विषयासक्ति से मुक्ति, स्वाधिनाष्ट की सिद्धि

September 2001

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संस्कृत भाषा में ‘स्व’ का अर्थ है- ‘अपना’ और ‘अधिष्ठान’ का तात्पर्य है- ‘रहने का स्थान’। इस तरह स्वाधिष्ठान का शाब्दिक अर्थ है- ‘अपने रहने का स्थान’। यह चक्र मूलाधार के ठीक ऊपर स्थित है। इसका सम्बन्ध स्थूल शरीर में प्रजनन तथा मूल संस्थान से है। शरीर विज्ञान की दृष्टि से यह प्रोस्टेट ग्रन्थि के स्नायुओं से सम्बन्धित है। इसकी स्थिति हड्डी के नीचे काक्सिक्स के स्तर पर अनुभव की गई है। दरअसल यह हड्डियों के एक छोटे बल्ब की तरह है जो गुदाद्वार के ठीक ऊपर है। पुरुषों और स्त्रियों दोनों में ही इसकी स्थिति मूलाधार के अत्यन्त नजदीक है।

योग साधना की दृष्टि से स्वाधिष्ठान चक्र को व्यक्ति के अस्तित्व का आधार माना गया है। मस्तिष्क में इसका प्रतिरूप अचेतन मन है। जो संस्कारों का भरा-पूरा भण्डार है। अध्यात्मवेत्ताओं का मानना है कि प्रत्येक कर्म, पिछला जीवन, पिछले अनुभव, अचेतन में संगृहीत रहते हैं। इन सभी का प्रतीक स्वाधिष्ठान चक्र ही है। तंत्र शास्त्रों में ‘पशु’ तथा ‘पशु का नियंत्रण’ जैसी एक धारणा है- सभी पाशविक प्रवृत्तियों का नियंत्रणकर्त्ता। यह भगवान् शिव का एक नाम और स्वाधिष्ठान चक्र का एक गुण है। इन अर्थों में स्वाधिष्ठान चक्र की साधना का अर्थ है पाशविक प्रवृत्तियों का नियंत्रण एवं उन्मूलन एवं देववृत्तियों का विकास।

योगशास्त्रों में स्वाधिष्ठान चक्र के स्वरूप एवं इसकी शक्तियों का रहस्य प्रतीकात्मक ढंग से समझाया गया है। इस विवरण के अनुसार स्वाधिष्ठान का रंग काला है। क्योंकि यह अचेतन का प्रतीक है। हालाँकि इसे छः पंखुड़ियों के सिन्दूरी कमल के रूप में चित्रित किया जाता है। हर पंखुड़ी पर बं, भं, मं, यं, रं और लं चमकीले रंगों में अंकित है।

इस चक्र का तत्त्व पानी है और इसका प्रतीक है- कमल के अन्दर एक सफेद अर्धचन्द्र। यह अर्धचन्द्रमा दो वृत्तों से मिलकर बना है, जिनसे दो यंत्रों की संरचना होती है। बड़े वृत्त से बाहर की ओर पंखुड़ियाँ निकलती हुई दिखाई देती है, जो भौतिक चेतना की प्रतीक हैं। अर्धचन्द्र के अन्दर वाले छोटे वृत्त में उसी प्रकार की अन्य पंखुड़ियाँ भी हैं। पर वे केन्द्र की तरह मुड़ी हैं। यह आकार विहीन कर्मों के भण्डार का प्रतीक हैं। अर्धचन्द्र के अन्दर स्थित इन दोनों यंत्रों को श्वेत रंग का एक मगर अलग-अलग करता है। यह ‘मगर’ अचेतन जीवन की सम्पूर्ण मनोलीला का माध्यम है। इसे सुप्तकर्मों के प्रतीक के रूप में भी अनुभव किया जा सकता है। वं बीज मंत्र इस मगर के ऊपर अंकित है।

मंत्र के बिन्दु के अन्दर भगवान् विष्णु एवं देवी राकिनी का निवास है। यहाँ भगवान् विष्णु अपने चतुर्भुज रूप में पीताम्बर पहने अत्यन्त मनमोहक रूप में सुशोभित हैं। देवी राकिनी का रंग नीले कमल की तरह है एवं वे दिव्य वस्त्र एवं आभूषणों से सजी हैं। ऊपर उठे हुए उनके हाथों में अनेक शस्त्र हैं। अमृतपान करने से उनका मन अतीत आनन्दित हैं। देवी राकिनी वनस्पतियों की अधिष्ठतृ शक्ति हैं। स्वाधिष्ठान चक्र का वनस्पति जगत् से निकटतम सम्बन्ध है, इसलिए इसकी साधना में शाकाहार को अत्यन्त सहायक माना गया है।

स्वाधिष्ठान चक्र का सम्बन्ध भुवः लोक से है। यह आध्यात्मिक जागृति का मध्य स्तर है। स्वाद की तन्मात्रा एवं संवेदना का इससे घनिष्ठ सम्बन्ध है। इसकी ज्ञानेन्द्रिय जीभ है। और कर्मेन्द्रियाँ ‘किडनी’, मूत्र संस्थान, एवं यौन अवयव हैं। योग साधकों का अनुभव है कि स्वाधिष्ठान चक्र की साधना करके साधक अपनी आन्तरिक दुष्प्रवृत्तियों जैसे- काम, क्रोध, लालच, लोभ आदि से तुरन्त मुक्त हो जाता है।

स्वाधिष्ठान चक्र के जागरण की साधना अत्यन्त कठिन एवं दुष्कर है। किन्तु साधक यदि विवेकवान व वैराग्य सम्पन्न है, तो यह उतनी ही सुगम एवं सरल भी है। साधना के इस तल पर सभी अवशेष कर्म तथा नकारात्मक संस्कारों का निष्कासन प्रारम्भ हो जाता है। इस समय क्रोध, भय, यौन विकृतियाँ तथा दूसरी तरह की कामनाएँ, वासनाएँ उफनने-उमगने लगती हैं। सभी प्रकार की तामसिक वृत्तियों, तंद्रा, अकर्मण्यता तथा निराशा आदि के बवण्डर इसी दौरान पनपते हैं। इस समय हमेशा ही सोते रहने की इच्छा जोर मारती है। साधना की यह स्थिति शोधन काल कहलाती है। यदि महान् साधकों, योगियों की जीवनी पढ़ी जाय तो पला चलता है कि साधना के इस स्तर को पार करते समय उन्हें बहुत अधिक अशान्ति व मोह-माया का सामना करना पड़ा था।

भगवान् बुद्ध जब आत्मज्ञान के लिए बोधिवृक्ष के नीचे बैठे थे, तो उनके पास ‘मार’ आया था। इस ‘मार’ ने उन्हें तरह-तरह से सताया और प्रलोभन भी दिए। बौद्ध ग्रन्थों की ही भाँति बाइबिल में भी ऐसी कथाएँ हैं। जिनमें शैतान का और उसकी अनगिनत गतिविधियों का वर्णन किया गया है। ये मार और शैतान दो नहीं एक ही हैं। और इनकी उपस्थिति कहीं बाहर नहीं बल्कि अपने ही अन्दर होती है। इनका अस्तित्व व्यक्तित्व के अत्यन्त गहन स्तर पर मौजूद है। और इनमें माया उत्पन्न करने की क्षमता है। बौद्ध परम्परा में ‘माया’ को एक बड़े सर्प, बहुत बड़े-बड़े दाँतों वाली एक विकृत आकृति या एक बहुत सुन्दर नग्न स्त्री के रूप में दिखाया-दर्शाया गया है। जो योग-साधक को अपने बाहुपाश में लेने के लिए मंडरा रही है। इसमें कोई शक नहीं कि ये सभी प्रतीक रहस्यात्मक हैं। परन्तु इन्हें कोरी कल्पना नहीं समझना चाहिए। जिन्होंने स्वाधिष्ठान चक्र की साधना की है, वे इनकी वास्तविकताओं से भली-भाँति परिचित हैं।

ध्यान रहे कि प्रचण्ड साहसी एवं महासंकल्पवान् साधक ही स्वाधिष्ठान चक्र का जागरण एवं परिशोधन करने में समर्थ हो पाते हैं। प्रत्येक योग साधक को इस विशिष्ट अनुभूति के स्तर को, जो जीवन के रहस्यों के अन्तिम विस्फोट की भाँति होता है, पार करना ही पड़ता है। जो स्वाधिष्ठान चक्र की साधना के अनुभवों से परिचित हैं, उन्हें मालूम होगा कि मानव के जन्म-मरण की समस्या का प्रगाढ़ सम्बन्ध यहीं से है। इस चक्र की साधना करते समय यद्यपि कामनाओं और वासनाओं के संकट अनेक हैं, फिर भी गुरुकृपा, संकल्प शक्ति, आध्यात्मिक मार्ग में लगनशीलता, जीवन लक्ष्य के प्रति समर्पण व आत्मशोधन की प्रक्रिया एवं इसकी अनुभूतियों को ठीक से समझ कर साधक इस चक्र की साधना में उत्तीर्ण हो सकता है।

स्वाधिष्ठान चक्र की साधना यथार्थ में विवेक और वैराग्य की साधना है। और यह वैराग्य बौद्धिक नहीं वास्तविक एवं आन्तरिक होना चाहिए। योग साधक के मन में यह भाव होना चाहिए कि जीवन के सुखों का कोई अन्त नहीं। इच्छाओं को क्या कोई कभी पूरा कर सका है? भला कामनाओं, वासनाओं की अग्नि को विषय भोगों के घृत से आज तक कौन बुझा पाया है? यदि ये सच्चाई है- तो फिर आज और अभी ही क्यों न विषयासक्ति से नाता तुड़ा लिया जाय।

जो योग साधक अपने सद्गुरु की कृपा से इस सत्य से परिचित हैं कि कामनाएँ एक क्या एक हजार जन्मों में भी पूरी नहीं की जा सकती हैं। तो स्वाधिष्ठान चक्र की साधना बिना किसी विघ्न-बाधा के पूरी हो जाती है। और यदि साधक में इस ज्ञान का अभाव है तो उसके लिए स्वाधिष्ठान चक्र एक अभेद्य लोहे की दीवार की तरह से होता है, जिसे किसी भी जन्म में कोई भी पार नहीं कर सकता। ‘सद्गुरु कृपा ही केवलं’ यही स्वाधिष्ठान चक्र की साधना का मूलमंत्र है। जिसकी सहायता से साधक को इससे आगे मणिपुर चक्र की साधना का अवसर मिलता है।


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