मूलभूत आधार अन्नमय कोश की शुद्धि

September 2001

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योग साधना के अंतर्गत जीवन के सर्वांगीण विकास के लिए अन्नमय कोश के परिष्कार को पर्याप्त महत्त्व दिया गया है। शास्त्रों में इसके अनेक लाभों एवं सिद्धियों का उल्लेख मिलता है। अन्नमय कोश की योग साधना के द्वारा ही योगी आरोग्य के साथ शरीर संस्थान पर अद्भुत अधिकार प्राप्त कर लेते हैं। इच्छानुसार शरीर को गर्म या ठण्डा रखना, ऋतुओं के प्रभाव से अप्रभावित रहना, शरीर की ऊर्जा पूर्ति के लिए आहार पर आश्रित न रहकर सीधे प्राकृतिक स्रोतों से प्राप्त कर लेना, दीर्घ जीवन, शरीर में वृद्धावस्था के चिह्न न उभरना आदि सभी उपलब्धियाँ अन्नमय कोश की योग साधना पर निर्भर करती हैं।

ये सभी उपलब्धियाँ योग की उच्चस्तरीय कक्षा में पहुँचने के लिए काफी उपयोगी सिद्ध होती हैं। साँसारिक जीवन क्रम में भी इनका प्रत्यक्ष लाभ मिलता है। हालाँकि इन उपलब्धियों में आकर्षण काफी नजर आता है, फिर भी ये योग की प्रारम्भिक सीढ़ियाँ मात्र हैं। लेकिन इनकी अनिवार्यता इसलिए है कि योग साधना के लिए आवश्यक साधना क्रम में शरीर अपनी असमर्थता प्रकट करके साथ देने से कतराने न लगे। अन्नमय कोश के शुद्ध व पुष्ट होने पर ही व्यक्ति साँसारिक उतार-चढ़ावों के बीच अपनी शरीर यात्रा को सन्तुलित क्रम से चलाता हुआ, अपने आत्मिक लक्ष्य की ओर अनवरत क्रम से आगे बढ़ सकता है।

अन्नमयकोश की योग साधना का एक सूक्ष्म पक्ष भी है। दरअसल आत्मिक प्रगति के क्रम में स्थूल शरीर में अनेकों दिव्य संवेदनाओं का संचार होता है। असंस्कारित अन्नमयकोश इसमें बाधक बनता है। अथवा उच्चस्तरीय साधना में अपना उचित सहयोग नहीं दे पाता। योग साधना के क्रम में अनेकों दिव्य साधनाएँ उभरती हैं, उन्हें धारण करना, उनके स्पन्दनों को सहन करके अपना सन्तुलन बनाए रखना बहुत आवश्यक है। ये सारी बातें परिष्कृत, जाग्रत् एवं सुविकसित क्षमता सम्पन्न अन्नमयकोश से ही सम्भव हैं।

इन सब उपलब्धियों एवं क्षमताओं का लाभ पाने के लिए अन्नमयकोश, उसके स्वरूप तथा सामान्य गुण धर्मों के बारे में साधक के मन-मस्तिष्क में स्पष्ट रूपरेखा होनी चाहिए। पाँचों कोशों की संगति में अन्नमय कोश की भूमिका और उसके महत्त्व को सही ढंग से समझना जरूरी है।

यह अनुभूत सत्य है कि हमारी सत्ता, स्थूल, सूक्ष्म अनेक स्तर के तत्त्वों के संयोग से बनी है। इनमें से हर एक घटक का अपना-अपना महत्त्व है। फिर भी हमारी संरचना में एक बड़ा भाग है, जिसका सीधा सम्बन्ध स्थूल पदार्थों-पञ्चभूतों से है। उसके अस्तित्व-पोषण एवं विकास के लिए स्थूल पदार्थों की आवश्यकता पड़ती है। अपने अस्तित्व का यही भाग अन्नमयकोश कहा जाता है। यह अगणित छोटी-छोटी इकाइयों से बना है। इन्हें कोशिका कहते हैं। स्पष्ट है कि ये इकाइयाँ जिस प्रकार की, जिन गुण धर्मों से युक्त होंगी, संयुक्त शरीर संस्थान में भी वही गुण प्रकट होंगे। अन्नमयकोश की आवश्यकता के अनुरूप बनाने-ढालने के लिए उसकी मूल इकाई को भी ध्यान में रखना होगा।

इससे एक कदम और आगे बढ़ें तो अन्नमयकोश की सूक्ष्म क्षमताओं का स्वरूप भी उभर कर सामने आ जाएगा। किसी भी क्षेत्र में उच्चस्तरीय साधक का शरीर उसकी मुख्य साधना में सहयोगी बन जाता है। श्रेष्ठ चित्रकार जब किसी चित्र की कल्पना करता है तो उसके शरीर की हर इकाई उसके स्पन्दनों से प्रभावित होती है। शरीर की हलचल में उस कल्पना के स्पन्दन समाविष्ट हो जाते हैं तथा निर्जीव तूलिका सामान्य रंगों से जीवन्त चित्र का निर्माण कर देती है। यही स्थिति कला और ज्ञान के अन्य साधकों की भी है।

इन साधकों के चमत्कारों के पीछे यही तथ्य छिपा है कि उनके अन्नमयकोश की हर इकाई उनके अन्दर की सूक्ष्म संवेदनाओं को अनुभव करने, स्वीकार करने तथा उसके अनुरूप प्रभाव पैदा करने में सक्षम हो जाती है। किसी भी कला या ज्ञान की साधना से लेकर योग साधना तक के किसी भी क्षेत्र में उच्च स्तरीय कक्षा में पहुँचने के लिए अपने अन्नमयकोश को तदनुरूप ऐसी ही सुसंस्कृत, सुयोग्य एवं सक्षम स्थिति में लाना होता है। यही प्रक्रिया अन्नमयकोश की योग साधना है।

प्रश्न यह उठता है कि अन्नमयकोश की योग साधना के लिए व्यावहारिक तौर पर क्या करें? इस महाप्रश्न के उत्तर में पहला तथ्य यही है कि हम अपनी देह को भोग का साधन नहीं योग साधना का महत्त्वपूर्ण उपकरण माने। देह भगवान् का दिव्य मंदिर है- इस सत्य को दैनन्दिन जीवन में अनुभव किया जाय। जिनके जीवन में यह अनुभूति आएगी, वही अन्नमयकोश की योग साधना के अधिकारी हैं। दूसरों के लिए तो यह एक बौद्धिक पहेली भर है।

इस महत्त्वपूर्ण मान्यता के बाद आवश्यक है तदनुरूप आचरण। जो श्री भगवान् कृष्ण के शब्दों में-

‘युक्ताहारविहारस्य युक्तचेष्टस्यकर्मसुः। युक्तस्वप्नाबोधस्य योगी भवतिः दुःखहाः।’

अर्थात्- उचित आहार, उचित विहार, कर्मों में उचित चेष्टा। सही समय पर सोना, जगना, ऐसा करने वाले योगी के सारे दुःख नष्ट हो जाते हैं। गीता के इस तत्त्वोपदेश में मुख्यतः दो बातें हैं- 1. उचित आहार, 2. नियमित दिनचर्या। इसके अतिरिक्त एक तीसरी बात जो इन दोनों में समायी है वह है- इन दोनों की दिशा योग साधना की ओर हो।

उचित आहार का तात्पर्य यह है कि भोजन स्वास्थ्य के लिए किया जाय स्वाद के लिए नहीं। जो भोजन स्वास्थ्य के लिए किया जाता है वह सात्त्विक है। स्वाद के लिए किया जाने वाला भोजन राजसिक है। और जो भोजन स्वाद के लिए किया जाय और पेट भरने से भी ज्यादा किया जाय वह तामसिक है। सात्त्विक भोजन के साथ उपवास एवं अस्वाद अनिवार्य रूप से जुड़े हुए हैं। सप्ताह में एक दिन रविवार को उपवास और एक दिन बृहस्पतिवार को आस्वाद भोजन का नियम पालन करने पर अन्नमयकोश की योग साधना प्रारम्भ हो जाती है।

इस साधना में प्रखरता तब आती है जब नियमित दिनचर्या के साथ देह की समस्त क्रियाएँ भगवान् को समर्पित करने के लिए की जायँ। अन्नमयकोश की योग साधना करने वाले साधक को देह से ऐसा कोई काम नहीं करना चाहिए जिसे भगवान् को समर्पित करने में मन डाँवाडोल हो। यदि समूचे जीवन क्रम में इस नियम का समावेश हो सका तो अन्नमय कोश की पवित्रता एवं प्रखरता देखते ही बनेगी। उपरोक्त पंक्तियों में कही गयी बातें इसलिए नहीं कही जा रही हैं कि इन पर प्रयोग किए जाएँ। और इनसे प्राप्त निष्कर्षों की सच्चाई से शान्तिकुञ्ज के संचालकों को अवगत कराया जाय।

यह सभी के लिए ध्यान रखने की बात है कि अन्नमयकोश की साधना समस्त योग साधना का आधार है। इसी के द्वारा उच्च लक्ष्यों के लिए प्रखर तरंगें पैदा होती हैं। और उच्च स्तरीय चेतना को ग्रहण-धारण करने की सामर्थ्य विकसित होती है। जो सही मायने में योग साधना के अभिलाषी हैं, उन्हें अपनी साधना का प्रारम्भ अन्नमयकोश के परिष्कार से आज और अभी प्रारम्भ कर देना चाहिए। तभी वह भविष्य में प्राणमयकोश की साधना के लिए अपने कदम बढ़ा सकेंगे।


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