बालकों का भावनात्मक निर्माण

बच्चों को व्यवहार कुशल बनाइए

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बच्चों को व्यवहार कुशल बनाने के लिए उनमें उत्तरदायित्व की भावना का विकास करना बहुत आवश्यक है। जिन बच्चों में उत्तरदायित्व का भाव जग जाता है, वे हर काम बड़ी होशियारी से करते हैं। हर समय इस बात का ध्यान रखते हैं कि उनसे कोई काम बिगड़ जाये। उन पर कोई उंगली उठा सके अथवा किसी समय वे उपहासास्पद बन जायें।

व्यवहार कुशलता का सीधा-सा अर्थ है कोई ऐसी बात या कोई ऐसा काम करना जिससे किसी को कोई तकलीफ पहुंचे अथवा वे आलोचना या के पात्र उपहास बन सकें।

यद्यपि सारे क्षेत्र में किसी का पूर्ण-रूपेण कुशल हो सकना असम्भव के समकक्ष जैसी बात है, तथापि समाज में साधारण व्यवहार-कुशलता प्राप्त कर लेना सबके लिये सुसाध्य एवं आवश्यक है, जो सामान्य सामाजिक व्यवहार में कुशल नहीं होते वे अन्दर से अच्छे होते हुए भी समाज में उचित स्थान नहीं पा सकते। लोग उनके विषय में यह कहकर आलोचना किया करते हैं कि अमुक व्यक्ति हो सकता है अन्दर से अच्छा हो किन्तु व्यवहार से अच्छा प्रतीत नहीं होताऔर समाज में इस प्रकार की धारणा लोगों को उसके प्रति शंकालु ही बनाये रखती है।

समाज में विनिमय, वार्तालाप, एवं सम्बन्ध यह तीन ऐसी बातें हैं जिनकी पृष्ठभूमि पर ही सारे सामाजिक व्यवहार आधारित रहते हैं। इन तीन बातों को ठीक से व्यवहार कर सकने की योग्यता प्राप्त कर लेना ही व्यवहार-दक्षता है।

विनिमय का अर्थ है, आदान-प्रदान अथवा लेन-देन। जो पैसे का, वस्तु का, भावनाओं का अथवा विचारों का हो सकता है विनिमय के व्यवहार में जहां तक हो सके सीमान्त स्पष्टता एवं ईमानदारी रखनी चाहिए। जैसे कोई वस्तु खरीदने समय अपनी चतुरता अथवा हीलोहुज्जत से दुकानदार को साधारण भाव से कम कीमत देने का प्रयत्न करना चाहिए। क्योंकि इससे दुकानदार अपना नुकसान तो करेगा नहीं उल्टे अच्छा ग्राहक समझ कर ऐसे व्यक्ति के हाथ कोई चीज बेचना पसन्द करेगा। और यदि एक बार, वह ग्राहक बनाने के लिये दब भी जायेगा तो दूसरी बार एक के दो पैसे वसूल कर लेगा और सबसे पहले घटिया चीज भिड़ाने की कोशिश करेगा। बार-बार ऐसा करने वाले व्यक्ति की साख ग्राहक के रूप में बाजार में कम हो जाती है और हजारों रुपये का सामान खरीदने पर भी वह आदर नहीं पा पाता जो उसे मिलना चाहिए।

अब रही कोई चीज बेचने की बात। कोई वस्तु बेचते समय सामान्य भाव से अधिक पैसे लेने के लिए बढ़ा चढ़ा कर मूल्य बतलाना, घटिया चीज भिड़ाना या असन्तोष-जनक ढंग से विक्रय करने वाले की, दुकानदार के रूप में साख खराब हो जाती है और वह एक बड़ा दुकानदार होने पर भी तो अपेक्षित बड़प्पन पा सकता है और अधिक समय तक अपनी स्थिति बनाये रख पाता है। धीरे-धीरे ग्राहक संख्या कम करता हुआ छोटा-सा दुकानदार रह जाता है।

इसी प्रकार पैसा लेने-देने में समय और परिणाम में यथा-सम्भव हेर-फेर करने का प्रयत्न करना चाहिए। और यदि किसी भ्रम, भूल या परिस्थिति वश ऐसा हो जाये या करना पड़े तो ईमानदारी से उसका स्पष्टीकरण करने में संकोच करना चाहिए।

सम्बन्ध मूलतः छोटे, समान, बड़े, पद, योग्यता एवं विशेषता के अनुसार छः प्रकार के होते हैं। जो जिस योग्य हो उससे उसी प्रकार का व्यवहार अपेक्षित है। इसके प्रतिकूल व्यवहार करना किसी भी दशा में ठीक नहीं है। जो जिस योग्य है उसको उसके अनुरूप स्थान देना बहुत बड़ी व्यवहार कुशलता है। छोटों से स्नेहिल, समानों से निःसंकोच और बड़ों से आदरपूर्वक वार्तालाप करना चाहिए। पद में बड़े और आयु में छोटे व्यक्ति भी आदर और अदब के अधिकारी होते हैं। अपने से अधिक योग्यता अथवा किसी क्षेत्र में विशेषता (जैसे कला आदि) रखने वाले व्यक्ति भी अपने से बड़े अथवा उच्च पद पर होते हुए भी सम्मान एवं सद्व्यवहार के पात्र होते हैं। उनसे व्यवहार करने में इन बातों का ध्यान रखना केवल आवश्यक है अपितु अनिवार्य भी है।

इस प्रकार इन व्यवहार सम्बन्धी आवश्यक बातों की शिक्षा देते हुए यदि बच्चों का पालन किया जाये तो कोई कारण नहीं कि वे व्यवहार कुशल बन जायें। प्रारम्भ से ही बच्चों में इसकी चेतना का विकास किया जाना चाहिये जिससे वे स्वतन्त्र व्यवहार करने की आयु तक पहुंचते-पहुंचते दक्षता प्राप्त कर लेंगे। जिन बच्चों में इन बातों का विकास प्रारम्भ से नहीं किया जायेगा वे बच्चे उस आयु तक आवश्यक दक्षता प्राप्त कर सकेंगे जिसमें पहुंचकर उनका कोई भी व्यवहार महत्त्व रखता है और अच्छा या बुरा माना जा सकता है।

इस प्रकार जो बच्चे, विनिमय, वार्तालाप, और सम्बन्ध के ज्ञान से परिपूर्ण कर दिये जाते हैं वे निःसन्देह व्यवहार कुशल होकर समाज में अच्छे नागरिक बनकर अपना निश्चित स्थान प्राप्त कर लेते हैं।

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