सद्गुरु नूर तमाम

September 2001

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योग के रहस्य कहाँ पाएँ? साधना के सूत्र कहाँ खोजें? इन सवालों का उत्तर एक ही है- ‘सद्गुरु की शरण’। पोथी और किताबें पढ़ने से योग का रहस्य नहीं प्रकट होता। प्रवचन करने और सुनने से साधना के सूत्र नहीं मिला करते। यदि ऐसा सम्भव हो पाता तो आज चहुँ ओर अनगिन योगी गण विचरण कर रहे होते। क्योंकि इन दिनों योग साधना से सम्बन्धित जितनी पुस्तकों का प्रकाशन हो रहा है, उतना पहले कभी नहीं था। योग सूत्रों पर प्रवचन करने और सुनने वाले भी कम नहीं हैं। फिर भी अँधियारा है। साधना के दीए किसी ओर भी जलते दिखाई नहीं देते। आखिर ये दीए जले भी तो कैसे? इसके लिए पहली जरूरत है- मिट्टी के उस दीए को, जो गुरुभक्ति के स्नेह से लबालब भरा है। जिसके प्राण बाती की तरह जलने की आतुर प्रतीक्षा में है।

योग साधना के लिए पहली और अनिवार्य जरूरत है- शिष्यत्व की। शिष्यत्व- गहन आत्म क्रान्ति है। शिष्यत्व पनपेगा तो सद्गुरु मिले बिना न रहेंगे। आज के युग में योग विद्या बाल कौतुक बन कर रह गयी है। जगह-जगह सीखने और सिखाने वालों की भीड़ लगी है। और सबसे मजे की बात है कि इसके लिए लम्बी-चौड़ी फीसें भी हैं। योग विद्या और हजारों का लेन-देन, यह उलटबाँसी इन दिनों जीवन की विडम्बना बन गयी है। प्राणों में प्यास नहीं है तो शिष्यत्व कैसे पनपेगा। अपने समूचे अस्तित्व को हर पल जलाने के लिए तैयार नहीं है तो सद्गुरु की ज्योति भला कहाँ उतरेगी।

पहला, अनिवार्य और महत्त्वपूर्ण प्रश्न यह नहीं है कि वे सद्गुरु कहाँ है, जो हमारी योग साधना के प्रति जिज्ञासा पूरी करेंगे? सबसे गहन और अनिवार्य सवाल यह है कि क्या हमारे अन्दर सच्चे शिष्यत्व ने जन्म ले लिया है? क्या हमारे पास वे आँखें हैं जो उन्हें देख और पहचान सकें? अपने अन्दर इन प्रश्नों का समाधान खोजे बगैर सद्गुरु की कृपा नहीं मिल सकती है। और सद्गुरु की कृपा के बिना योग साधना के रहस्य नहीं जाने जा सकते। हाँ लोक प्रचलन में योग के नाम पर जो बाजीगरी सीखी और सिखायी जा रही है- उसे अवश्य जाना और पाया जा सकता है। ‘सद्गुरु की शरण सद्गुरु की कृपा ही योग साधना के रहस्यों की कुञ्जी है।’ यह तथ्य त्रिकाल सत्य है। इसे कोई कभी मेट और मिटा नहीं सकता।

बाबा कबीर कहते हैं-

दुख-सुख वहाँ कछु नहिं व्यापै दरसन आठो याम। नूरै ओढ़न, नूरै डासन, नूरै का सिरहान, कहै कबीर सुनो भाई साधो, सतगुरु नूर तमाम।

अर्थात्- ‘सतगुरु के दर्शन होने पर फिर आठों पहर सुख-दुःख नहीं व्यापते। और वे सद्गुरु कैसे हैं? इसके बारे में वह कहते हैं कि प्रकाश ही उनका ओढ़ना है, प्रकाश ही उनका बिछौना है, प्रकाश का ही उनका सिरहाना है। अरे भाई, सद्गुरु तो समूचा प्रकाश पुञ्ज ही है। यानि कि बस वे प्रकाश पुरुष हैं।’ ऐसे प्रकाश पुरुष सद्गुरु के मिलने पर भला जीवन में अन्धकार कहाँ टिक सकता है।

सद्गुरु की इस रूप में पहचान, जीवन में बड़ी अनूठी घटना है। क्योंकि गुरु इस जगत् में सबसे बड़ा चमत्कार है। क्योंकि वह होते तो सामान्य आदमी जैसे ही हैं, फिर भी उनमें जो कुछ है, वह आम आदमी जैसा नहीं है। इस रहस्य को तभी अनुभव किया जा सकता है। जब अन्तर्चेतना में शिष्यत्व अंकुरित हो। इसके बिना तो योग साधना असम्भव है।

गाण्डीवधारी अर्जुन योगेश्वर श्रीकृष्ण के निकट सम्बन्धी थे। बचपन से उन्होंने श्रीकृष्ण के चमत्कारों की कथा भी सुनी थी। विश्वास और प्रेम भी था। परन्तु उनके जीवन में योग साधना तभी पनपी, जब उनका रोम-रोम पुकार उठा- ‘शिष्यस्तेऽहं शाधि माँ त्वा प्रपन्नं’। हे जगद्गुरु! मैं आपका शिष्य हूँ, मुझे बोध कराओ, मैं आपकी शरण में हूँ। प्राणों की इस पुकार पर ही जगद्गुरु योगेश्वर श्रीकृष्ण उनके सद्गुरु हुए। और फिर तो एक-एक करके योग के सभी रहस्य उनके अंतर्हृदय में खुलते चले गए।

इस सम्बन्ध में सूफियों में एक बड़ी रोचक कथा है- एक युवक के मन में योग साधना के प्रति जिज्ञासा अंकुरित हुई। इस जिज्ञासा के साथ ही उसने सद्गुरु की खोज शुरू की। अपनी इस खोज में वह भटकता हुआ एक पेड़ के पास पहुँचा। वहाँ पहुँच कर उसने देखा कि एक फकीरनुमा व्यक्ति वहाँ बैठा हुआ ईश्वर स्मरण कर रहा है। जिज्ञासु युवक ने उससे निवेदन किया, बाबा! आप फकीर हैं, साधना के जानकार हैं। मुझे योग साधना के कुछ सूत्र बताइए, ताकि मैं भी अपनी छिपी हुई शक्तियों को जान सकूँ, आपकी तरह से चमत्कारी बन सकूँ, साथ ही ईश्वर लाभ भी कर सकूँ।

जवाब में फकीर ने उस युवक की ओर देखा। उस फकीर की दृष्टि में करुणा छलक रही थी। कुछ पल मौनभाव से देखते हुए उसने युवक से कहा- बेटा! योग साधना में दीक्षा देने का अधिकार केवल सद्गुरु को है। वही तुम्हारी सभी कामनाओं को तृप्त कर सकते हैं। मैं तो बस इतना कर सकता हूँ कि यदि तुम चाहो तो, तुम्हारे सद्गुरु की पहचान बता सकता हूँ। फकीर की इन बातों से युवक को भारी राहत मिली। उसने कहा- चलो यही सही, आप पहचान बताएँ।

बूढ़ा फकीर धीमी आवाज में बोला- बेटा! तुम्हारे सद्गुरु सामान्य नहीं है, वे प्रकाश पुरुष हैं। बस तुम उन्हें ढूंढ़ते रहो। एक दिन तुम उन्हें ऐसे ही किसी पेड़ के नीचे बैठा हुआ पाओगे। उनकी देह से प्रकाश निकल रहा होगा। उनकी आँखों में तुम्हारे लिए अपार वात्सल्य होगा। बस तुम उन्हें ढूंढ़ो। फकीर के इन वचनों के साथ युवक अपने सद्गुरु की तलाश में चल पड़ा। दिन-मास-वर्ष बीतते गए। उसने अनेकों नगर-वन-उपवन, रेगिस्तान की खाक छानी।

आखिर एक दिन वह इस ढूंढ़ खोज में भटकता हुआ एक पेड़ के पास पहुँचा। उस पेड़ के पास पहुँचते ही उसका मन आश्चर्य से भर उठा। वहाँ तो सब ओर प्रकाश की छटा थी। एक वृद्ध फकीर प्रकाश पुरुष के रूप में उसके सम्मुख था। युवक फकीर के चरणों में गिर पड़ा। फकीर उसे बड़े प्यार से अपनाया। इस सब के बाद युवक ने जब फकीर को गौर से देखा- तो उसका अचरज दुगुना हो गया। अरे यह तो वही फकीर था- जिसने उसे सद्गुरु के मिलन का मार्ग सुझाया था।

युवक ने फकीर से भाव विह्वल स्वर में पूछा- बाबा! आपने मुझे इतना भटकाया क्यों? आपने मुझे पहले क्यों नहीं अपनाया। वृद्ध फकीर ने कहा- बेटा! मैं तो वही हूँ, हाँ तुम अब बदल गये हो। पहले तुममें मात्र कौतुक था। अब तुममें शिष्यत्व जाग उठा है। बस इसी शिष्यत्व के जगते ही तुम मुझे पहचानने में समर्थ हो गए। कुछ पल रुक कर फकीर ने पुनः कहा- बेटा! सिद्ध, सन्त, योगी, महायोगी बहुतों को मिल जाते हैं। पर योग साधना का रहस्य बताने वाले सद्गुरु तो बस सच्चे शिष्य को मिला करते हैं।

सूफियों की यह कथा हम सबका अपना सच भी है। परम पूज्य गुरुदेव हमें मिले, हम सबको मिले। किसी ने उन्हें विद्वान् के रूप में पाया, तो किसी ने समर्थ सिद्ध के रूप में। पर योग साधना का रहस्य तो उसी को मिलेगा, जो उन्हें सद्गुरु के रूप में पहचान सकेगा। यह पहचान ही उसके जीवन में योग साधना के सूत्रों और उनमें समाए, रहस्यों को उजागर उद्घाटित करेगी। यह उद्घाटन सही और समुचित रीति से हो, इसके लिए उपयुक्त वातावरण की भी आवश्यकता है।


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