बाह्य के साथ एकाकार कर अंतर्दृष्टि जगाने वाली आज्ञाचक्र साधना

September 2001

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

आज्ञा से एक ही अर्थ ध्वनित होता है- आदेश। इस अर्थ में आज्ञा चक्र समूचे अस्तित्व का नियंत्रण केन्द्र है। ज्योतिष शास्त्र में इसे बृहस्पति का केन्द्र बताया गया है, जो गुरु का प्रतीक है। बृहस्पति देवगुरु हैं, इसलिए इसे गुरु चक्र भी कहा गया है। इसे अंतर्ज्ञान चक्षु के नाम से भी जाना जाता है। यही वह मार्ग है, जिसके माध्यम से व्यक्ति चेतना के सूक्ष्म एवं अतीन्द्रिय आयाम में पहुँचता है। इस चक्र का सबसे प्रसिद्ध नाम- तीसरी आँख भी है। प्रत्येक देश में प्रचलित साधना पद्धतियों में किसी न किसी रूप में इसकी चर्चा की गयी है। इसे शिव की आँख भी कहा जाता है, क्योंकि शिव को ध्यान का सार माना गया है, जिसका आज्ञा चक्र से सीधा सम्बन्ध है। कतिपय योगशास्त्रों में इसका वर्णन दिव्य चक्षु या ज्ञान चक्र के रूप में भी मिलता है। क्योंकि इसके द्वारा योग साधक को छिपे हुए अस्तित्त्व की प्रकृति का पता चलता है।

यह वह स्थान है, जहाँ तीन प्रमुख नाड़ियाँ- इड़ा, पिंगला और सुषुम्ना का मिलन होता है। ये तीनों एक प्रवाह के रूप में चेतना के सर्वोच्च केन्द्र- सहस्रार तक पहुँचती हैं। योग सम्प्रदायों में यह प्रचलित विश्वास है कि अपने देश की तीन पवित्र नदियाँ इन तीन नाड़ियों का प्रतिनिधित्व करती हैं। इड़ा नाड़ी की प्रतीक गंगा है, पिंगला की प्रतीक यमुना है, जबकि सरस्वती- सुषुम्ना का प्रतिनिधित्व करती है। इन तीनों का संगम आज्ञा चक्र का प्रतीक है। जब इस स्थान पर ध्यान की गहनता पनपती है, तब तीन बड़ी शक्तियों के मिलन के फलस्वरूप व्यक्तिगत चेतना का रूपांतरण हो जाता है।

व्यक्तिगत चेतना में मुख्यतया अहं की प्रधानता होती है। यह व्यक्तिगत अहं ही द्वैत भाव का या भेदबुद्धि का कारण है और जब तक यह द्वैत अथवा भेदबुद्धि है, तब तक समाधि अवस्था की प्राप्ति असम्भव है। आज्ञाचक्र की साधना इस द्वैत भाव को सर्वथा विलीन-विसर्जित कर देती है। साधना के इस क्रम में एक मजेदार बात यह भी है कि पुरुषों की अपेक्षा महिलाओं में आज्ञाचक्र अपेक्षाकृत अधिक सक्रिय होता है। इसलिए वे अधिक सूक्ष्म, संवेदनशील और ग्रहणशील होती है। यही कारण है कि महिलाओं में पूर्वाभास की क्षमता पुरुषों की तुलना में ज्यादा होती है।

आज्ञाचक्र की उपस्थिति मस्तिष्क में भ्रूमध्य के ठीक पीछे रीढ़ की हड्डी के एकदम ऊपर मेरुरज्जु में अनुभव की गयी है। हालाँकि साधना के प्रारम्भ में इसकी स्थिति और स्थान जो जानना बहुत कठिन है। इसीलिए भ्रूमध्य में उसके क्षेत्र विशेष पर ध्यान किया जाता है। जहाँ यह कह देना भी आवश्यक है कि आज्ञा चक्र और पीनियल ग्रन्थि दोनों एक ही हैं। जबकि पीयूषिका ग्रन्थि सहस्रार है। पीनियल और पीयूषिका ग्रन्थियों की ही भाँति आज्ञाचक्र एवं सहस्रार में नजदीकी सम्बन्ध है। यदि आज्ञा चक्र का जागरण हो चुका हो तो सहस्रार के जागरण की उपलब्धियों एवं अनुभूतियों को सम्भाला जा सकता है।

बायीं पंखुड़ी पर हं तथा दायीं पंखुड़ी पर क्षं अंकित है। ‘हं’ और ‘क्षं’ चमकीले सफेद रंग में है और ये शिव-शक्ति के बीज मंत्र हैं। इनमें से एक चन्द्र नाड़ी या इड़ा का प्रतीक है और दूसरा सूर्य नाड़ी या पिंगला का प्रतीक है। इस चक्र के नीचे तीनों नाड़ियाँ आकर मिलती हैं। बायीं तरफ से इड़ा, दायीं तरफ से पिंगला एवं बीच में सुषुम्ना।

आज्ञा चक्र के द्विदल कमल के भीतर एक पूर्णवृत्त है, जो शून्य का प्रतीक है। इस वृत्त के अन्दर एक त्रिकोण है जो शक्ति की रचनात्मकता एवं अभिव्यक्ति का बोध कराता है। कुछ उच्चस्तरीय योग साधकों ने इसे ब्रह्मयोगी के रूप में भी जाना है। इस त्रिकोण के ऊपर एक काला शिवलिंग है। यह साधक के सूक्ष्म शरीर का प्रतीक है। जो साधक की चेतना के विकास के अनुरूप परिवर्तित रंग में दिखाई पड़ सकता है।

जब कोई अविकसित साधक ध्यान करता है, तो उसे यह शिवलिंग धुएँ की तरह दिखाई देता है। और बार-बार प्रकट होता-लोप होता रहता है। गहरे और शान्त ध्यान में यह शिवलिंग काला दिखाई देता है। इस काले शिवलिंग पर ध्यान करने से प्रकाशमान सूक्ष्म चेतना से ज्योतिर्लिंग प्रकट होता है। जो साधक की उच्चस्तरीय एवं विकसित चेतना का द्योतक है। इस शिवलिंग के ऊपर परम्परागत प्रतीक ॐ है। यही आज्ञाचक्र का प्रतीक एवं बीज मंत्र है। परम शिव आज्ञा चक्र के देवता हैं। जो एक प्रकाश की माला की भाँति चमकते हैं। छः मुखवाली हाकिनी इसकी देवी हैं, जो अनेक चन्द्रमा की भाँति दिखाई देती हैं।

आज्ञा चक्र की तन्मात्रा, ज्ञानेन्द्रिय एवं कर्मेन्द्रिय सभी कुछ मन है। यहाँ मन को सूक्ष्म माध्यमों से ज्ञान व संकेत प्राप्त होते हैं। आज्ञा चक्र की साधना से मन स्थूल शरीर की सहायता के बगैर बहुत अच्छी तरह से काम कर सकता है। आज्ञा चक्र का लोक-तपलोक है। यही वह आधार है, जहाँ अपूर्णताओं के अवशेषों का शुद्धिकरण होता है एवं कर्म का क्षय होता है। आज्ञा चक्र की साधना के साथ ही साधक अपने छठे शरीर, जिसे ब्रह्मशरीर कहते हैं, में प्रवेश करता है। ऐसी दशा में वह हमेशा ब्रह्म के साथ एकाकार अवस्था में रहता है और अनेकानेक शक्तियों का स्वामी होता है।

आज्ञाचक्र के जागरण की साधना- ध्यान है। भ्रूमध्य में ज्योति अथवा उगते हुए सूर्य का ध्यान करने से आज्ञा चक्र स्फुरित और जाग्रत् होने लगता है। ध्यान साधना के इस क्रम में अपने ईष्ट देव-देवी का भी ध्यान किया जा सकता है। इन सबके बावजूद आज्ञाचक्र की सिद्धि के लिए जो सबसे प्रभावी एवं शीघ्र फलदायी उपाय है, वह है- उगते हुए सूर्य मण्डल के मध्य परम पूज्य गुरुदेव का ध्यान। यदि यह ध्यान साधना नियमित एवं प्रगाढ़ हो, तो मात्र छः महीने में ही अपनी सफलता के संकेत देने लगती है। इस शीघ्र सफलता का एक कारण यह भी है कि आज्ञा चक्र- गुरु चक्र है। गुरु तत्त्व की अनुभूति जितनी सघन यहाँ हो पाती है, उतनी और कहीं सम्भव नहीं।

इस साधना से लोक-लोकान्तर के द्वार खुलते हैं। आज्ञाचक्र की इस साधना के क्रम में दिव्य लोक की शक्तियों से संपर्क-सान्निध्य एक सामान्य सी बात बन जाती है। परन्तु यह तो इस साधना क्रम की शुरुआती सफलता भर है। अपने सद्गुरु के सन्देश और आदेश भी इसी साधना से जाने-सुने और समझे जाते हैं। संक्षेप में आज्ञा चक्र की साधना के परिणाम अनुभूति के विषय हैं। इन्हें लिख पाना- एक लेख तो क्या एक महाग्रन्थ में भी सम्भव नहीं है। परन्तु यहाँ यह कह देना निहायत अनिवार्य है- कि आज्ञा चक्र के साधक के लिए समूचा जीवन तपोमय होना चाहिए। अन्यथा सारी उपलब्धियाँ, अनुभूतियाँ कपूर की भाँति उड़ जाती हैं। तपोनिष्ठ जीवन ही आज्ञाचक्र की ध्यान साधना और उसकी सिद्धि का आधार है। मन-वचन और कर्म से तप, यही आज्ञा चक्र की सफलता का मूल मंत्र है।

आज्ञाचक्र के साधकों और जिज्ञासुओं के लिए यहाँ एक बात बता देना अनिवार्य है- कि आज्ञा चक्र के जागरण के अनगिनत लाभों में जो सबसे कीमती लाभ है, वह यह कि साधक इससे प्राप्त अंतःदृष्टि से स्वयं को भली तरह से पहचान सकता है। यहाँ पर विद्यमान शिव ग्रन्थि का भेदन करके अपनी योग साधना के अवरोधों का निवारण-निराकरण कर सकता है। इस शिव ग्रन्थि का भेदन होते ही सारी अलौकिक शक्तियों-सिद्धियों से लगाव अपने आप ही समाप्त हो जाता है। इसके बाद तो जीवन का हर पल-सृष्टि की हर घटना भगवत् लीला के रूप में अनुभव होने लगती है। इस अनुभूति की प्रगाढ़ता और इससे एकात्मता के लिए साधक को सहस्रदल कमल- सहस्रार में प्रवेश करना पड़ता है।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles