योग साधना का मार्ग तरह-तरह की कठिनाइयों से भरा हुआ है। पग-पग पर इसमें साधक को विविध प्रकार के अवरोधों का सामना करना पड़ता है। पथ की विषमता के कारण ही इसे छुरे की धार के समान दुर्गम बताया गया है। आश्चर्य नहीं कि साधक इसमें कई बार गिरता है, किन्तु अपने ध्येय के प्रति समर्पित साधक हर बार उठकर अधिकाधिक उत्साह, वीरता एवं प्रसन्नता के साथ आगे बढ़ता है। यदि साधक अपने लक्ष्य के प्रति एकनिष्ठ है व साथ ही समर्थ गुरु का संरक्षण प्राप्त है तो प्रत्येक अवरोध उसकी सफलता की सीढ़ी बनता जाता है।
लक्ष्य का सही निर्धारण न होना व अपनी यथास्थिति का सही परिचय न होना योग मार्ग का प्रथम बड़ा अवरोध है। इस कारण साधक ध्येय का मनोकल्पित लुभावना चित्र बनाकर, बड़े उत्साह के साथ यात्रा प्रारम्भ करता है, किन्तु मार्ग की विषमता उसके अरमानों पर तुषारापात कर देती है, परिणाम स्वरूप साधक थक-हार कर प्रयास छोड़ देता है।
साधना के दौरान खान-पान का असंयम, ब्रह्मचर्य का अभाव, साधना पथ पर संदेह, अस्त-व्यस्त दिनचर्या आदि प्राथमिक बाधाएँ हैं, जिनके कारण व्यक्ति आलस्य-प्रमाद एवं हताशा-निराशा के झूले में झूलता रहता है।
व्यर्थ की गपशप, दूसरों की बातों को जानने का कौतुहल तथा दूसरों के मामले में टाँग अड़ाने की प्रवृत्ति योगमार्ग का एक स्पष्ट विघ्न है। इनके अतिरिक्त बुरी संगत, परदोषारोपण, अनैतिक जीवन, व्यवहार व कार्य में अति, आदि अन्य बाधाएँ हैं। इसके साथ ही अपनी क्षमता से बहुत अधिक की आकाँक्षा, दूसरे की प्रगति पर ईर्ष्या, द्वेष, हीनता एवं अपराध बोध आदि वृत्तियाँ साधना को दुष्कर बनाती हैं। उदासी, अवसाद, शंका, सन्देह, भय आदि मार्ग की अन्य बड़ी बाधाएँ हैं।
योग साधना में अतिवादी जीवन पद्धति भी एक बड़ी बाधा है। अति भोजन या अति तप के अंतर्गत शरीर को अतिशय सताना, अति वार्तालाप या अति मौन, लोगों के साथ अति मिलना या अति आत्मकेन्द्रित हो जाना, ये सभी योग मार्ग के व्यवधान हैं।
नाम, यश एवं शक्ति की कामना योग मार्ग का एक सूक्ष्म एवं प्रबलतम व्यवधान है। यह अहंकार को पुष्ट करता है। साँसारिक प्रलोभनों से भी अधिक शक्तिशाली सूक्ष्म लोक के प्रलोभन होते हैं जो उच्चस्तरीय साधकों के लिए कसौटी बनकर आते हैं।
वस्तुतः साधना मार्ग के अधिकाँश अवरोध मन की रज व तम वृत्ति से पैदा होते हैं। मन की रजोगुणी व तमोगुणी स्थिति इनकी उर्वर भूमि सिद्ध होती है।
‘पंचदशी’ में स्वामी विद्यारण्य इस विषय पर सुन्दर टिप्पणी करते हुए लिखते हैं कि सतोगुणी मन से अनासक्ति, क्षमा, उदारता, रजोगुणी मन से काम, क्रोध, लोभ तथा तमोगुणी मन से आलस, विभ्रम तथा तंद्रा आदि पैदा होते हैं। सत्व से सद्गुणों का तथा रजस से दुर्गुणों का संचय होता है। जबकि तमस से न सद्गुणों का और नहीं दुर्गुणों का संचय होता है। बल्कि जीवन यूँ ही व्यर्थ नष्ट हो जाता है। घृणा, ईर्ष्या, क्रोध, भय, काम, क्रोध, दंभ आदि निम्नवृत्तियाँ मन के रजस एवं तमस गुणों से पैदा होती हैं। ये ही साधना के दौरान विविध रूपों में विघ्न-बाधाएँ बनकर उपस्थित होती हैं।
विवेक चूड़ामणि में आदि शंकराचार्य के अनुसार तमस व रजस की प्रधानता के कारण बुद्धि में सदैव विवेक का अभाव रहता है और यह अन्तहीन अवरोधों का कारण बनती है। गीता के 13 वें अध्याय में इस विषय की विशद् विवेचना करते हुए श्रीकृष्ण कहते हैं कि तमोगुण अज्ञान व बंधन का कारक है, तथा रजोगुण अस्थायी सुख देते हैं, किन्तु इनकी प्रतिक्रिया स्वरूप दुःख ही मिलता है। जबकि सतोगुण पवित्रता, शान्ति एवं प्रकाश की ओर ले जाता है।
अतः योगमार्ग के अवरोधों के निराकरण में मन की तमोगुणी व सतोगुणी प्रकृति का रूपांतरण ही मूलतत्त्व है। श्रीमद्भागवत् का इस संदर्भ में स्पष्ट निर्देश है कि सात्विक अर्थात् पवित्र एवं शुद्ध वस्तुओं के उपयोग से सत्त्व का विकास होता है। और अध्यात्म का पथ प्रशान्त होता है। इस विषय में आहार-विहार के विषय में सत्त्व शुद्धि की चर्चा पिछले लेख में पर्याप्त विस्तार से हो चुकी है।
श्रीकृष्ण गीता के 13 वें अध्याय में गुणों के दस मूल कारणों की विवेचना करते हुए कहते हैं कि सत्त्व की वृद्धि के लिए इन कारणों का सात्त्विकता से ही जुड़ा रहना चाहिए। इसके लिए उनके अनुसार (गीता 13, 6)- मात्र उन्हीं ग्रंथों का स्वाध्याय करना चाहिए, जो निवृत्ति मार्ग का प्रतिपादन करते हैं अर्थात् ब्रह्म (ईश्वर) की एकता का प्रतिपादन करते हैं। (उत्तेजक, हिंसक नहीं) मात्र पवित्र जल का ही सेवन किया जाना चाहिए। (शराब या अपवित्र जल आदि का नहीं) आध्यात्मिक लोगों का ही संग करना चाहिए (प्रपंची या दुष्ट लोगों का नहीं)। एकाँत स्थान को प्राथमिकता देनी चाहिए (भीड़ या जुआ घर नहीं)। प्रातः ब्रह्म मुहूर्त का या कोई ऐसा समय ध्यान के लिए चुनना चाहिए। जिससे कि न्यूनतम व्यवधान हो। निस्वार्थ एवं परमार्थिक कार्यों को ही करना चाहिए (न कि स्वार्थ या नुकसानदायक कर्म)। पवित्र व अहिंसक धर्म में ही दीक्षित होना चाहिए (अशुद्ध व अकल्याणकारी धर्म में नहीं)। ध्यान प्रभु का ही करना चाहिए न कि विषय वस्तुओं या दुश्मनों के अहित का। गायत्री महामंत्र जैसे मंत्र ही चुने जाय। न कि वे जो मात्र साँसारिक समृद्धि ही दें या दूसरों को नुकसान पहुँचाए। हमें मन की पवित्रता में रुचि लेनी चाहिए (न कि केवल शरीर व घर की ही देखभाल पर)।
इस तरह क्रमशः तम एवं रज गुणों का रूपांतरण करते हुए सत्त्व गुणों की स्थापना करनी चाहिए। प्रकृति में सत्त्व गुणों की प्रधानता के साथ ही योग मार्ग के आधे अवरोधों को नष्ट हुआ मान सकते हैं। पूरे इसलिए नहीं कि सत्त्व भी अपनी आसक्ति के कारण मनुष्य को बाँधता है। रामकृष्ण परमहंस के शब्दों में ‘सत्त्व भी मनुष्य को अंतिम सत्य का परमज्ञान नहीं दे सकता। हाँ यह प्रभु के परमवास का मार्ग अवश्य दर्शाता है। परन्तु यह भी ब्रह्म ज्ञान से काफी दूर है।’
गीता के 14 वें अध्याय में भगवान् कृष्ण इसका सरल समाधान प्रस्तुत करते हुए कहते हैं ‘जो मेरी (भगवान् की) अनन्य भक्ति भाव से सेवा करता है, वह गुणों से परे जाता है, व ब्रह्म स्वरूप बनने योग्य हो जाता है।’
अतः जब तक गुणों का पूरी तरह से रूपांतरण नहीं हो जाता, योग पथ के अवरोध विविध रूपों में साधक के सामने प्रकट होते रहते हैं। किन्तु यदि साधक अपने ध्येय के प्रति एकनिष्ठ है व अपने गुरु एवं इष्ट के प्रति अनन्य भाव से समर्पित है तो हर अवरोध उसकी प्रगति पथ का सोपान बनता जाता है। ऐसे साधक के विषय में श्रीकृष्ण अर्जुन से 9 वें अध्याय (30-31) में जो कहते हैं वह मनन योग्य है- ‘यदि कोई अतिशय दुराचारी भी अनन्य भाव से मेरा भक्त होकर मुझे भजता है, तो वह साधु ही मानने योग्य है, क्योंकि वह यथार्थ निश्चय वाला है, अर्थात् उसने भली प्रकार निश्चय कर लिया है कि परमेश्वर के भजन के समान अन्य कुछ भी नहीं है। इसलिए वह शीघ्र ही धर्मात्मा हो जाता है और सदा रहने वाली परमशान्ति को प्राप्त हो जाता है। हे अर्जुन! तू निश्चयपूर्वक सत्य जान कि मेरा भक्त कभी नष्ट नहीं होता।’ प्रभु प्रणीत योग के इस प्राचीन सत्य में ही आधुनिक विज्ञान का तथ्य भी है।