बालकों का भावनात्मक निर्माण

सहयोग वृत्ति का कैसे विकास हो?

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इस युग को हम यदि सहकारिता का युग कहें तो अनुचित होगा। चारों ओर सहकारिता की आवाज गूंज रही है। सहकारी समितियां, सहकारी दुकानें, सहकारी क्रय-विक्रय समिति, सहकारी खेती आदि की चर्चा आये दिन अखबारों में पढ़ने को मिलती हैं। सहकारिता सरकारी मशीनरी का एक विभाग ही है जिसका बहुत बड़ा जाल सारे भारत में फैला है। इतने कर्मचारी जनता में सहकारिता का प्रचार करते हैं और सहकारी तौर पर काम करने की आदत डालने में सहयोग देते हैं। सरकार की ओर से सहकारी तौर पर खेती, व्यापार कुछ भी करने पर अनुदान या ऋण मिलता है।

यह सब इसीलिए किया जाता है ताकि जनता में मिलजुल कर काम करने की आदत पड़े। संगठित शक्ति ही अपना तथा राष्ट्र का कल्याण कर सकती है। अपने एक हजार वर्ष के अतीत के इतिहास की ओर यदि मुड़कर देखें तो अपनी सारी मुसीबतों, कठिनाइयों, दुर्दिनों, अपमानों, तथा पराजय से उत्पन्न समस्त प्रकार की बुराइयों का एक मात्र कारण यही दिखाई पड़ेगा कि हममें मिलजुल कर काम करने की आदत का अभाव हो गया। स्वार्थ-भाव और व्यक्तिवाद प्रबल हो उठा। जब पृथ्वीराज पर मुहम्मदगौरी का आक्रमण हुआ तो देश के अन्य राजा तमाशा देखते थे। उनके मतानुसार गौरी का आक्रमण केवल पृथ्वीराज पर था कि देश पर। अन्त में सारे तमाशबीनों की भी एक-एक कर वही दशा हुई जो पृथ्वीराज की हुई थी।

आज से कुछ समय पूर्व जब कि कानून द्वारा सहकारिता फैलाने की बात नहीं थी तब सहकारिता हमारे दिलों में थी। गांव के लोग, बिरादरी के लोग, जाति के लोग एक दूसरे से मिले-जुले रहते थे। बिरादरी की पंचायतें होती थीं, उनका चौधरी होता था, उसके फैसले को कोई टाल नहीं सकता था। मजिस्ट्रेट से भी अधिक अधिकार उसे प्राप्त होता था। लोग दूसरे के काम-काज को अपना समझते थे। शादी विवाहों, शुभ अवसरों पर न्यौता देने का चलन क्या उत्तम प्रकार के सहकारिता का द्योतक नहीं है? मेरी बहन की शादी हुई, 2000) ‘‘न्यौता’’ में गये इसी तरह धीरे-धीरे मुझे भी दूसरों के शादी विवाहों में न्यौता देना पड़ता है।

यह सब इसीलिये था कि सहकारिता हमारे दिलों में थी। उसका श्री गणेश तत्कालीन सामाजिक व्यवस्था में ठीक समय से ठीक आयु में होता था। संयुक्त परिवार प्रथा थी, एक-एक परिवार में पचास-पचास, साठ-साठ व्यक्ति होते थे, परिवार का एक मुखिया होता था, वह सबके दुःख-दर्द का ख्याल रखता था, स्वयं दो बजे दातून करता था लेकिन बच्चों को सवेरे भोजन करवाने का प्रबन्ध करता था। अपने लिये वह मिरजई, सलूका या बहुत हुआ तो कुरता पहनने को रखता था परन्तु घर के अन्य प्राणियों के पास काफी कपड़े रहते थे। तब चलती थी गृहस्थी और सहकारिता की अमिट छाप बच्चों पर पड़ती रहती थी। गांव में एक का छप्पर उठाना हुआ तो मुहल्ले भर को आवाज लगाई, सब पहुंच गये और मिलकर छप्पर उठा दिया। किसी का खेत बोने को पिछड़ गया तो गांव की पचासों बैलों की जोड़ियां एक दिन उसके खेत में चलने लगीं। पचास हाथ एक साथ खेत बवाई का काम करने लगे तो फिर उसका खेत एक ही दिन में क्यों बो जाये।

इन सारी परम्पराओं, रीति-रिवाजों से बच्चा बचपन से ही प्रेरणा लेता रहता था। छप्पर उठाते समय वह भी दूर से खड़ा देखता रहता था कि मेरे काका का छप्पर सब लोग मिलकर उठा रहे हैं। आज उसके दादा अपनी बैल की जोड़ी लेकर राम आसरे भाई का खेत बो आने गये हैं क्योंकि इस वर्ष लड़के के मर जाने के कारण उनका खेत बोने से पिछड़ गया है, बच्चे भी पीछे-पीछे जाकर राम आसरे की मेड़ों पर बैठकर भीड़-भाड़ भी देखते थे और घरौंदे बनाकर खेलते भी थे। गांव में चाहे जिसके यहां ब्याह वाले घर के द्वार पर बच्चों की भीड़ तीन दिन पहले इकट्ठी होनी शुरू हो जाती थी। अपने-अपने बाप, भाइयों को भी वे दौड़-दौड़कर सब काम कराते देखते थे। ब्याह के दिन एक स्थान पर न्योता चढ़ाते देखते थे तो क्या इन सबका प्रभाव उन अबोध बालकों के हृदय पर नहीं पड़ता था? सारे गांव की इज्जत एक मानी जाती थी। रामखेलावन की लड़की जिस गांव में ब्याही है, जितने भी लोग रामखेलावन के भाई लगते थे मजाल नहीं कि उस गांव का पानी पी लें जहां रामखेलावन भाई की लड़की ब्याही है। वाह! लड़की के गांव के कुंए का पानी पीकर बेधरम होंगे? यह थे सहकारिता के विचार उस समय।

परन्तु आज कहां देखने को मिलते हैं बच्चों को यह दृश्य? फिर आदर्शानुकरण की बात कैसे सम्भव हो सकती है?

सहकारिता की आदत कैसे पड़े बचपन से जब कि बच्चा स्कूल जाने लगता है तब आप सहकारिता की आदत उसमें डालिये। इसके लिये कुछ छोटे-छोटे उपाय ही आपको करने पड़ेंगे। कोई बहुत बड़ी योजना बनाने की आवश्यकता नहीं और कुछ धन ही उसके लिए खर्च करना पड़ेगा। केवल आपकी सतर्कता बुद्धि-चातुरी और देख-रेख आपके बच्चे में सहकारिता के भाव भरने में बड़े सहायक बनेंगे। वे उपाय निम्नलिखित हैं।

(1) अपने घर के समस्त बच्चों को आप एक साथ बैठाकर खाना खिलाने की आदत डालिये। बच्चे सवेरे का नाश्ता, दोपहर तथा शाम का भोजन एक साथ करें, यदि किसी कारण किसी बच्चे को कहीं जाना हो तो चाहे पहले खाना खिला दीजिये, कोई हर्ज नहीं, लेकिन साधारण स्थिति में एक साथ खाने का ही नियम रखना चाहिए।

(2) सभी बच्चों को समान कपड़े पहनाइये। जिस रंग की कमीज बनवाइये, सब बच्चों के लिये बनवाइये। हो सकता है कि छोटी बड़ी आयु के अनुगत से उनमें कुछ भेद करना पड़े मगर वह भेद आयु के आधार पर ही होना चाहिये। लगभग समान आयु के बच्चों के लिए समान कपड़े बनवाना चाहिये।

(3) घर के समस्त बच्चे एक साथ खायें, एक जैसा कपड़ा पहनें तो एक साथ खेलें भी। खेल में वे अपने मुहल्ले के बच्चों का भी सहयोग ले सकते हैं। एक साथ खेलने से मित्रता बड़ी घनिष्ठ होती है। एक दूसरे को सहयोग प्रदान करने की भावना का जागरण होता है। खेल के मित्रों की एकता अटूट होती है। यह सब लोग जानते हैं कि खेल के संगी साथी एक दूसरे के लिये मर मिटने को तैयार हो जाते हैं खेल-खेल में सहकारिता का सच्चा विकास होता है। समूह वाद का उदय खेल से ही होता है। प्रायः मुहल्ले और घरों में झगड़े-झंझट भी बच्चों को निमित्त बनाकर होते हैं उसी प्रकार घर और परिवार में एकता भी बच्चों को निमित्त बनाकर लाई जा सकती है।

परिवार के सब बच्चे यदि एक साथ खेलें, मुहल्ले के बच्चे उनके साथी बनें तो फिर एक दूसरे के यहां से आना-जाना शुरू हो जायेगा। बिना सोहन को बुलाये लल्लू खेलने जायेगा ही नहीं अगर सोहन को चलने में, कुछ देर है, वह अभी कपड़े पहन रहा है तो लल्लू उसके घर जाकर बैठा रहेगा, प्रतीक्षा करेगा और जब सोहन तैयार हो जायगा तब दोनों साथ-साथ चलेंगे। बच्चों के प्रेम और एकता के अटूट सम्बन्ध के सामने बड़ों के बैर भाव भी तिरोहित होने लगते हैं। मान लीजिये कि मुहल्ले के दो परिवारों में आपस में दुश्मनी चल रही है, मुकदमेबाजी भी ठनी है, लेकिन दोनों के यहां के बच्चे एक साथ खेलने जाते हैं, पढ़ने जाते हैं तो उन सबका एक दूसरे के यहां आना जाना शुरू हो जायेगा। तब यदि मां अपने बच्चे को फल खाने के लिए दे रही है, उसी जगह पड़ोसी का बच्चा भी बैठा है, वह अपने साथी को खेलने जाने के लिये बुलाने आया है तो कठोर हृदय मां भी उस बच्चे को थोड़ा फल अवश्य खाने को देगी। इस प्रकार थोड़ी-थोड़ी बातों से प्रेम-भाव जगेगा और दोनों परिवारों के दिलों में नरमी आनी शुरू होगी वे सोचने लगेंगे कि यार बेकार में झगड़े कर रहे हैं, आपस में मिलकर रहना चाहिए। चार दिन की जिन्दगी में सबसे बैर सिर पर क्यों लादें। दोनों ओर से उठी हुई यह चाह दो परिवारों को मिला देगी।

(4) संकट या कष्ट के समय क्रियात्मक सहयोग एवं सहानुभूति प्रदर्शन करना चाहिए। जो बच्चे घर में एक साथ खाने, एक जैसा कपड़ा पहनने एवं एक साथ खेलने की आदत डालेंगे, वही विद्यालय में भी अपनी कक्षा और स्कूल के बच्चों के साथ मिलकर काम कर सकेंगे।

अब प्रश्न आता है सहयोग भावनाको क्रियात्मक रूप देने का, जब बच्चों में सच्चा प्रेम पैदा हो जाता है तो सहयोगकी प्रवृत्ति अपने आप जागृत हो जाती है, लेकिन माता-पिता को भी प्रेरित करते रहना चाहिए। अपने बच्चे को कक्षा में जो पास-पड़ोस के बच्चे पढ़ते हैं उनसे थोड़ी-बहुत जानकारी तो माता-पिता और परिवार वालों को हो ही जाती है फिर यदि बच्चे का सहपाठी बीमार पड़े तो उसकी सूचना मिलते ही मां-बाप को अपने बच्चे को उसे देखने जाने के लिये अवश्य भेजना चाहिये। बच्चा अपने सहपाठी की बीमारी की अवस्था में देखने जाये और उसके किनारे बैठकर घुल-मिलकर बातें भी करें। अस्वस्थ सहपाठी की सेवा सुश्रूषा में उसके माता-पिता का हाथ भी बटावें।

पारस्परिक सेवा का धर्म-कर्तव्य मान लीजिए सभी बच्चे स्कूल से वापस लौट रहे हैं, सड़क पर किसी रिक्शे या तांगे से टकराकर किसी बच्चे को गहरी चोट गई तो अन्य सभी बच्चों का यह नैतिक कर्तव्य हो जाता है कि वे उसे तुरन्त प्राथमिक सहायता पहुंचाकर उसे अस्पताल तक ले जायें और उसके माता-पिता को भी सूचित करें। उस समय यदि घायल बच्चे को ले जाने आदि में कुछ पैसे खर्च करने पड़ें तो सब बच्चों को स्वेच्छा से सहयोग करना चाहिए। यदि कभी ऐसी घटना घटे और आपका बच्चा अपने सहपाठी की प्राथमिक सहायता हेतु व्यस्त रहने, उसे अस्पताल ले जाने आदि कार्यों में फंस जाने के कारण देर से घट लौटे तो सही उत्तर जान लेने के बाद माता-पिता को बच्चे के देर से वापस लौटने पर बिगड़ना या नाराज होना नहीं चाहिए। ऐसा तो स्वार्थी प्रकृति वाले ही करते हैं। उस समय अभिभावकों को बच्चों के कार्य की प्रशंसा भी करनी चाहिए।

यदि ऐसे अवसरों पर आप केवल बच्चे को उत्साहित कर देंगे उनके कार्यों के प्रति अपनी स्वीकृति दे देंगे तो यह निर्विवाद सत्य है कि उनकी सहयोग भावना का समुचित विकास होता चला जायगा। लेकिन यदि कहीं मूर्खता या स्वार्थ-वश अपने बच्चे को झिड़क दिया कि तुम्हें तो चोट नहीं लगी थी, तुम क्यों देर से आये, अस्पताल क्यों गये? रास्ते में कुछ हो जाता तो? स्कूल से छुट्टी पाते ही सीधे घर आया करो, इधर-उधर के झंझटों में फंसने की जरूरत नहीं है, आदि कहकर आप बच्चे की उठती कली को मसल दे रहे हैं तो वे निश्चयात्मक रूप में स्वार्थी प्रकृति के बनते चले जायेंगे, उनकी जीवन-दिशा बदल जायगी। ऐसे ही बच्चे बड़े होकर स्वार्थी और मतलबपरस्त होते हैं। उनको दूसरों के दुःख-दर्द से कोई लगाव नहीं होता, उनका हृदय गरीबों की अवस्था से द्रवित होना जानता ही नहीं। ऐसे उदाहरण हजारों की संख्या में देखे जा सकते हैं। कई आदमी साथ-साथ बाजार घूम रहे हैं, स्वयं दुकान पर जाकर मीठा मोल लेकर खा लिया, अपने साथियों को पूछने की कोई आवश्यकता नहीं समझी। चाहे थाली में बच जाये उसे कुत्ते खालें मगर एक अपंग बेचारा द्वार पर आवाज लगा रहा है, उसे हाथ उठाकर एक रोटी देना उचित नहीं समझेंगे। ऐसे ही स्वार्थी लोग मुनाफाखोर, जखीराबाज आदि गुणों से विभूषित होते हैं। यह समाज के कान वाले बहरे, आंख वाले अंधे और जबान वाले गूंगे होते हैं।

हृदय-हीन स्वार्थपरता चारों ओर मतलबपरस्तों को देखकर आश्चर्य होता है। एक सज्जन ऐसे ही नेपाल स्टेट के एक जमींदार साहब की कहानी सुना रहे थे। वे बताते थे कि आम की फसल में मैंने जाकर देखा तो उनके कोठार में 10000 आम पड़ा सड़ रहा था। यह सज्जन उस जमींदार की प्रशंसा में ये बातें कर रहे थे कि वह बहुत बड़ा जमींदार था। दस हजार आमों के पड़े सड़ते रहने की बात सुनकर मैंने कहाकि जमींदार साहब इन आमों को अपने गांव वालों में क्यों नहीं बंटवा देते क्योंकि सड़ने से अच्छा तो यह है कि वे लोग जिन बेचारों के यहां आम की फसल नहीं है, खाने को पा जाते। इसका बड़ा बढ़िया उत्तर उन्होंने दिया जो मुझे आज तक याद है। उन्होंने बताया कि जमींदार साहब उन आमों को इसलिये नहीं बटवाते क्योंकि इससे उनके गांव के लोगों में आम खाने की आदत पड़ जायेगी जब उन्हें नहीं मिलेगा तो बाग से चोरी से तोड़कर खायेंगे।’’ आप सोचेंगे, कितना सुन्दर उत्तर है। ये जमींदार साहब बचपन के वही बच्चे हैं जिनमें इनके माता-पिता ने सहयोग एवं दया भावना को प्रोत्साहित नहीं किया। इसी प्रकार कई जमींदारों के यहां मैंने खुद देखा है कि पचासों मन मकई बखार में पड़े-पड़े सड़ जाती है तब वे उसे कूड़े में फिकवा देते हैं। यह वही अन्न है जिसके लिये जाने कितने लोग अपने बच्चों को भूखे रखकर सो जाते हैं। मनुष्य जब स्वार्थी हो जाता है तो वह पशु तुल्य हो जाता है, उसे किसी प्रकार का नीच कर्म करने में कोई हिचक नहीं होती।

सहयोग-भावनाही मनुष्यता की पहचान है। जिस व्यक्ति में यह भावना जितने अंश में विद्यमान है वह व्यक्ति उतने ही अंशों में महान् है। अपने बच्चों के स्वभाव का सूक्ष्म निरीक्षण मां-बाप को करते रहना चाहिए। सहयोग के उपर्युक्त वर्णित अवसर आने पर उनमें हाथ बटाने के लिए बच्चे को उत्साहित भी करना चाहिये और समय मिलने पर बच्चे को उपदेश भी देना चाहिए।

कृतज्ञता ज्ञापन एवं सहानुभूति यह भी एक अच्छी आदत है। यदि कोई बच्चा आपके बच्चे को किसी प्रकार का सहयोग प्रदान करता है तो उस समय  धन्यवादकहकर उस सहयोग के प्रति आभार प्रदर्शन करने की आदत भी आप अपने बच्चे में डाल। आप उसे सिखावें कि जब कोई कुछ वस्तु उसे दे तो लेते समय धन्यवादअवश्य कहें। यदि कोई बड़ा, जैसे आपका निजी रिश्तेदार या अधिकारी आपके बच्चे को कोई वस्तु, मिठाई अथवा फल देता है तो लेते समय आपको बच्चे को बता देना चाहिए कि वह वस्तु लेकर नमस्तेअवश्य करे तथा धन्यवाद कहकर आभार-प्रदर्शन करे।

वाणी द्वारा भावों का प्रदर्शन होता है। दूसरी बात आती है बीमारी या कष्ट के समय सहानुभूति प्रदर्शन की। क्रियात्मक सहयोग तो करना ही चाहिए लेकिन पीड़ित सहपाठी के पास जाते ही शब्दों द्वारा सहानुभूति प्रकट करना भी आवश्यक है भैया! तुम्हारी बीमारी से मुझे बड़ा दुःख है, क्या करूं, यदि वश चलता तो तुम्हारी आधी बीमारी मैं बांट लेता, तुम्हें ईश्वर शीघ्र अच्छा कर देगा, घबराने की बात नहीं है, यह तो फसली बुखार है, आजकल बहुत से लोगों को हो जाता है।इस प्रकार के शब्द कहकर आप के बच्चे अपने पीड़ित साथी का मन बहलावें। शब्द समय पर बन्दूक और तोप से ज्यादा काम करते हैं, शब्द विज्ञान की महिमा अपरम्पार है। आप विश्वास करें कि कष्ट के समय कहे गये यह छोटे वाक्य रोगी बच्चे का आधा दुःख दूर कर देंगे और यह भी बात है कि वह आपके बच्चे का सच्चा साथी बन जाएगा। उसकी मित्रता जीवन भर के लिए स्थायी बन जायेगी। संसार में सच्चे मित्रों की अत्यधिक आवश्यकता है, सच्चे मित्र प्राण देकर अपने मित्र की रक्षा करते हैं।

दूसरों का हृदय जीतना समय पर सहयोग की कितनी महिमा होती है इसका एक सच्चा उदाहरण मेरा ही सुनिये

मैं इसी जन-पद के इंटर कॉलेज में सातवीं कक्षा में पढ़ रहा था। बात तभी की है। मेरे एक मास्टर साहब थे, जिनका नाम तहजीबुलहसन जाफरी था, वे आज भी किसी सरकारी इण्टर कालेज के व्याख्याता हैं। कभी-कभी मैं उनके यहां जाया करता था जैसा कि सभी बच्चे अपने शिक्षकों के यहां जाते हैं। उनका एक बच्चा था, उसे भी हम प्यार से कभी कभी खिलाया करते थे। एक दिन अचानक वह बीमार पड़ा, जब मुझे सूचना मिली तो मैं भी उनके यहां गया। मास्टर साहब बेचारे दौड़-दौड़कर हर प्रकार का प्रयत्न कर रहे थे। मैंने भी उनकी दौड़-धूप में हाथ बटाया। जब उस बच्चे की तबियत सुधरते नहीं देखी तो वे उसे एक दूसरे डॉक्टर के यहां ले गये। बच्चे को कै और दस्त बराबर रहे थे। थोड़ी दूर ले जाने के बाद उनसे बच्चे को लेकर मैंने अपनी गोद में लिटा लिया और ले गया। दवा हुई लेकिन बच्चे को कोई लाभ हुआ। दूसरे दिन उसकी मृत्यु हो गई। बच्चे की मृत्यु से मां-बाप को कष्ट होना स्वाभाविक था। करीब दो सप्ताह तक मास्टर साहब तथा उनकी पत्नी शोक सन्तप्त रहे। मास्टर साहब कई दिनों तक स्कूल नहीं गये। लेकिन यह सब समाप्त हुआ और थोड़े समय बाद वह अपना सब कार्य नियमित रूप से करने लगे। शोक के समय तक तो मैं उनके घर बराबर नित्य जाया करता था जब वे अपने दैनिक कार्य में लग गये तो मैंने उनके घर जाने की कोई आवश्यकता नहीं समझी।

वे ट्यूशन पढ़ाते थे अपने घर पर ही। किसी बच्चे से 20) मासिक से कम नहीं लेते थे। एक दिन उन्होंने एक लड़के को भेजकर मुझे बुलवाया। सायंकाल जब मैं उनके यहां पहुंचा तो वे मीठे शब्दों में झिड़ककर कहने लगे कि कई दिनों से तुम आये क्यों नहीं? स्पष्ट उत्तर देकर मैंने यही कहाकि मास्टर साहब छात्रावास से अवकाश नहीं मिला, इसलिये नहीं आया, कोई काम होता तो समय निकाल कर चला आता। उन्होंने कहाकि नहीं तुम नित्य प्रति आया करो और ‘‘सुनो! यह गोपाल (एक सेठ का लड़का था जो उन्हीं के पास ट्यूशन पढ़ता था, मेरी कक्षा में ही पढ़ता था।) मेरे पास जिस समय पढ़ने आता है उसी समय तुम भी आया करो और साथ ही पढ़ा करो। मैंने समझा कि 20) मासिक देने की तो मेरी स्थिति नहीं है, फिर पढ़ने जाना उचित नहीं है। कोई स्पष्ट उत्तर तो मैंने उन्हें नहीं दिया लेकिन पढ़ने नहीं गया। दूसरे दिन गोपाल से, मास्टर साहब ने मेरे आने का कारण पूछा तो गोपाल ने वही ट्यूशन वाली बात बताई। जब मास्टर साहब स्कूल में आये तो अपने खाली घण्टे में मुझे बुलाया। एकान्त में बहुत प्रकार से समझाया कि तुम से ट्यूशन फीस नहीं लूंगा। तुम तो मेरे अपने बच्चे के समान हो, इसलिये नित्य पढ़ने अवश्य आया करो। यदि नहीं आओगे तो तुम्हें सजा दूंगा। कुछ संकोच के साथ मैंने जाना प्रारम्भ किया और फिर जब तक वे उस स्कूल में रहे, मुझे बराबर पढ़ाते रहे, विशेषता यह कि ट्यूशन देने वालों की तुलना में मुझ पर सदैव अधिक ध्यान देते रहे। मेरा उनके परिवार से घनिष्ठ सम्बन्ध जुड़ गया। हमारे मार्ग में धर्म-भेद बाधक बना। मैं उनके घर सीतापुरतक गया।

आप सोचें कि समय पर की गई सहयोग वृत्ति कितनी गुणकारी होती है। मैंने उन मास्टर साहब से जितना लाभ उठाया उतना कई सौ रुपये खर्च करके भी नहीं उठा सकता था।

इसी प्रकार प्रत्येक के जीवन में ऐसे प्रसंग आते हैं जब प्रयत्न से बड़े-बड़े लाभ उठाने का अवसर सामने आता है। चतुर बालक उनसे लाभ उठा लेता है और मूर्ख मुंह ताकता रह जाता है।

ईश-प्रार्थना घर पर भी नित्य सामूहिक प्रार्थना करनी चाहिए। पाठशाला में पाठ प्रारम्भ होने के साथ प्रार्थना होती है लेकिन अधिकांश स्कूलों में उसको वह महत्त्व नहीं दिया जाता जो कि दिया जाना चाहिये। इस कारण प्रार्थना एक प्रदर्शन मात्र रह जाती है। भावनाहीन एवं श्रद्धा-हीन मन से की गई प्रार्थना का समुचित प्रभाव बच्चों पर नहीं पड़ता। बचपन से ही आप बच्चों के हृदय में आस्तिकता जगावें। सामूहिक पूजा-पद्धति का प्रसार करें। आपके घर के जितने बच्चे हैं उनके साथ पास-पड़ोस के बच्चों को भी शामिल होने का अवसर आप दे सकते हैं। एक समय निश्चित कर दें। मेरा विचार है सायंकाल 6—7 बजे का समय उत्तर रहेगा जब बच्चे खा-पीकर पढ़ना प्रारंभ करें। सब बच्चे खड़े होकर कोई सामूहिक प्रार्थना करें तत्पश्चात् पढ़ना प्रारंभ करें। एक बच्चा कहलवाये और शेष उसके बाद कहें।

यह एक अच्छी आदत रहेगी। इसका प्रभाव कई दृष्टियों से बच्चों पर पड़ेगा। प्रथम तो उनमें आस्तिकता के भाव जायेंगे, दूसरे एक सबसे प्रत्यक्ष आप यह देखेंगे कि उनमें अनुशासन अपने आप जायेगा। उद्दण्ड एवं नटखट बच्चे भी प्रार्थना के प्रभाव से धीरे-धीरे सीधे होने लगेंगे। तीसरा लाभ यह होगा कि वे सभी बच्चे एकता के सूत्र में बंधने लगेंगे। उनमें सहयोग भावना एवं सहकारिता पैदा होगी।

इस प्रकार आप कुछ उपायों द्वारा अपने बच्चों में मानव-जीवन के वे महान् गुण उत्पन्न करने में सफल हो जायेंगे जिनके सहारे यह संसार टिका हुआ है। सहयोग और सहकारिता जिस दिन संसार से उठ जायेंगे उसी दिन संसार छिन्न भिन्न हो जायगा। प्रलय की अवस्था जायेगी। आदमी-आदमी के खून का प्यासा बन जायगा, किसी का भी विकास नहीं हो पायेगा।

अतः बच्चों में आप इस गुण को उत्पन्न करने के लिए बड़ी चातुरी से प्रयास करें।

अन्त में अमेरिका के भूतपूर्व राष्ट्रपति इब्राहीम लिंकन के शब्द सहयोग भावना की महत्ता प्रकट करने के लिये लिखने उचित होंगे।

उन्होंने कहा है

‘‘मनुष्य को परमात्मा ने समर्थ और बुद्धिमान् अवश्य बनाया है। पर एक त्रुटि भी उसमें रखी है, वह यह है कि परस्पर सहयोग के बिना उसकी कोई भी विशेषता मूर्तिमान् नहीं हो सकती। अन्य जीवों के बच्चे जन्म लेने के उपरान्त बहुत स्वल्प काल तक माता का सहयोग लेते हैं, तत्पश्चात् वह स्वतन्त्र, स्वावलम्बी जीवन व्यतीत करने लगते हैं। मनुष्य को यह स्थिति जीवन के अन्त तक प्राप्त नहीं होती। उसे अपनी छोटी बड़ी सभी आवश्यकताओं के लिये दूसरों पर निर्भर रहना पड़ता है। क्या कोई मनुष्य ऐसा है जिसने बिना दूसरों को सहायता के अपने लिए अन्न, वस्त्र, मकान, पुस्तक, मनोरंजन, परिवार, वाहन आदि के साधन स्वयं निर्मित करके अपना काम चलाया हो। उसे पग पग पर दूसरों की सहायता अपेक्षित होती है और इसे जो जितनी मात्रा में प्राप्त कर लेता है वह उतना ही सफल कहलाता है।

बौद्धिक, चारित्रिक, एवं सामाजिक प्रगति के लिए भी मनुष्य को पारस्परिक सहयोग की आवश्यकता होती है। मिल-जुल कर मनुष्य ने अब तक इतनी प्रगति की है। यदि उसे अधिक शक्ति और अधिक प्रगति की आवश्यकता है तो इसके लिए परस्पर अधिक स्नेह सहयोग के साधन उसे जुटाने ही पड़ेंगे।’’  

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