बालकों का भावनात्मक निर्माण

बच्चे को आज्ञाकारी कैसे बनाएं

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जमाने के साथ बच्चों की दुनियां भी बदल रही है। यों कहना उचित होगा कि शिक्षा, सभ्यता तथा अपने संगी-साथियों का बच्चे के ऊपर इतना असर पड़ने लगा है कि अब, माता-पिता ने जो कहा बच्चे बिना हीलहुज्जत किये उसी के अनुसार करने लगे, ऐसे उदाहरण बहुत कम देखने को मिलेंगे। मां-बाप भी बच्चों को कड़े नियन्त्रण में रखने में अब विश्वास नहीं करते। क्योंकि मनोवैज्ञानिकों ने यह साबित कर दिया है कि बच्चों के ऊपर बहुत दबाव डालने से उनकी मानसिक तथा शारीरिक शक्तियों का पूर्णतया विकास नहीं होता। फलस्वरूप बच्चे जीवन के संघर्ष में पूरी तौर से अपना पार्ट अदा नहीं कर पाते।

नियमों से जकड़ें नहीं बच्चा आखिर बच्चा ही है। वह बड़ों के सदृश्य सभा समाज के नियमों से अपरिचित है। इसलिए यह मां-बाप का कर्तव्य है कि प्रेम और सहानुभूति पूर्वक सही तरीकों का ही उपयोग करें।

आज्ञा-पालन के विषय में बच्चे के दो रुख होते हैं, एक तो प्रसन्नतापूर्वक बिना किसी दबाव के कहना मानना, क्योंकि जो मनुष्य उसे हुक्म दे रहा है उसके प्रति उसका विश्वास और प्रेम है। दूसरा रुख है जब बच्चा जानता है कि जो मनुष्य मुझे हुक्म दे रहा है वह मुझसे जलता है, या उसका रुख पक्षपातपूर्ण है या वह हुक्म देने के अयोग्य है ऐसी स्थिति में बच्चा केवल लाचारी में कहना मानेगा।

कई बच्चे ऐसी जिद्द पकड़ लेते हैं कि मां-बाप के हुक्म के सिवा और किसी को हुक्म की परवाह ही नहीं करते। ऐसी आदत बुरी है। बच्चे में सहयोग की आदत और मिलकर काम करने का स्वभाव खेल खेल में पैदा करना चाहिये। इसलिए बच्चा केवल इस भावना से कोई अच्छा काम नहीं करे कि इससे मां खुश होगी या करने से पिताजी नाराज होंगे। परन्तु इस विचार से करे कि यही करना ठीक है और ठीक काम करने से मां-बाप खुश होते ही हैं। इससे यह लाभ होगा कि अच्छे काम को वह किसी व्यक्ति विशेष तक सीमित नहीं रखेगा।

अपने आदेशों में सामंजस्यता रखें बच्चे को उसके बुरे काम के लिए डांटते या सजा देते समय इस बात का ध्यान रखें कि जब वह कसूर करे, उसी समय उसे डांटना या समझाना चाहिए। एक-दो दिन बाद डांटने अथवा कभी उसी गलती पर सजा देना, कभी छोड़ देने से बच्चे के मन में उस डांट या सजा का असर नहीं होता उल्टा वह चिढ़-सा जाता है। अगर किसी बच्चे ने कोई कसूर किया है, तो उससे बहुत परेशानी दिखायें, नहीं तो बच्चा अपने में ऐसी खासियत समझने लगेगा कि वह जब चाहे आप को परेशान करके महत्त्व प्राप्त कर सकता है। बच्चों के सुधार के मामले में धीरता से काम लेना चाहिए। सजा देते समय इस बात का ध्यान रखना जरूरी है कि इससे बच्चे का आत्म सम्मान नष्ट हो। अतएव उसे एकान्त में बुलाकर डांटना उचित है। सजा मिलने के बाद बच्चे में ग्लानि नहीं पैदा होनी चाहिए, नहीं तो उसमें हीनता की भावना पैदा हो जायगी। मां-बाप का रुख बच्चे के प्रति ममतापूर्ण होना चाहिए कि दण्ड देने वाले पुलिसमैन का। कोई बच्चा जन्म से बुरा नहीं होता। बच्चे बहुत से कसूर इसलिए कर बैठते हैं कि उन्हें सही और गलत का पता नहीं होता। इसलिए उसकी जिस हरकत को आप शरारत समझते हैं, हो सकता है कि वह उनकी अनजाने में की गई भूल हो, इसलिए बच्चे की भूल को सुधार कर उसे ठीक बात समझा देना चाहिए। अपने गुस्से के उबाल को बच्चे पर कभी नहीं निकालें। ऐसी दशा में आप बच्चे के साथ बहुत ज्यादती कर बैठेंगे।

माता-पिता इस बात का ध्यान रखें कि जिन बुराइयों के लिए वे बच्चे को रोकते-टोकते हैं कहीं वही बुराइयां खुद उन में तो नहीं हैं। क्योंकि उपदेश देने से उदाहरण पेश करना अधिक महत्त्व रखता है। बच्चे भलाई की बनिस्बत बुराई की झट नकल करते हैं। इसलिए यह जरूरी है कि बच्चे को सुधारने से पहले स्वयं पूर्ण होना चाहिए। अन्य कामों की तरह बच्चे आज्ञा पालन करना भी सीख जाते हैं। अच्छे काम का नतीजा सुख और प्रशंसा, बुरे कामों का नतीजा दुख और सजा है, इन दो नतीजों का उनके कारणों से सम्बन्ध है, यह बात उनके मन में भली प्रकार जमा दें।

जिस घर में दो अमली राज होगा अर्थात् मां भी हुक्म दे तथा बाप मां की बात को काट कर दूसरा हुक्म दे, तो इस से बच्चे में अपनी सुविधा के अनुसार काम करने की प्रवृत्ति हो जायगी। माता-पिता के परस्पर झगड़े का भी बच्चे पर बुरा असर पड़ेगा और वह उच्छृंखल बन जायगा। बच्चों की उम्र का भी आपको ध्यान रखना चाहिए। शब्द प्रति शब्द तो आपके हुक्म का वह पालन नहीं कर सकते। अगर वह यथा-शक्ति आज्ञा पालन करने की चेष्टा करते पाये जायें तो भी आपको उन्हें उत्साहित करना चाहिए पर कुछ हुक्म ऐसे हैं जो उन्हें तुरन्त पालन करना चाहिए। जैसे वह रख दो’ ‘इधर जाओ’ ‘फौरन भागोइन आदेशों को आप खेल में ही पालन करवायें तो बच्चे सुनने मात्र से पालन करने के अभ्यासी हो जायेंगे।

आदेश देते समय नीचे लिखी बातों का विशेष ध्यान रखें।

1—बच्चे की सामर्थ्य, योग्यता तथा आयु का ध्यान रख कर जो हुक्म सोच विचार कर दिया गया है उसका पालन बच्चे से अवश्य करायें।

2—हुक्म देने के ढंग तथा कार्य प्रणाली में आप हमेशा परिवर्तन करते रहें। अन्यथा बच्चा आपके तरीकों तथा स्वभाव से परिचित नहीं रहेगा।

3—आप का व्यवहार बच्चे के प्रति धांधली मचाने वाला या अत्याचारी डिक्टेटर का नहीं होना चाहिए। अगर बच्चा अपने खेल में लगा है और सोने अथवा खाने या कहीं जाने का समय हो गया है, तो उसे दस मिनट पहले से सूचित कर दिया जाय ताकि वह अपना ध्यान खेल से हटा सके। आपकी आज्ञा-पालन के लिए उसे काफी समय मिल जाने से फिर वह आपके प्रति विद्रोही नहीं होगा।

4—किसी काम के करने का आदेश देने से यह अधिक उपयुक्त होगा कि आप उसे स्वयं करते हुए उसमें उससे सहयोग देने को कहें। जैसे—‘‘आओ बेटा, जरा अपने खिलौने तो उठवा कर रखवा लो।’’ आदेश जहां तक हो सके नकारात्मक हो। टोकने से तो अच्छा यह है कि उसका ध्यान किसी अच्छे काम की ओर आकृष्ट किया जाय।

5—आदेश देते समय आपकी आवाज अधिक आदेशात्मक होकर एक सप्रेम निवेदन के रूप में होनी चाहिए। अपने मां बाप से ही बच्चा विनयशीलता सीखता है। अन्यथा वह भी लट्ठ मार ढंग से बातचीत करना सीख जाता है।

6—जब आप बच्चे को काम करने को कहें, उस समय आप यह ध्यान रखें कि वह आपकी बात को ध्यान से सुनकर समझ रहा है या नहीं? कभी कभी सुनने में लापरवाही से भी आज्ञा उल्लंघन हो जाती है।

7—एक समय जिस काम के लिए आपने उसे सजा दी थी वही काम करने की इजाजत कभी दें। अन्यथा आपकी हिदायतों का उस पर कुछ प्रभाव नहीं पड़ेगा। कोई काम कराने से पूर्व उसके उत्साह को जाग्रत करें कि यह कहें कि तुम्हें यह करना पड़ेगा। इससे बच्चे के स्वाभिमान को ठेस लगती है।

8—अगर आपने बच्चे को धमकी या इनाम देने का वचन दिया है तो दोनों बातों का पालन अवश्य करें। अन्यथा आपकी धमकी का डर और बात की साख दोनों मिट जाएंगी।

9—बच्चे में आप अविश्वास रखें। उसे बदनाम करें। इससे बच्चा हतोत्साह हो जाता है क्योंकि बद से बदनाम बुरा तो हो सकता है कि जो बच्चा ज्यादा शैतान या बदनाम हो, वही हर समय काम करता हो। पर घर में उसकी ओट में असली अपराधी छिपने की कोशिश कर रहा हो।

10—यदि किसी बच्चे में कोई दोष या कमी हो तो उसके हृदय में यह जमने दें कि आप नफरत करते हैं। परन्तु यह बतायें कि आप उस बुराई को नापसन्द करते हैं। और उस बुराई को छोड़ देने से वह बहुत ही अच्छा बच्चा बन जायेगा।

अच्छा काम करने पर या आपके कहे अनुसार करने पर आप शाबाशकह कर उसका उत्साह बढ़ायें। अगर वह कोई बुरा काम करने जा रहा हो तो यह कह कर कि मेरा बेटा ऐसा बुरा नहीं है जो ऐसा खराब काम करेउसके मन में यह विचार जाग्रत करदें कि क्यों कि बच्चा अच्छा लड़का है, इसलिए बुरा काम करना उसकी आदत और शान के खिलाफ है। इस तरह से बच्चों का झुकाव अच्छी बातों की तरफ खुद हो जायगा।

समझदार मां-बाप इसी प्रकार के तरीकों से बच्चों को आज्ञाकारी तथा कर्त्तव्यपरायण बना लेते हैं। एक बुद्धिमती माता ने बताया कि जब उसे अपने बच्चे से ऐसा कार्य करवाना होता है जिसमें बच्चे की ओर से प्रतिरोध की संभावना होती थी तो वह पहले अपने बच्चे को पास बुलाकर दुलार से पीठ पर हाथ फेरती हुई तद् विषयक कोई प्रोत्साहन उत्पन्न करने वाली बात सुनाकर उस कार्य को करने के लिए बच्चे की मानसिक तैयारी कर लेती और फिर उसे आदेश देती।

एक बार बच्चे की वार्षिक परीक्षा पास थी, वह गणित में बहुत कमजोर था, अतएव गणित के अभ्यास करने में उसका मन ही नहीं लगता था। मां ने उसे दुलारते हुए कहा बेटा, तू सब विषयों में इतना होशियार है। अबकी तो तू अपनी कक्षा में जरूर प्रथम आयगा, आखिरकार तो मेरा बेटा जो ठहरा। मैं भी बचपन में अपनी कक्षा में प्रथम रहती थी।

यह सुनकर बच्चा मुंह लटका कर बोला ‘‘पर मां हमारा गणित बड़ा कमजोर है। उसके मारे हमारी पोजीशन गिर जाती है।’’ मां ने पुचकारते हुए कहा ‘‘अरे बेटा यह कौन बड़ी बात है, कल से हम दोनों गणित किया करेंगे, मैं दस दिन में तुझे सारे सवाल सिखा दूंगी।’’

बच्चे ने उत्साहित होकर पूछा ‘‘सच मां, कल से तुम मुझे पढ़ाओगी। अच्छा तब तो मैं जरूर गणित का अभ्यास करूंगा।’’

बस दूसरे दिन से बच्चे की मां ने गणित के दो-चार गुरु बच्चे को सिखा दिये। मां से प्रोत्साहन पाकर बच्चे ने अपनी कमी पूरी करली जबकि मास्टर दस बार कह कर हार गया था, पर वह लड़का गणित करके ही नहीं लाता था।

जो व्यक्ति बच्चे की योग्यता तथा मूडको समझ कर आदेश देता है उसे बच्चे का सहयोग प्राप्त करने में कठिनाई नहीं होती। उस के आदेशों का पालन करने में बच्चे अपना मानसिक और शारीरिक सहयोग सहर्ष देते हैं। दबाव या डराकर कराया हुआ काम बच्चों को कामचोर और फरेबी बना देता है। जब तक उन पर निगरानी रहती है तभी तक वह काम करते हैं, बड़ों की पीठ मुड़ते ही फिर उस काम को महत्त्व ही नहीं देते। डांट या मार खाते-खाते ऐसे बच्चे ढीठ हो जाते हैं और फिर उन का रुख ऐसा हो जाता है कि पीठ पर अगर दो धप्प पड़ भी गये, तो क्या हुआ, वह तो मेरी पीठ की न्यौछावर थी।

बड़े एक भूल और कर बैठते हैं कि वे अपना कोई काम करवाने के लिए बच्चे के पिछले अपराधों की याद दिलाकर उसे दबाने की चेष्टा करते हैं। जैसे एक बड़ी बहन अपने छोटे भाई राकेश से बोली ‘‘मुन्नू जरा चिट्ठी मां डाल आ। अच्छा तू नहीं सुनता, ठहर जा, पिताजी को जाने दे, आज मैं उन्हें बताऊंगी कि पिछले इतवार को तू सिनेमा गया था।’’

ऐसे मौके पर बच्चा दब तो जायगा परन्तु इस प्रकार से कहना मनवाना बच्चे के लिए हितकर नहीं है।

बच्चों से काम कैसे करवायें आप जब बच्चे से कुछ काम करवाना चाहते हैं, तो उस समय आदेश देते हुए इस बात का विशेष ध्यान रखें कि बच्चा हांऔर नाकी दुविधा में पड़े। बच्चातुम खाओगे या नहीं? ‘नहाने चलोगे कि नहीं? क्या तुम सोने के लिए चल रहे हो?’ आपके इस प्रकार पूंछने पर संभव है वह अपनी प्रधानता जताने के लिए अथवा अपनी सुविधा के लिए नकारात्मक उत्तर दे। तब आप उसे समझाना शुरू करके सोने या खाने के लिए ले चलने का प्रयत्न करें। पर बच्चा जी तो अपने खेल में डूबे हुए मां की ही नहीं सुनते। अगर बच्चे के नहाने का समय है और बच्चा अपनी नई मोटर से खेल रहा है तो कहें भइया चाबी भर कर मोटर को गुसलखाने की ओर ले चलोबस अब बच्चा भी वहां पहुंच जायगा और आप मोटर उठाकर गुसलखाने की मुंडेर पर रख दें और बच्चे को बातों में उलझाये रख कर नहला दें। इसी तरह अगर बच्ची गुड़िया खेलने में उलझी हुई है तो उससे कहें चलो मुन्नी रानी गुड़िया को भी भूख लगी है, इसको भी हाथ धुलवा कर खाने के कमरे में ले चलो।बस बच्ची खुशी से आपके साथ चल देगी और गुड़िया को सामने बिठा कर खाना खाने में उसे भी आनन्द आयेगा। इसी प्रकार बाहर घूमने जाते समय या सोते समय भी बच्चे अपने-अपने गुड्डे-गुड़ियों की साथ लेकर काम करने में एक बड़प्पन का अनुभव करते हैं। गुड्डे-गुड़ियों की तुलना में वे स्वयं को बड़ा समझ कर इस बात की चेष्टा में रहते हैं कि काम ठीक से यथा समय किया जाय।

बच्चे के संग बहस करनी व्यर्थ है कई माताएं बच्चे से काम करवाते समय उन्हें क्यों और किस लिए आदि कैफियत देती हैं। बच्चा उनके दृष्टिकोण को तो समझ नहीं सकता उलटा वह बाल की खाल खींचने लगता है जैसे इससे क्या होगा? ऐसा क्यों करना चाहिए? करने से क्या होगा?’ आदि प्रश्नों की झड़ी लगाकर सिर खाने लगता है। इसलिए छोटे बच्चों को लम्बी-चौड़ी कैफियत देने की आवश्यकता नहीं है। कई माताओं को अपने बच्चों को बार-बार याद दिलाना पड़ता है तब भी वे काम में देरी करते हैं। जूं की तरह रेंग-रेंग कर काम करने की उनकी पहली आदत-सी पड़ जाती है। वे कभी भी समय पर तैयार नहीं हो पाते। पहले तो इधर उधर खिलवाड़ में अधिकांश समय बरबाद कर देते हैं, फिर अन्तिम कुछ क्षणों में जल्दी-जल्दी में झुंझलाकर काम समाप्त करने की चेष्टा करते हैं। ऐसे बच्चों को कुछ समय रहते ही काम को समाप्त करने का तकाजा करना चाहिए।

उद्दण्ड और बदमिजाज बच्चे ऐसे बच्चे नियमों के लागू होने पर बहुत छटपटाते हैं। रो-धोकर जिद्द करके वे मनचाही करने की चेष्टा में रहते हैं। तीन वर्ष की आयु से बच्चा अपने अधिकारों और सुविधाओं के लिए लड़ने लगता है। पर अच्छाई और बुराई न्याय और धांधली में भेदभाव करना उसे नहीं आता। अगर बच्चा बात-बात पर रोता और अनचाही करने का प्रयत्न करता है, तो इसका अभिप्राय यह है कि मां उसे ठीक से समझ नहीं पा रही है। उसे बच्चे को संभालने का ठीक ढंग नहीं आता। ऐसी स्थिति में इस बात का पता लगाना चाहिए कि क्या बच्चे को काफी समय तक अपने संगी-साथियों के साथ खेलने का अवसर मिलता है? क्या वह ऊपर चढ़ने-उतरने, गाड़ी आदि ढकेलने के खेल खेलता है? क्या उसकी दिनचर्या और कमरे की व्यवस्था ऐसी है कि जब वह घर के अन्दर रहता है तो उसे खेलने और घूमने-फिरने, चीजों को छूने की आजादी है? कहीं नकारात्मक आदेशों से वह जकड़ा हुआ तो नहीं है? घर के बड़े बच्चे उसे दबाते और चिढ़ाते तो नहीं हैं? उसका स्वास्थ्य तो ठीक है?

जब बच्चे का मिजाज बिगड़ा हो वह जमीन पर रो रोकर बिखर रहा हो, उसके प्रति अधिक ध्यान देने की आवश्यकता नहीं है। आपके नाराज होने या मारने-पीटने से उस पर बुरा प्रभाव पड़ेगा। ऐसे समय में बच्चों के प्रति दृढ़ स्नेहपूर्ण रुख अपनाना चाहिये। अनुभव से उसे समझते देर नहीं लगेगी कि रो-धो-कर मैं अपने मां-बाप से गलत बात नहीं मनवा सकता। जो गलत काम वह करा रहा है, उससे बच्चे को अलग करके घड़ी भर के लिए उसे अकेला छोड़ देना उचित है। रो-धोकर जब वह शान्त हो जाय तब प्यार से उसके आंसू पोंछ कर उसे उसकी भूल समझादें वह जान जायेगा कि रोने-धोने और जिद्द करने से यहां गुजार नहीं है। ऐसे समय में सजा देना व्यर्थ है।

जिस प्रकार बच्चे अच्छे तरीके, अपने संगी-साथियों के साथ हेल-मेल से रहना तथा अपने माता-पिता को प्यार करना, अनुकरण और अनुभव से सीख जाते हैं, उसी प्रकार अपने मनोवेगों पर काबू रखना, दूसरों के अधिकारों की रक्षा करना, सहयोग से काम करना भी अभ्यास और दूसरों के उदाहरणों से सीखते हैं। छोटे बच्चे को जैसे धीरे-धीरे अपने शरीर को सन्तुलन करना जाता है, उसी प्रकार उसके मनोवेगों में भी सन्तुलन जाने पर वे सामाजिक ढंग से व्यवहार करना सीख जाते हैं।

अगर कोई हानि हो जाने पर बच्चा बहुत दुखी और लज्जित है तो यही पर्याप्त है। अनजाने में प्लेट टूट जाने अथवा खेल कूद में कमीज फट जाने पर उसे मारना मूर्खता है। हर अपराध पर बच्चे को धमकाना उचित नहीं—‘मोहर अगर तू साइकिल साफ नहीं करेगा तो मैं तुझ से साइकिल छीनकर रमेश को दे दूंगा-अगर तू परीक्षा में पास नहीं होगा तो तेरा जेब खर्च बन्द कर दिया जायेगा।हमेशा इस प्रकार की धमकी देने से बच्चा ठीक प्रकार से काम करने का आदी नहीं बनता। वह सफाई या पढ़ाई केवल इसलिए करेगा क्योंकि इसके करने से उसे वस्तु विशेष के लाभ से वंचित होना पड़ेगा। सफाई और पढ़ाई स्वतन्त्र रूप से उसके लिए कुछ महत्त्व नहीं रखेगी।

अगर आपके बार-बार आदेश देने और धमकाने पर बच्चा कहना नहीं मानता तो उसका भी कुछ कारण हो सकता है बच्चे को जब सब दबाते हों या मां छोटे बच्चे की ओर अधिक ध्यान देती हो और तुलना में उसे हमेशा आलोचना सुननी पड़ती हो, तो बच्चा बड़ों को परेशान करने के लिए भला-बुरा सुनकर और सजा पाकर भी कहना नहीं सुनता। वह अपनी जिद्द से बड़ों को परेशान करके अपनी प्रधानता जताना चाहता है।

असल में माता पिता के पक्षपात पूर्ण व्यवहार ने बड़े बच्चे को ऐसा जिद्दी बना दिया है। जब तक वह घर में अकेला बच्चा था, मां उसे एक खिलौना मात्र समझती थी, उसका सभी काम वह खुद करती थी। घर में सबसे पहले उसकी सुविधा और आराम का ध्यान रखा जाता था, फलस्वरूप वह स्वार्थी और पर-निर्भर हो गया। अब अचानक एक नये भाई-बहन के जन्म पर वह स्वयं को सिंहासन से ढकेले हुए राजा के समान अपमान समझता है। उसके मनोवेगों में तूफान उठ खड़ा होता है। वह चिल्ला कर, बिगड़ कर, रोकर, वस्तुओं को तोड़ फोड़ कर अपनी प्रधानता जताना चाहता है।

कई बच्चे अपनी स्वार्थ सिद्ध के लिए स्वार्थी बन जाते हैं। मां पहले मेरा काम करे, मेरी बात सुने, मेरी इच्छा पूरी करे ऐसा वह चाहते हैं। सभी उनकी बात मानें, वे किसी की सुनें, यह रुख बहुत असामाजिक है, कई बच्चे शर्मीलेपन का अभिनय करके कहना नहीं मानते माता-पिता भी उनको यह शरमाता है नहीं तो अभी कहना मान लेता ऐसा कहकर उसे आज्ञा उल्लंघन करने की प्रेरणा देते हैं, यह उचित नहीं है।

बच्चे को कोई काम करने का आदेश देते समय इस बात का ध्यान रखें कि उस कार्य को करने में उसके सम्मान और अधिकार की हानि हो। बड़े भाई-बहन बच्चे को प्रायः ऐसी धमकी देते हैं किठहरजा, पिताजी को आने दे, तुझको मजा चखाया तो कहनातब जानेंगे कि उनके सामने चूं भी कर जाय। ऐसी धमकियों से बच्चा ढीठ बन जाता है। वह जानबूझ कर हुक्मउदूली में अपनी शान समझता है।

आप की आज्ञा का पालन बच्चा सहर्ष करे, वह इस बात को समझे कि माता-पिता उसकी भलाई के लिए कहते हैं वे उसे प्यार करते हैं और अपने प्यारे मां-बाप का कहना करना उन्हें अपने अच्छे कामों से खुश करने में उसे भी सुख और आनन्द मिलता है। यह तभी सम्भव है जबकि आप बच्चे के प्रति एक नियामक दरोगा होकर सहन शील माता-पिता होंगे तो बच्चा आप का आज्ञापालक अवश्य हो।



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