डडडड विज्ञान की कसौटी पर डडडड

September 2001

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योग की प्राचीनता काल की पुरातनता के सघन कुहासे से आच्छादित है, फिर भी हम इसके उद्भव को वेदों में खोज सकते हैं। वनों व अरण्यों की गोद में पली बढ़ी इसकी विकसित अवस्था को हम उपनिषदों में पाते हैं। यही योग जीवन की पूर्ण सक्रियता के बीच महाभारत की युद्ध भूमि में श्रीकृष्ण के मुख से गीता के रूप में मुखरित हुआ है। पातंजलि के योग सूत्र में यह अपना सुव्यवस्थित रूप पाता है, जो यम, नियम, बहिरंग योग (आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार) व अंतरंग योग (धारणा, ध्यान, समाधि) के रूप में क्रमबद्ध हैं।

प्राचीन योग की ऐतिहासिक यात्रा क्रमशः गौतम बुद्ध, शंकराचार्य के साथ आगे बढ़ती हुई इस युग में रामकृष्ण परमहंस तक आ पहुँची। भारत भूमि में विकसित योग का विश्वव्यापी विकिरण सर्वप्रथम स्वामी विवेकानन्द के विश्वविजयी तुमुल घोष के साथ हुआ। इसी परम्परा में श्री अरविन्द, महर्षि रमण, पं. श्रीराम शर्मा आचार्य, (स्वामी योगानन्द, स्वामी शिवानन्द, स्वामी चिन्मयानंद, स्वामी प्रभुपाद) आदि के नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय है।

इस तरह प्राचीन योग पर्वत, गुहा एवं कन्दराओं की निविड़ गुह्यता से बाहर निकलकर विश्व समाज के सामने प्रस्तुत हुआ है। इसकी शक्ति, सामर्थ्य एवं अलौकिकता से जन सामान्य की तरह वैज्ञानिक समुदाय भी आकर्षित हुआ। किन्तु अपने भौतिक दृष्टि कोण के कारण उसने आसन व प्राणायाम को ही योग का पर्याय माना व अधिक हुआ तो साथ में मानसिक एकाग्रता को भी इसमें जोड़ दिया। और अपने यंत्रों एवं उपकरणों द्वारा इनकी उपयोगिता परखने लगा।

आसनों में शीर्षासन को सर्वश्रेष्ठ माना जाता है। इस पर सर्वप्रथम वैज्ञानिक अध्ययन पोलैंड के ‘थर्ड क्लीनिक ऑफ मेडिसिन’ के डायरेक्टर प्रो. जुलियन ने किया। इसके लिए एक्सरे व ई.सी.जी. आदि उपकरणों की मदद ली गई। उन्होंने रोग निरोधक क्षमता बढ़ाने के साथ इसके रक्त, फेफड़े व हृदय पर आश्चर्यजनक प्रभाव देखे। ‘फर्स्ट कान्फ्रैन्स ऑन द एप्लिकेशन ऑफ योगा इन रिहेविलिटेशन थैरेपी’ के अंतर्गत चैकोस्लोवाकिया में भुजंगासन पर वैज्ञानिक शोध हुआ, व इसे रक्तचाप व मानसिक तनाव में सहायक पाया गया।

अमेरिका के ‘यौगिक ट्रीटमेंट’ ने आसनों की चिकित्सकीय उपयोगिता पर महत्त्वपूर्ण प्रयोग किए हैं। इस संदर्भ में रूस के चिकित्सा वैज्ञानिकों ने भी व्यापक अनुसंधान किया है। सेन्ट्रल क्लीनिकल हास्पिटल मास्को के बाल रोग विशेषज्ञ डॉ. अनातोली वैस्टकाई रोगियों को साधारण आसनों का ही उपचार बताते हैं। भारत में भी आसनों पर वैज्ञानिक अध्ययन हुआ है। इस संदर्भ में बम्बई के डॉ. के.के. दत्ते, पटना के डॉ. श्री निवास, मद्रास के डॉ. लक्ष्मीकान्त आदि के नाम उल्लेखनीय है।

अपने प्रयोगों के आधार पर आधुनिक विज्ञान, आसनों को एक पूर्णता वैज्ञानिक पद्धति मानता है, जिससे सूक्ष्म अवयवों का व्यायाम होता है व इनसे ऐसे रहस्यमयी एवं आश्चर्यजनक लाभ उठाए जा सकते हैं जो अन्य व्यायामों से सम्भव नहीं।

आसन की तरह आधुनिक विज्ञान प्राणायाम की उपयोगिता को अपनी कसौटियों पर कसने में लगा हुआ है। यद्यपि अभी तक उसकी समझ ‘डीप ब्रीदिंग‘ तक ही सीमित है व इसके स्वास्थ्य सम्वर्धन तक ही इसके लाभ को ही प्रमुख मानता है।

द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान इस पर व्यापक प्रयोग हुए। अमेरिका में श्री टामसन ने फौजियों को युद्ध के काबिल व सशक्त बनाने में इसके सफल प्रयोग किए। अपनी साधारण प्रक्रिया व असाधारण लाभ के कारण यह प्रचलित हो गया। यूरोप व अमेरिका में इस पर अनेक वैज्ञानिक अनुसंधान हुए।

मूर्धन्य वैज्ञानिक डॉ. थ्रिसे ब्रूजे ने इसके प्रभावों का गहन अध्ययन किया व स्पष्ट किया कि इसके लाभों को वैज्ञानिक उपकरणों से मापा जा सकता है। सुविख्यात चिकित्सा विज्ञानी रोमार्ड ने प्रयोगों द्वारा दिखाया कि इससे फेफड़े का आयतन (वाटल केपेसिटी) बढ़ती है, जिसका जीवनी शक्ति से सीधा सम्बन्ध है। चिकित्सा विज्ञानी जे.एफ.नन अपनी शोध कृति ‘एप्लाइड रेस्पीरेटरी फिजियोलॉजी’ में निष्कर्ष प्रस्तुत करते हुए कहा कि प्राणायाम से फेफड़े की क्षमता में असाधारण वृद्धि होती है। इससे न केवल ऑक्सीजन के अवशोषण करने की क्षमता बढ़ती है बल्कि प्राणवायु की अधिकाधिक वृद्धि के साथ शरीर एवं मन की क्षमताओं में भारी वृद्धि होती है। वैज्ञानिक विलियम के अनुसार श्वास प्रक्रिया का सीधा प्रभाव मनःस्थिति पर पड़ता है। इसी तरह डॉ. फेरिंग ने ‘पर्सनल हाइजीन’ में श्वास-प्रश्वास को भावनात्मक स्तर के उतार-चढ़ाव से जोड़ा है इस तरह उन्होंने प्राणायाम को मानसिक स्वास्थ्य में लाभदायक माना है। इस तरह प्राणायाम पर अनेकानेक वैज्ञानिक प्रयोग चल रहे हैं। व इसके नए-नए पक्षों को उजागर कर रहे हैं।

आसन, प्राणायाम की तरह वैज्ञानिक समुदाय योग के ध्यान पक्ष पर भी अपने प्रयोग परीक्षण कर रहा है। ध्यान के शारीरिक एवं मानसिक प्रभावों को जानने के लिए तंत्रिका विशेषज्ञों ने प्रमुखतया ईईजी, ईसीजी, ईएमजी पॉलीग्राफ आदि यंत्रों का सहारा लिया है।

डॉ. वेन्सन ने ध्यान के प्रभावों का गहन अध्ययन किया है। अपनी कृति ‘रिलैर्क्सज रिस्पोन्स’ में उनका निष्कर्ष है कि नियमित 20 मिनट का ध्यान पूरे दिन तरोताजा, हल्का-फुल्का व शाँतचित्त बनाने के लिए पर्याप्त है। डॉ. वालेस ने इनके साथ मिलकर शोध किया है, जिसके निष्कर्ष इस तरह से रहे- ध्यान के क्षणों में उपलब्ध कुछ मिनट की विश्राँति कई घण्टे की नींद के बराबर होती है। इस दौरान ख् की खपत 16' घट जाती है। जबकि 5 घण्टे की नींद में यह मात्र 8' कम होती है। लंदन इंस्टीट्यूट ऑफ साइकिएट्री के डॉ. पीटर फेन्विक ने खोज की कि नींद में मिली गहरी शान्ति जागते ही क्षीण होने लगती है, जबकि ध्यान की विश्राँति का प्रभाव अधिक गहरा व देर तक रहता है।

टेक्सास विश्वविद्यालय (अमेरिका) के डॉ. डेविड ओर्म जॉनसन ने जी.एस.आर. मशीन द्वारा देखा कि ध्यान से त्वचा की प्रतिरोधक क्षमता बढ़ती है, जिससे कि व्यक्ति तनाव से वातावरण के दुष्प्रभावों से कम प्रभावित होता है। कैलीफोर्निया यूनिवर्सिटी के डॉ. राबर्ट कीथ बैलेस ने पाया कि ध्यान से हृदयगति, रक्तचाप, नाड़ी एवं श्वासगति में एक स्वस्थ संतुलन स्थापित होता है। इंस्टीट्यूट ऑफ लिविंग हार्ट फाँर्ड के डायरेक्टर डॉ. बर्नार्ड सी. ग्रु एक ने भी ध्यान के वैज्ञानिक प्रभावों का अनुसंधान किया व तनाव मुक्ति एवं निरापद शान्ति के लिए ध्यान को ही सबसे अधिक कारगर उपाय बताया।

मिशिगन विश्वविद्यालय के डॉ. माइकेल, डॉ. ह्यवर एवं डॉ. मैकनान ने संयुक्त शोध के अंतर्गत पाया कि ध्यान में तनाव व्यक्त करने वाले ‘केटई कोलोमिन’ नामक यौगिक की मात्रा में भारी कमी आती है। सुप्रसिद्ध वैज्ञानिक विलियम सीमेन अंतःवृत्ति नियंत्रण व चिंतन मुक्ति के साथ व्यक्तित्व संघटन में ध्यान के प्रभावों को मानते हैं। डॉ. थयोफोर ने मनोरोगों के उपचार एवं मानसिक संतुलन में ध्यान की प्रभावी भूमिका को पाया। नीदरलैण्ड के वैज्ञानिक विलियम पी. वानडेनवर्ग तथा वर्टमुल्डा ने गहरा अध्ययन के बाद पाया कि ध्यान दृष्टिकोण परिवर्तन का अचूक नुस्खा है। वैज्ञानिक अध्ययनों ने यह भी सिद्ध किया है कि ध्यान के क्षणों में मस्तिष्क से अल्फा तरंगों का प्रस्फुटन होता है, जो कि गहन शान्ति की द्योतक होती है। अर्थात् ध्यान मानसिक स्थिरता एवं शान्ति का निरापद उपाय है।

इस संदर्भ में भारत में भी अनेकों वैज्ञानिक प्रयोग हुए हैं। इस संदर्भ में दिल्ली के डॉ. वी. के. आनन्द, वाराणसी के डॉ. के.एन. उडुप्पा, बेंगलोर के डॉ. टी. देसीराजू, बम्बई के डॉ.. दत्ते, मद्रास के डॉ. राममूर्ति आदि नाम उल्लेखनीय हैं।

इस तरह आधुनिक विज्ञान, प्राचीन योग की विविध क्रियाओं को अपनी प्रयोगशाला में जाँच परख रहा है व इसकी उपयोगिता को स्वीकार कर रहा है। साथ ही वह अपनी सीमाओं का भी अहसास कर रहा है कि मात्र यंत्रों द्वारा योग के समग्र स्वरूप का अध्ययन नहीं कर सकता। आवश्यकता अपने शरीर व मन को इसकी प्रयोगशाला के रूप में ढालने की है, ताकि योग मशीनी अध्ययन तक ही सीमित न रहकर जीवन जीने की कला का पर्याय बन जाए। शान्तिकुञ्ज के ब्रह्मवर्चस शोध संस्थान में कुछ ऐसे ही प्रयोग सम्पन्न किये जा रहे हैं।


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