को अपना सहयोगी बनाकर। भला यह बात बुद्धि में आने वाली है? लोग हंसते थे शिवा की मूर्खता पर।
जब शिवाजी की कार्यवाहियां बढ़ने लगीं तो बीजापुर के सुलतान ने शिवाजी के पिता शाहजी को, जो कि उन्हीं के दरबार में एक उच्च पद पर थे, बन्दी बना लिया कि इसी से शिवा भयभीत होकर हमारी आधीनता स्वीकार कर ले। मगर शिवाजी ने हिम्मत न हारी। उन्होंने अपने पिता को छुड़ाया और स्वयं भी अपनी कार्यवाहियां जारी रखीं। जन साधारण को यह नहीं मालूम कि शिवाजी को कितनी विपरीत परिस्थितियों का सामना करना पड़ता था मगर कभी भी उन्होंने अपने धैर्य को न छोड़ा। इसी से वे हिन्दू साम्राज्य के संस्थापक एवं लाखों लोगों के आराध्य देव माने जाते हैं।
मुगल सम्राट् अकबर जब केवल 13 वर्ष का था तभी पिता हुमायूं की मृत्यु से उसे गद्दी पर बैठने का अवसर मिला। तब वह अपने संरक्षक वैराम खां की संरक्षता में था। परन्तु क्या साहसी व्यक्ति कभी किसी का मुंह ताकता रहता है? उसने अपने सारे बन्धन काटे और अल्पायु में ही वह विशाल साम्राज्य का कुशल प्रशासक बना। यदि विपत्तियों से घबरा कर वह हिम्मत हार बैठता तो क्या उसे चमकने का अवसर मिलता।
भक्त कवि मीराबाई को क्या हम नहीं जानते? उनके पति राणा ने उन पर कितनी विपत्तियां डालीं। मगर देवी मीरा ने धैर्य पूर्वक उनको सहन किया। कभी न उन्होंने हिम्मत हारी और न राणा अथवा किसी अन्य विरोधी से बदला लेने में अपनी शक्ति लगाई। वे अचल और अटल बन कर अपने पथ पर चलती गईं। इसी से मीराबाई आज भक्त शिरोमणि नारी कवि कहलाती हैं।
आज भी हम देखें कि पिता की मृत्यु से कितने ही बच्चे हिम्मत हार बैठते हैं, अपनी पढ़ाई को त्याग कर अपने विकास को रोक देते हैं। परन्तु ऐसे भी हैं जो हर दशा में अपना मार्ग खोज ही लेते हैं। अपना काम काज करते हुए पढ़ाई को चालू रखकर प्राइवेट रूप में बी.ए., एम.ए. एवं उच्च शिक्षा प्राप्त करके अपने परिश्रम से उच्च पदों पर पहुंचने वालों के उदाहरण दुर्लभ नहीं हैं।
जीवन के हर क्षेत्र में साहस और धैर्य की आवश्यकता है। जो अपने धैर्य को न खोकर साहस का परिचय देता रहता है, वह धीरे-धीरे दैवी मार्ग की ओर बढ़ता जाता है। अन्त में उच्च पद पर पहुंच कर उसे चमकने का अवसर मिलता ही है।
बच्चे की यह अमूल्य सम्पत्ति है। आप इसे अपने बच्चे को दें तो वह जीवन भर उसे खर्च करके भी कभी भिखारी न बनेगा। ज्यों-ज्यों वह इन सम्पत्तियों को खर्चेगा वह और धनी बनता जाएगा