12 वर्ष की आयु तक पहुंचते-पहुंचते बच्चों में विशेष प्रकार की रुचियां और शौक जाग्रत हो जाते हैं। उनका ध्यान रखना बच्चे के विकास में सहायक होता है।
अधिकांश माता-पिता प्रायः दो प्रकार के होते हैं—एक तो वे जो हर दम यह रोना रोया करते हैं—‘‘मेरा बच्चा तो एक क्षण के लिए पुस्तक को आंखों से हटाता नहीं’’ और दूसरे वे जो अपने बच्चों के न पढ़ने के कारण चिन्तित रहते हैं।
यहां पर उन बच्चों का विचार कर रहे हैं जो इन दोनों प्रकार के बच्चों के बीच के होते हैं। इस प्रकार बच्चे आगे चलकर पढ़ने वाले हो भी सकते हैं और नहीं भी, यह बहुत कुछ इस पर भी निर्भर है कि हम उनको कैसी शिक्षा देते हैं। पढ़ने वाले बच्चों से अर्थ है वे बच्चे जो अखबारों में छपने वाले हास्य चित्रों, पत्रिकाओं के चित्रों के शीर्षकों और विभिन्न समाचार पत्रों में छपने वाली संक्षिप्त परन्तु क्रम हीन और तर्क रहित जानकारी के अतिरिक्त भी बहुत कुछ पढ़ते हों।
8 या 10 वर्ष की अवस्था से पहले बच्चे यह नहीं सोचते कि वे क्या पढ़ें और क्या न पढ़ें। उस समय तक वे वही चीजें पढ़ते हैं जो उनके माता-पिता और शिक्षक उनको देते हैं। इस अवस्था तक पहुंच कर वे सरल पुस्तकें पूरी तरह पढ़ने लगते हैं और उन में अपने स्कूल की तथा अपने मोहल्ले के पुस्तकालय का प्रयोग करने की क्षमता आ जाती है। 9 वर्ष की अवस्था के लगभग पुस्तकों के सम्बन्ध में लड़कों और लड़कियों की रुचियां भिन्न होने लगती हैं बिलकुल उसी प्रकार वे अलग-अलग मार्गों पर चलने लगते हैं।
पाठ्य पुस्तकों के अतिरिक्त साहित्य — लड़कों की अपेक्षा लड़कियां ज्यादा पुस्तकें पढ़ती हैं। यह शायद केवल इस बात का प्रमाण है कि बच्चों को सक्रिय खेलों में अधिक रुचि होती है। परन्तु लड़के लड़कियों से ज्यादा पत्रिकाएं पढ़ते हैं। जासूसी कहानियों की पत्रिकाओं के अतिरिक्त वे विज्ञान तथा यन्त्र शास्त्र सम्बंधी पत्रिकाएं भी पढ़ते हैं।
इस बात से माता-पिता को यह समझना चाहिए कि यदि वे अपने बच्चों में किसी निश्चित रचनात्मक कामों में अपना मन लगाने की प्रवृत्ति को प्रोत्साहित करना चाहते हैं तो वे उनको इस प्रकार की पत्रिकाएं लाकर दें।
लड़के और लड़कियां किसी विशेष प्रकार की पुस्तकों को ज्यादा पसंद करने लगते हैं, परन्तु इस का अर्थ यह नहीं होता कि ये पुस्तकें जितनी ज्यादा बिकती हैं सचमुच उतनी ही अच्छी होती हैं। इसका अर्थ केवल यह होता है कि वे सस्ती होती हैं उनको पढ़ने में कोई कठिनाई नहीं होती और उनको प्राप्त करना बच्चों के लिए सरल होता है, क्योंकि दूसरे बच्चों के पास भी बहुत सी होती हैं। बच्चे उनको उसी कारण चाहते हैं, जिस कारण वे हास्य चित्रों में क्रमवत् कही गई कहानियों को पसन्द करते हैं, जिनमें वही पात्र बार-बार आते रहते हैं। उनकी साहित्यिक शैली कैसी भी हो पर कहानी हमेशा रोचक होती है। यह भी उन पुस्तकों की लोक-प्रियता का एक कारण होता है।
स्कूल शिक्षा के प्रारम्भिक वर्षों में हमारा उद्देश्य यह होता है कि बच्चों को मनोरंजन हो इसलिए ये पुस्तक मालाएं काफी लाभदायक होती हैं। परन्तु यह लाभ बहुत सीमित और अल्पकालिक होता है। बच्चों को इस प्रकार की किताबें—जो वास्तव में शक्कर में लिपटी हुई कड़वी दवा की गोलियों के समान होती हैं—पढ़ने से रोकने के साथ उनको ऐसी पुस्तकें दी जानी चाहियें जिनके साहित्यिक मूल्य के बारे में किसी को भी सन्देह न हो। ऐसा करने से उनको जो पाठ्य भोजन मिलेगा उसमें शैली और रोचकता के अतिरिक्त उपयोगी तथ्य भी होगा। यदि बच्चों की पहुंच अच्छे प्रकार की चुनी हुई पुस्तकों की ओर हो जाए तो वे आसानी से पढ़ना सीख लेने के बाद ऐसी पुस्तकों को पढ़ने में ज्यादा समय व्यय न करेंगे जिनका कोई वास्तविक महत्व नहीं होता।
9, 10 और 11 वर्ष के बच्चे अपने खाली समय का बहुत बड़ा भाग हास्य-चित्रों द्वारा वर्णन की जाने वाली कहानियों को पढ़ने में बिताते हैं पर पुस्तकों में या समाचार पत्रों में, जहां इस प्रकार की पुस्तकें काफी प्रचलित हैं, लड़के और लड़कियां इनको उतना ही महत्व देते हैं जितना अपने भोजन को।
हास्य-रस की पुस्तकों की इस तरह की असीम लोकप्रियता का रहस्य क्या है और इन का बच्चों पर क्या प्रभाव पड़ता है?
बच्चे जिस प्रकार के जीवन की इच्छा रखते हैं उनकी अपेक्षा उनका जीवन बहुत सीमित होता है। अपने परिवार के तथा अपने आस-पड़ौस के नियम-बद्ध दैनिक जीवन से उनको जो कुछ प्राप्त होता है, वे उससे भी अन्य प्रकार के और अधिक साहसमय अनुभवों के इच्छुक होते हैं। हास्य चित्रों की कहानियों में उनको यह सब कुछ मिल जाता है जो वास्तविक जीवन में नहीं मिलता। इन कहानियों में अत्यन्त विचित्र घटनाएं भरी रहती हैं। बच्चे इन कहानियों के साहसी और बहादुर नायक के रूप में अपने आपको देखने लगते व वास्तविक जीवन के बन्धनों से मुक्त हो जाते हैं। जिस प्रकार बड़े लोग ‘‘पलायन’’ के लिए जासूसी और रहस्यमय उपन्यास पढ़ते हैं, उसी प्रकार बच्चे भी अपने जीवन की अरोचकता से भाग कर इन हास्य-चित्रों की रोमांचकारी कहानियों में भाग लेते हैं।
यदि हम बच्चों को जीवन की कठिनाइयों का सामना करने का अवसर दें, यदि हम उनको कठिन काम करना सीखने के प्रयत्नों से न रोकें, और यदि हम उनको उचित ढंग के उत्साहमय और साहसमय कामों को करने का अधिक अवसर दें तो वे इन कल्पित संकटमय परिस्थितियों और साहस की कहानियों में आनन्द लेना कम कर सकते हैं।
हास्य-चित्रों की कहानियों में कुछ अच्छी बातें भी होती हैं। बच्चा जब इनको पढ़ता है तो कई नये शब्दों से, कभी-कभी सैकड़ों नये शब्दों से परिचय होता है। पांचवीं या छठी कक्षा में पढ़ने वाले बच्चे इन कहानियों को आसानी से समझ सकते हैं। सम्भव है कि इन कहानियों को पढ़कर अपेक्षातः छोटे बच्चे अपनी पढ़ने की क्षमता भी बढ़ाते हों। इसके साथ ही इन कहानियों को पढ़कर वे अनेक नये शब्दों को सीखते ही हैं। इस प्रकार की कहानियां उनकी कल्पना-शक्ति को बढ़ाती हैं और उनमें शब्दों तथा विचारों की मन्त्र मुग्ध करने की शक्ति के प्रति एक रुचि पैदा करती हैं।
परन्तु इन चित्र कथाओं की पुस्तकों में जो भोंड़े चित्र बने होते हैं, उनसे बच्चों में विकसित होती हुई सौन्दर्य को परखने की क्षमता को हानि होती है। इस बात को तो शायद लोग अधिक महत्व न देते हों लेकिन इन पुस्तकों में हिंसा, पाप और अपराध का जो चित्रण होता है, उसका बच्चों पर क्या प्रभाव है इसे तो लोगों को महत्व देना चाहिये। मनोविज्ञान के कई श्रेष्ठ विशेषज्ञों ने इस बात पर चिन्ता प्रकट की है कि बहुत से बच्चों के व्यवहार में इन्हीं चित्र-कथाओं से सीखी हुई बातों का प्रतिबिम्ब मिलता है।
प्रतिदिन क्रूरता और अश्लीलता के इन चित्रों को देखने से बच्चों की भावनाएं कठोर तो बनती ही हैं। साथ ही साथ जब इन चित्रों में किसी विशेष जाति या किसी राष्ट्र के विरुद्ध निरन्तर व्यंग्यात्मक आक्रमण किये जाते हैं या जब इनमें किन्हीं विशेष लोगों को केवल इसलिए तिरस्कार की दृष्टि से देखा जाता है कि वे ‘‘नीचे’’ काम करते हैं, तब बच्चों की भावनाओं में धीरे-धीरे गुप्त ढंग से इसका बहुत गहरा प्रभाव पड़ता है। जब हास्य-चित्रों में परिवार के जीवन का बहुत भद्दे और पिटे हुए ढंग से चित्रण किया जाता है, सास बहू के झगड़े, घर की आपस में मारपीट आदि तो बच्चों पर बहुत हानिकारक प्रभाव पड़ता है।
इन चित्र कथाओं की पुस्तकों में सुधार की आवश्यकता है, इसके बारे में माता-पिता को सब से अधिक ध्यान देना चाहिए। यदि माता-पिता मिलकर प्रभाव डालें, तो वे बहुत कुछ कर सकते हैं और माता-पिता के संयुक्त प्रयत्नों से बहुधा इस प्रकार की पुस्तकों में कुछ अच्छे परिवर्तन हुए भी हैं। परन्तु माता-पिता का प्रयत्न यह होना चाहिए कि वे बच्चों का ध्यान ऐसी दूसरी चीजों की ओर आकृष्ट करें जिनमें बच्चे दूसरों के अनुभव से सीखने पर अवलम्बित रहना कम कर दें। जिन बच्चों को साहसमय कामों में भाग लेने की इच्छा को पूरा करने का अवसर मिलता है जो अपना समय ऐसे कामों में व्यतीत कर सकते हैं, जिनसे सन्तोष प्राप्त हो, उनके पास इन हास्य-चित्रों की कहानियों के लिये बहुत ही थोड़ा समय खाली बचता है। 12 वर्ष की अवस्था को पहुंचने तक इनकी रुचियां इतनी विस्तृत हो जाती हैं कि वीरों की साहसमय कथाओं के लिए और किसी कला को सीखने तथा किसी चीज को बनाने का ढंग सिखाने वाली पुस्तकों के लिये वे बहुत उत्सुक रहने लगते हैं।
हास्य-चित्रों में वर्णन की हुई कहानियों की असंख्य पुस्तकें हर वर्ष बिकती हैं जिनसे यह पता चलता है कि इन पुस्तकों से बच्चों को कुछ संतुष्टि तो मिलती है और साथ ही बच्चों में जो एक आक्रमणकारी प्रवृत्ति छिपी रहती है उसे भी सान्त्वना मिलती है। कोई भी निश्चित रूप से नहीं बता सकता कि हमारे समाज में ऐसी कौन सी बात है जिसके कारण बच्चों को मनोरंजन के इस ढंग का अवलम्बन लेना पड़ता है। एक कारण तो यह हो सकता है कि माता-पिता या तो अपने काम में व्यस्त रहते हैं या वे बचपन के संसार से इतना दूर होते हैं कि वे बच्चों की विफलता को रोकने की ओर ध्यान नहीं देते।
पढ़ने का महत्व तो कम नहीं परन्तु यह सदैव द्वितीय श्रेणी का अनुभव होता है। यह वास्तविक महत्व की चीज के अभाव की पूर्ति मात्र होती है या हद से हद उस वास्तविक अनुभव की ओर प्रारम्भिक कदम होता है। अधिकांश बड़े लोग दूसरों की यात्राओं का वर्णन पढ़ने की अपेक्षा स्वयं यात्रा करना अधिक पसन्द करते हैं। इसी आधार पर यह बात भी कही जा सकती है कि जो बच्चे पढ़ते नहीं हैं वे ज्यादा अच्छे रहते हैं बशर्ते कि वे वास्तविक अनुभव प्राप्त कर रहे हों। चीजें बनाना सीख रहे हों, जानवरों से खेल रहे हों, प्रकृति के रहस्यों का पता लगा रहे हों, नयी-नयी जगहों की सैर करके नयी नयी चीजों से परिचित हो रहे हों—केवल पुस्तकों में पढ़कर ही विभिन्न अनुभवों को न प्राप्त कर रहे हों।
इसमें सन्देह नहीं कि एक समय ऐसा आता है जब बच्चे को अधिक मनोरंजन के लिए वास्तविक अनुभव से लाभ उठाने के लिए पढ़ना आवश्यक हो जाता है। विज्ञान के सरल प्रयोगों के लिए भी पढ़ना आवश्यक हो जाता है। जो लड़के और लड़कियां कहीं सैर पर कई दिन के लिए जाते हैं, वे यह पढ़ना चाहते हैं कि दूसरे लोगों ने इन्हीं परिस्थितियों में अपनी समस्याओं को किस प्रकार हल किया है।
प्रायः हम सभी लोगों को यह जानने की उत्सुकता होती है कि संसार में जो महान् व्यक्ति हुए हैं उन्होंने महानता का मार्ग कैसे ढूंढ़ा और प्रायः सभी महान् व्यक्तियों की जीवनी में एक ही बात बार-बार पढ़कर हम बहुत ही प्रभावित होते हैं कि वे अपने बचपन में जो कुछ भी हाथ लगता था पढ़ डालते थे। ‘‘पुस्तकों को पढ़ने की इस तीव्र भूख को उनकी ‘‘महानता’’ का कारण कहा जाए या नहीं। इससे एक बात की ओर हमारा ध्यान अवश्य आकर्षित होता है कि यदि हम बच्चों को शुरू से ही अच्छी पढ़ने की चीजें उपलब्ध न करें तो उनके पढ़ने के दिनों का बहुत-सा बहुमूल्य समय व्यर्थ नष्ट होता है। आजकल बहुत-सी अच्छी-अच्छी पुस्तकें सस्ते मूल्य में मिल जाती हैं और सरकार की ओर से देश के कौने-कौने में पुस्तकालय भी खुल रहे हैं, तब कोई कारण नहीं है कि हम अपने बच्चों की पुस्तकों के अगाध भण्डारों से परिचित न करा सकें।
साथ ही हमको यह भी नहीं भूलना चाहिये कि बच्चों की पढ़ाई को विशेष दिशा में संचालित करना भी बहुत जरूरी है। इस बात को दृष्टि में रखते हुए कि लड़के और लड़कियां किस प्रकार की चीजें पढ़ते हैं, संचालन की आवश्यकता लड़कों की अपेक्षा लड़कियों के लिए अधिक होती है।
9 या 10 वर्ष की अवस्था में जब लड़कियां घर और स्कूल के जीवन से सम्बन्धित कहानियों में, और लड़के साहस-पूर्ण वीर गाथाओं में दिलचस्पी लेने लगते हैं, उसी समय से यदि उनकी पढ़ाई का उचित संचालन न किया जाए तो सम्भव है उनकी रुचियों का क्षेत्र इतना सीमित हो जायगा कि उनका मानसिक विकास घुट कर रह जाए। वे बच्चे जिन्होंने बचपन से केवल एक ही प्रकार की पुस्तकें पढ़ी हैं, सम्भव है कि वे बड़े होकर भी अपनी पढ़ाई को ऊपरी सफलताओं के वर्णन, जासूसी उपन्यासों तथा ‘सर्वप्रिय’ प्रेम कथाओं तक सीमित रखें।
माता-पिता बहुत लम्बी चौड़ी आदर्श योजनाएं बनाए बिना भी इस दशा को बदलने के लिए बहुत कुछ कर सकते हैं। बच्चों को अच्छी किताबें सुनाकर, परिवार के लोगों में आपस में बहस करके, उनके प्रेमी अतिथियों की बातचीत को सुनने का अवसर देकर तथा फिल्मों की अपेक्षा अच्छी पुस्तकों पर अधिक पैसा खर्च करके, बहुत से माता-पिता अपने बच्चों की ओर लड़कों लड़कियों की भी रुचियों को इस प्रकार विकसित कर सकते हैं कि यही बच्चे आगे चलकर प्रभावशाली बन सकें और अपने जमाने में सारे वातावरण को हिला दें।
रुचियां और शौक — 10 वर्ष की अवस्था तक पहुंचते पहुंचते बहुत से बच्चों को छोटे-मोटे औजारों के प्रयोग में बहुत दिलचस्पी हो जाती है। स्पष्ट है कि यदि उनको इस अवस्था तक इन औजारों को छूने का भी कभी अवसर नहीं मिला है तो वे कभी उतने होशियार नहीं हो सकते जितने कि वे बच्चे होते हैं जिनको 4 या 6 वर्ष की अवस्था से ही इस प्रकार के औजारों को प्रयोग करने की आदत है। फोटो खींचना, नाटक खेलना, किसी बाजे पर गाना, बिजली के यन्त्रों में दिलचस्पी होना, ये सब और इसी प्रकार की कई और चीजें बच्चे को बहुत पसन्द होती हैं—विशेष रूप से प्रतिभाशाली बच्चों को।
बहुधा माता पिता सोचते हैं कि बच्चों को ऐसे शौकों को जैसे फोटो खींचना या संगीत सीखना आदि, जिन पर बहुत पैसा खर्च होता है, प्रोत्साहित नहीं करना चाहिए। परन्तु यह बात भी विचारणीय है कि हमें युग के साथ चलना है और बच्चे को जिस चीज का भी शौक होता है उसके द्वारा वह बहुत कुछ सीखता है और इसमें वह अपनी पूरी शक्ति से प्रयत्न करता है। जिस लड़के को कोई बाजा बजाने का शौक है वह सम्भव है अपनी इसी निपुणता के द्वारा हाईस्कूल या कालेज की परीक्षाएं अच्छे अंकों से पास करे। यदि किसी लड़की को वृक्षों और लताओं के निरीक्षण में रुचि है तो सम्भव है वही विज्ञान की किसी नवीन खोज में अपनी प्रतिभा को प्रदर्शित करने में सफल हो।
परन्तु किसी ऐसे काम में पैसा लगाना, जिसके बारे में कोई अनुभव न हो, निश्चय ही मूर्खता होगी, क्योंकि यह नहीं मालूम हो सकता कि बच्चे को उस चीज में किस सीमा तक रुचि है या उस काम को सम्पन्न करने की उसमें कितनी योग्यता है। कुछ परिवार अपनी पुत्री को नृत्य सिखाने में सैकड़ों रुपये खर्च कर देते हैं, परन्तु बाद में उनको पता चलता है कि उन्होंने अच्छा नहीं किया। परन्तु बच्चे को किसी चीज में निश्चित रूप से लगन है और दृढ़ता से उस पर जमा रहता है, तो वह उसे सीखने हेतु सामान प्राप्त करने के लिये दूसरी चीजों का बलिदान करने के लिये भी तैयार रहेगा।
बच्चों की रुचियों का बहुत बड़ा महत्व इस बात में है कि इनके द्वारा बच्चों को एक साधन मिलता है जिससे वे दूसरों का सम्मान प्राप्त कर सके और अपनी निपुणता पर गर्व कर सकें। यदि बच्चा अपनी स्कूल की पढ़ाई में केवल औसत दर्जे का विद्यार्थी है तो इस बात की विशेष आवश्यकता है कि उसे उस काम में प्रोत्साहित किया जाए जो वह अच्छी तरह कर सकता है। ऐसे बच्चे जिनमें कोई निपुणता नहीं होती, जिसके कारण वे अपने आपको महत्वपूर्ण समझ सकें, माता-पिता और शिक्षक दोनों को प्रयत्न करके ऐसे मार्ग ढूंढ़ने चाहिए जिनमें बच्चे अपनी योग्यता का परिचय दे सकें। नक्शे खींचने में बहुत निपुण हो जाना, या किसी एक विषय में अत्यधिक जानकारी प्राप्त कर लेना आदि। कुछ ऐसी बातें हैं जिनका प्रोत्साहन करना चाहिए ताकि बच्चे का मानसिक स्वास्थ्य बन सके