प्राणशक्ति का संतुलन और संकल्प बल का समावेश

September 2001

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महायोगियों ने अपने अनुभव से सिद्ध किया है कि प्राणमय कोश के प्राणयोग से जीवन में चमत्कारी परिवर्तन सम्भव हैं। वैज्ञानिक दृष्टि से भी यह कोई अतिशयोक्ति नहीं है। वैज्ञानिकों ने प्रायोगिक दृष्टि से मस्तिष्क एवं हृदय जैसे विलक्षण केन्द्रों से लेकर त्वचा तक में व्याप्त प्राण संस्थान तथा उसके प्रभाव को स्पष्ट तौर पर स्वीकार किया है। योग दृष्टि तो इससे कहीं अधिक सूक्ष्म है। इसके द्वारा जो निष्कर्ष निकाले गए हैं, वे और भी अधिक गहन व व्यापक स्तर के रहस्यों को प्रकट करते हैं। यह सुनिश्चित सत्य है कि प्राणमय कोश को परिष्कृत एवं सबल बनाकर न केवल अपने शरीर, बल्कि दूसरे शरीरों को भी प्रभावित और विकसित किया जा सकता है।

योग विज्ञान का मत है कि प्राण शक्ति ही जीवात्मा की- ‘सत् सत्ता को’ चित् सत्ता से परिपूर्ण बनाती है। इन दोनों का समन्वय हो जाने से ही जीवन के विविध क्रिया-कलाप बन पड़ते हैं। सत्-चित्-आनन्द की सम्भावनाएँ हम सबके चारों ओर भरी-बिखरी पड़ी हैं। उपभोक्ता में ‘आत्मा’ की सत्ता मौजूद है। फिर भी सब कुछ असम्भव बना रहता है। अशक्ति जन्य दरिद्रता प्राणी को घेरे रहती है। प्राण शक्ति की न्यूनता के अतिरिक्त इस विपन्नता का कोई और कारण नहीं। जीवधारी को प्राणी कहे जाने का मतलब ही यही है कि उसके जीवन की प्रक्रिया प्राणशक्ति के सहारे ही चल पाती है। शरीर में ज्यों ही प्राण की कमी हुई कि ‘प्राणान्त’ की स्थिति सामने आ खड़ी होती है।

मनुष्य में जो चमक, चेतना, स्फूर्ति, तत्परता, तन्मयता दिखाई देती है, वह सब उसके प्राणमय कोश की ही ऊर्जा है। यह ऊर्जा जिसमें जितनी कम होगी, वह उतना ही निस्तेज, निर्जीव एवं निर्बल दिखाई देगा। उत्साह, साहस और सन्तुलन की उपलब्धियाँ प्राणशक्ति की मात्रा पर ही निर्भर रहती हैं। तपस्वी, मनस्वी, तेजस्वी, ओजस्वी महामानवों की प्रखरता उनमें विद्यमान प्राणमयकोश की ऊर्जा का परिमाण प्रकट करती है। पराक्रमी मनुष्यों की दैहिक संरचना में, मानसिक संगठन में कोई खासियत नहीं होती। इस दृष्टि से वे भी सामान्य जनों की ही तरह होते हैं। उनकी सारी विशेषता प्राण क्षमता के रूप में बढ़ी-चढ़ी होती हैं। संकल्प शक्ति, इच्छा शक्ति, दृढ़ता और सुनिश्चितता में यही प्रकट होती रहती है।

अपनी अनेक गतिविधियों के बावजूद प्राणतत्त्व एक है। जिस तरह शरीर के प्रमुख अवयव माँसपेशियों से बने होने के बावजूद अलग-अलग नामों से जाने जाते हैं। ठीक यही बात प्राण के बारे में भी है। मानवी काया में प्राण शक्ति को जो विभिन्न उत्तरदायित्व निबाहने पड़ते हैं, उन्हीं के आधार पर उन्हें अलग-अलग नामों से जाना जाता है। इस पृथकता के मूल में एकता विद्यमान है। प्राण अनेक नहीं हैं। उसके विभिन्न प्रयोजनों में व्यवहार पद्धति ही अलग है।

इसी के आधार पर शास्त्रकारों ने इसे कई भागों में विभाजित किया है। कई नाम दिए हैं और कई तरह से व्याख्या की है। उसका औचित्य होते हुए भी इस भ्रम में पड़ने की जरूरत नहीं है कि प्राण तत्त्व कितने प्रकार का है। और इन प्रकारों में किस तरह की भिन्नता एवं विसंगतियाँ है। शास्त्रीय विभाजन के अनुसार प्राण को दस भागों में बाँटा गया है। इनमें 5 प्राण और 5 उप प्राण हैं। प्राणमय कोश इन्हीं दस के सम्मिश्रण से बनता है। 5 मुख्य प्राणों को 1. अपान, 2. समान, 3. प्राण, 4. उदान, 5. व्यान कहा गया है। 5 उपप्राणों को 1. देवदत्त, 2. वृकल, 3. कूर्म, 4. नाग एवं 5. धनंजय नाम दिया गया है।

इनके कार्यों का विवेचन कुछ इस तरह से है- 1. अपान- शरीर के मलों को बाहर फेंकता है। 2. समान- पाचक रसों का उत्पादन और उसके स्तर को उपयुक्त बनाए रखता है। 3. प्राण- श्वास प्रक्रिया के साथ शरीर में बल का संचार करता है। 4. उदान- जीवनी शक्ति के ऊर्ध्वगमन की अनेकों प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष क्रियाओं को नियंत्रित रखता है। 5. व्यान- सम्पूर्ण शरीर में व्याप्त हो संवेदनाओं का संचार करता है। उपप्राणों के प्रकरण में 1. देवव्रत है जो मुखमण्डल एवं उनसे जुड़े हुए अवयवों का प्रहरी है। 2. वृकल का अधिकार क्षेत्र कण्ठ और उससे होने वाली क्रियाओं पर है। 3. कूर्म- उदर क्षेत्र के अवयवों की सार-संभाल करता है। 4. नाग- जननेन्द्रियों का अधिकारी है। कुण्डलिनी शक्ति एवं प्रजनन आदि पर इसी का नियंत्रण है। 5. धनंजय का कार्य क्षेत्र जंघाओं से एड़ी तक है। गतिशीलता, स्फूर्ति एवं अग्रगमन का उत्साह इसी की समुन्नत स्थिति का सुपरिणाम है।

प्राणशक्ति का यथा स्थान सन्तुलन बना रहे तो जीवन सत्ता के सभी अंग-प्रत्यंग ठीक तरह से काम करते रहते हैं। शरीर स्वस्थ रहेगा तो मन भी प्रसन्न रहेगा, अन्तःकरण में सद्भाव-सन्तोष झलकेगा। किन्तु यदि इस क्षेत्र में विसंगति-विकृति उत्पन्न होने लगे तो उसकी प्रतिक्रिया आधि-व्याधियों के रूप में, विपत्तियों, विभीषिकाओं के रूप में सामने खड़ी दिखाई देगी। प्राणतत्त्व में असन्तुलन होने पर शारीरिक अवयवों की क्रियाशीलता लड़खड़ाती है। मनःक्षेत्र में उत्पन्न हुआ प्राण विग्रह असन्तुलनों, आवेगों और उन्मादों के रूप में दिखाई देता है। भावना क्षेत्र में विकृत हुई प्राण सत्ता मनुष्य को नर कीटकों-नर पिशाचों के घिनौने गर्त में गिरा देती है। पतन के अनेकों आधार प्राणतत्त्व की विकृति से सम्बन्धित होते हैं।

प्राणमय कोश का प्राणयोग ही इन सब विकृतियों से उबारने का एक मात्र उपाय-उपचार है। प्राणयोग के अंतर्गत आसन-प्राणायाम-बन्ध, मुद्राओं की अनेकानेक प्रक्रियाएँ आती हैं। इन सभी में प्राणायाम को विशेष दर्जा दिया गया है। यह प्राणायाम साधारणतया श्वास-प्रश्वास का एक व्यायाम प्रतीत होता है। आरोग्यशास्त्री इसका उपयोग श्वास रोगों के उपचार के रूप में बताते हैं। लेकिन योग-साधकों के लिए प्राणायाम का इस तरह उपयोग बाल कक्षा मात्र है।

प्राणायाम का वास्तविक प्रयोजन तो निखिल ब्रह्मांड में व्याप्त प्राणतत्त्व की अभीष्ट मात्रा को आकर्षित करना है। तथा इस उपलब्धि को अभीष्ट संस्थानों में पहुँचाना है। प्रयोजन के अनुसार प्राणायाम के प्रकार अनेकों हैं। सभी का अपना-अपना महत्त्व है। प्राणमय कोश के जागरण के लिए इनमें से कोई सरल सुगम विधि- उदाहरण के लिए प्राणाकर्षण प्राणायाम अथवा सोऽहं प्राणायाम को अपनाया जा सकता है। इसमें जितना महत्त्व प्रक्रिया का है उससे कई गुना महत्त्व इसमें नियोजित की जाने वाली भावना का है।

प्राणयोग साँस के आवागमन की कोई विशेष तरकीब भर नहीं है। क्योंकि साँस को प्राण नहीं कह सकते। साँस के साथ प्राण घुला होना- साँस के सहारे प्राणतत्त्व को आकर्षित कर सकना एक बात है और मात्र श्वास-प्रश्वास क्रिया करना सर्वथा दूसरी। प्राणायाम में प्रबल संकल्पशक्ति का समावेश करना पड़ता है। उसी के चुम्बकत्व से व्यापक प्राणतत्त्व को अनन्त ब्रह्मांड से खींच सकने में सफलता मिलती है। फिर उस उपलब्धि को अभीष्ट स्थान पर भेजना और वाँछित परिणाम प्राप्त करना भी प्रबल संकल्प बल से ही सम्भव है। प्राणायाम की क्रिया के साथ प्रचण्ड संकल्प बल का समावेश करने पर प्राणयोग की साधना बन पड़ती है। इसी से वे चमत्कारी परिणाम मिलते हैं, जिनका प्राणविद्या के अंतर्गत वर्णन किया गया है। प्राणविद्या की इस साधना के पश्चात् ही मनोमय कोश के परिष्कार का मार्ग प्रशस्त होता है।


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