हिमालय की छाया गंगा की गोद में बसा युगतीर्थ

September 2001

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किसी भी पौध का बीज उचित वातावरण एवं खाद-पानी के रहते ही अंकुरित होकर फूलने-फलने की अवस्था तक बढ़ जाता है। इसी तरह योग-साधना की सफलता एवं प्रगति के लिए अनुकूल वातावरण का होना अनिवार्य है। विरले आत्मबल सम्पन्न मनस्वी ही वातावरण के विपरीत प्रभाव को निरस्त करते हुए उसे तोड़-मरोड़ कर बदल पाने में सफल होते हैं, अन्यथा सामान्य जन इसके प्रवाह में ढलने, गलने व बहने के लिए विवश पाए जाते हैं।

इसका कारण है अनगढ़ मन की सहज प्रवृत्ति जो स्वभाव से निम्नता की ओर अभिमुख रहती है। जिस तरह गुरुत्वाकर्षण बल के प्रभाव से गिरती वस्तु और गति पकड़ती है, इसी प्रकार वातावरण के दूषित प्रवाह में मन की निम्न प्रकृति और मुखर हो उठती है। इसी क्रम में कुसंस्कारों का उभार, भ्रष्ट चिन्तन की लिप्तता एवं दुराचरण की आँधी-व्यक्ति को जीवन आदर्श एवं ध्येय से विचलित कर पशु-पिशाच स्तर पर लाकर पटक देती है।

योग साधना का उद्देश्य मन की निम्नगामी प्रवृत्ति को उर्ध्वगामी दिशा देना है। इसमें साधनात्मक पुरुषार्थ की अपनी महत्त्वपूर्ण भूमिका है, किन्तु यदि इसमें उचित वातावरण का पुट भी लग जाय, तो कार्य सरल हो जाता है। अन्यथा वातावरण की विषमता में मन को साधना कितना दुष्कर कार्य बन जाता है, इसे सामान्य जीवन क्रम में ही अनुभव किया जा सकता है। शहर का कोलाहल, गंदगी एवं भीड़ भरा वातावरण स्वस्थ व्यक्ति तक को अर्ध पागल जैसी स्थिति में ला देता है। अस्पताल एवं मरघट के वातावरण में जीवन की नश्वरता एवं सत्य का बोध कितनी सहजता से होता है इसे हर कोई जानता है। इसी तरह राग-रंग भरे भड़काऊ वातावरण में मन के निग्रह की दुष्वारिता समझी जा सकती है।

जबकि इस वातावरण से दूर शान्त, एकान्त एवं प्राकृतिक सुरम्यता के ग्राम्य या पहाड़ी आँचल में प्रवेश करते ही मन में हल्कापन एवं शान्ति स्वतः ही उमड़ने लगती है। इसके साथ ही यदि भूमि में दिव्यता के संस्कार विद्यमान हो तो, मन की सौम्य-स्थिरता एवं नीरवता सहज ही स्थापित हो जाती है।

दैनन्दिन जीवन में वातावरण के प्रभाव के ये अनुभव व्यक्ति तक सीमित नहीं हैं, बल्कि पूरा समूह, जाति एवं जन समुदाय इसके प्रभाव एवं विशेषताएँ अनुभव करता है। सुप्रसिद्ध विद्वान् जॉन स्टुअर्ट मिल ने अपने ग्रंथ ‘प्रिंसिपल ऑफ पॉलिटिकल इकोनॉमी’ में इसको कई उदाहरणों सहित स्पष्ट किया है। उनके अनुसार- कही के निवासी अधिक बहादुर व साहसी होते हैं तो कहीं के खूँखार। किसी जाति में चरित्रनिष्ठ अधिक दिखाई देती है। जापान, इसराइल, डेनमार्क आदि देशों के निवासी अधिक परिश्रमी पाये जाते हैं। सरहदी पठानों का खूँखारपन प्रसिद्ध है। मिल के अनुसार स्थान विशेष के निवासियों में ये विशेषताएँ वातावरण के प्रभाव का परिणाम है। प्रसिद्ध दार्शनिक जूलियस हक्सले ने इस विशेषता को ‘साँस्कृतिक विशेषता’ की संज्ञा दी है और कहा कि कोई भी व्यक्ति इस विशेषता को उस वातावरण में रहकर प्राप्त कर सकता है।

वातावरण के प्रचण्ड प्रभाव के उदाहरण हमारे धर्मग्रंथों में भरे पड़े हैं। कथा प्रचलित है कि हस्तिनापुर के उत्तर में मयदानव के क्षेत्र में जब मातृ-पितृ भक्त श्रवण कुमार गुजर रहे थे, तो वे माता-पिता को काँवर सहित वहीं छोड़कर आगे चल दिए। उस क्षेत्र से बाहर निकलने पर उन्हें अपनी गलती का अहसास हुआ और वे पुनः अपने माता-पिता को साथ लेकर आगे चल पड़े। महाभारत का युद्ध क्षेत्र ऐसा स्थल चुना गया था जहाँ हिंसा एवं रक्तपात के प्रबल संस्कार विद्यमान थे। कुरुक्षेत्र के समीप ही पानीपत की ऐतिहासिक लड़ाइयाँ प्रसिद्ध हैं जो बाबर-राणासाँगा, बाबर-इब्राहिम लोदी और हुमायू-लोधी के बीच लड़ी गई थी। तीनों लड़ाइयाँ वर्षों के अन्तराल के बाद हिंसा एवं रक्तपात से संस्कारित एक ही स्थान पर लड़ी गई थीं।

वातावरण में आसुरी प्रवाह की तरह दिव्यता के प्रचण्ड शक्ति प्रवाह का भी अपना प्रभाव रहता है। रामायण काल में अगस्त्य मुनि की वेदपुरी इसका एक जीवन्त उदाहरण है। राक्षसराज रावण तक इसके आभामण्डल के पास फटकने का साहस नहीं कर पाता था। उसका अपने अनुचरों को स्पष्ट आदेश था कि वे इसमें प्रवेश करने का दुस्साहस न करें, अन्यथा प्राणों से हाथ धो बैठेंगे। इसी तरह का ताजा उदाहरण अलीपुर जेल का है। इसकी एक काल कोठरी में बंद कैदी यहाँ किसी भी तरह रह न सका, उसकी शिकायत थी कि उसका मन गहराइयों में डूब रहा है। प्रारम्भ में यह बात किसी को समझ में नहीं आई। गहरी खोजबीन करने पर पता चला कि राजनैतिक सक्रियता के दिनों में श्री अरविंद ने जेल के दिन इस कोठरी में बिताए थे और तप साधना द्वारा इसे दिव्यता से ओतप्रोत कर दिया था। वही वातावरण की दिव्य प्रखरता कैदी पर हावी हो रही थी। इसी वातावरण के प्रभाव से प्राचीन ऋषियों के आश्रमों में शेर व गाय एक घाट पर पानी पीते थे। इस युग में भी महर्षि रमण के आश्रम में ऐसा ही दृश्य दिखाई पड़ता था। जब हिंसक जीव पालतू पशुओं की भाँति महर्षि व उनके पास आने वाले दर्शनार्थियों के साथ घूमते थे।

इसी तरह हिमालय, युगों से तपस्वियों एवं सिद्ध पुरुषों द्वारा अनुप्राणित दिव्य स्थल रहा है। सूक्ष्मदर्शी मनीषियों के मत में अभी भी इसकी दुर्गम कंदराओं एवं गुह्य क्षेत्रों में ऋषिगण स्थूल एवं सूक्ष्म शरीर में तप-साधना कर रहे हैं। हिमालय का कण-कण इनके तपःतेज से आवेशित है। इसके दिव्य प्रभाव के कारण ही व्यक्ति इसके आँचल में प्रवेश करते ही उच्चभाव भूमिका में विचरण करने लगता है। हिमालय की गोद में रहने वाले पहाड़ी लोगों की सरलता एवं सच्चरित्रता को इसी के प्रभाव की परिणति मान सकते हैं।

पुरातन ऋषि एवं आचार्यगण वातावरण के प्रचण्ड प्रभाव से भली भाँति परिचित थे। अतः इसके चमत्कारिक प्रभाव से जन-मानस को आवेशित करने के लिए उन्होंने तीर्थों की स्थापना की थी। ये सामान्यतया जन कोलाहल से दूर नदी या सरोवर के किनारे प्रकृति की सुरम्यता के बीच स्थित होते थे। साथ ही ये साँस्कृतिक प्रेरणाओं से सम्पन्न व ऋषियों की तप-साधना द्वारा संस्कारित होते थे।

दिव्य वातावरण से युक्त ये तीर्थ स्थल सहज ही आगंतुक के मनःमस्तिष्क को योग साधना की गहनता से ओतप्रोत कर देते थे। यहाँ आकर जीवन की दशा एवं दिशा पर गंभीर चिन्तन-मनन के लिए प्रेरित होता था। यहाँ रह रहे तपस्वी एवं ज्ञानी पुरोहितों-आचार्यों के मार्गदर्शन में जीवन की गुत्थियों का समाधान मिलता था और भावी जीवन की रीति-नीति का निर्धारण होता था, इस तरह उच्च आदर्शों के अनुरूप जीवन को गढ़ने व सँवारने के संकल्प एवं आत्मबल के साथ व्यक्ति तीर्थ से प्रस्थान करता था। साँस्कृतिक गौरव गरिमा का पुरातन अध्याय वस्तुतः इस वातावरण के प्रभाव की ही गाथा है।

काल क्रम में इसका आभामण्डल मन्द पड़ता गया। आज तीर्थ तो हैं किन्तु कुछ अपवादों को छोड़कर वह वातावरण कहीं उपलब्ध नहीं है। अधिकाँश तीर्थ स्थल श्रद्धालुओं की धर्म भावना के शोषण का केन्द्र बने हुए हैं। उच्चस्तरीय वातावरण के संकट की इस स्थिति में युगऋषि परम पूज्य गुरुदेव श्रीराम शर्मा आचार्य एवं परम वन्दनीया माताजी द्वारा स्थापित एवं संस्कारित हरिद्वार के सप्तसरोवर क्षेत्र में स्थित शान्तिकुञ्ज एक आशा की किरण बनकर सामने आया है। योग साधना के लिए उपयुक्त सभी विशेषताओं से युक्त वातावरण यहाँ उपलब्ध है। और युग तीर्थ के रूप में यह नैष्ठिक साधकों को साधना के लिए भाव-भरा आवाहन एवं स्नेह निमंत्रण दे रहा है।


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