इक्कीसवीं सदी की शुरुआत, एक नए युग का प्रारम्भ है। यह नया युग सम्भावनाओं का युग है। अनेकों सुखद सम्भावनाएँ हैं, जो साकार हो सकती हैं। और यदि ये साकार हो जायँ, तो मानव के उज्ज्वल भविष्य में कोई संशय नहीं पर ये साकार तभी होंगी, जब उन अवसरों का सदुपयोग किया जाय, जो समय ने हमें दिए हैं। सवाल यह है कि हम क्या करें? और कैसे करें? इन सवालों का सही और सटीक जवाब पाने के लिए हम सबको विगत सदी के अनुभवों से सीखना होगा।
उपलब्धियों की दृष्टि से बीसवीं सदी का कम महत्त्व नहीं है। विज्ञान ने अपना शैशव और तरुणाई इसी सदी में पायी है। धरती से लेकर अनन्त अन्तरिक्ष की यात्रा इसी सदी में पूरी हुई है। पर साथ ही दो महायुद्ध और सैकड़ों छोटे-मोटे युद्ध भी इसी सदी में लड़े गए हैं। सीधे-सादे, सरल-संयमी जीवन से उच्छृंखल-असंयमी और विक्षिप्त जीवन की दूरी भी इसी दौरान पूरी की गयी है। यही है वह विरासत जिसे लेकर हमने इक्कीसवीं सदी में अपने पाँव रखे हैं। जिसमें वायरस पीड़ित संचार क्रान्ति के साथ हिरोशिमा और नागासाकी की चीखें भी शामिल हैं। भविष्य निर्माण के लिए हम अतीत को भुला नहीं सकते। और न ही अतीत की भूलों का सुधार किए बगैर सार्थक भविष्य निर्माण सम्भव है।
अतीत की सबसे बड़ी भूल यही है कि मनुष्य ने स्वयं को खो दिया। जड़ पदार्थों के ढेर में मानवीय चेतना भी जड़ हो गयी। यह जड़ता ही तो है कि कोई एक नहीं बल्कि हम सभी स्तब्ध और निःस्तब्ध हैं। प्रणालियाँ बदली जाती हैं, तरीके बदले जाते हैं। प्रशासन और सरकारें बदली जाती है पर समस्याएँ नहीं बदलती। और तब तक बदलेगी भी नहीं, इनका समाधान भी तब तक नहीं होगा जब तक इन्सान स्वयं नहीं बदलता। वह फिर से अपने सत्य स्वरूप को खोज नहीं लेता। इक्कीसवीं सदी में हमने जिन साधनों के साथ प्रवेश किया है, उनके सदुपयोग के लिए साधना चाहिए। जी हाँ, योग साधना, जो इक्कीसवीं सदी में प्रत्येक मानव का अनिवार्य कर्त्तव्य बन गयी है। यही वह औषधि है, जिसके द्वारा समय की समस्त व्याधियों का निदान सम्भव है।
योग साधना से ही स्वयं को सही ढंग से जाना जा सकता है। और जब हम स्वयं को जान पाएँगे, तभी यह अनुभूति होगी कि हमारे लिए क्या उपयोगी है और क्या अनुपयोगी? हर युग के सन्तों, भक्तों एवं महापुरुषों ने अपने-अपने युग में इन्सान को इसके लिए चेताने की कोशिश की हैं। पर कभी उन्हें सुना गया, तो कभी अनसुना किया गया। पर अब बात कुछ और है। अब की स्थिति यह है कि सोने के लालची सेठ की भाँति हमने अपने सारे सम्बन्धियों, कुटुम्बियों, यहाँ तक कि स्वयं को भी सोने में बदल डाला है। अब तो योग साधना से ही उजड़ी हुई इन्सानी दुनिया फिर से बस सकती है।
योग साधना के तत्त्वदर्शन को जानकर ही मनुष्य स्वयं को पा सकता है। इसी के द्वारा उसे खोई हुई शान्ति मिल सकती है। योग साधना का नियमित अभ्यास मनुष्य को स्वास्थ्य, सौंदर्य, प्रतिभा, विद्या, हंसी, खुशी के ढेरों वरदान दे सकती है। शास्त्र वचन है- योगी के लिए कुछ असम्भव नहीं। तो आइए इक्कीसवीं सदी में उज्ज्वल भविष्य की सम्भावना को साकार करने के लिए योग साधना के तत्त्वदर्शन को हृदयंगम करें।